सभी के लिए माफ़ी (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | May 28, 2022

बचपन से सुना है कि क्षमा का आदान प्रदान कर लेने से कई समस्याएं खत्म हो जाती हैं। जैसे ही मन का इशारा मिलता है माफ़ी, हाथों और शब्दों के सहारे सदभावना यात्रा संपन्न कर देती है। फेसबुक जैसी महान किताबों के रचयिता भी हमारे जैसे देशों से माफ़ी मांगकर अपना धंधा कायम रखते हैं। वैसे यह गर्व भरी सूचना है कि दुनिया में फेस बुक से सबसे ज्यादा प्यार, हम करते हैं। यह नीम में लिपटा गुलाब जामुन टाइप एक हज़ार प्रतिशत सच है कि फेसबुक, युटयूब वह्त्सेप के इलावा दूसरा ग़ज़ब स्वादिष्ट चारा हमारे लिए नहीं है और उनके पास भी हम से ज्यादा बेहतर चरने वाले नहीं है। तभी तो हम खुले दिल वाले सभ्य, सांस्कृतिक लोग बड़े से बड़ा राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक प्रकोप बाएं हाथ से सक्रिय कर माफ़ करने की स्थितियां पैदा कर देते हैं। हर समझदार प्रबंधन बुद्धिमान ज्योतिषी की मानिंद होता है जिसे पता होता है कि अपना सामान बेचने के लिए बाज़ार में माहौल कैसे तैयार करना है वहां कौन से सच और झूठ बिक सकते हैं। किसी को भी माफ़ न करने वाली महारानी राजनीतिजी लोकतंत्र को नाराज़ नहीं करती। बस, यहीं क्षमा के प्रवेश की ज़रूरत है। 

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विदेशी तो ज़रा सी बात पर माफ़ी, धन्यवाद, मुस्कराहट, हाय हैल्लो की अदला बदली, अनजान व्यक्ति से भी कर लेते हैं। चाहें तो हम उनसे भी सीख सकते हैं। रहीम ने भी दोहों में बड़ों द्वारा क्षमा करने की सलाह दी है लेकिन आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सचमुच ‘बड़े’ लोग माफ़ करेंगे या सिर्फ उम्र में बड़े। छोटन लोगों के उत्पात तो जारी रहते ही हैं। बड़प्पन की धरती पर कौन छोटा है जिसके कृत्य छोटे हैं या उम्र। बदली हुई परिभाषाओं की क्यारी में समझ की घास का बड़ा गड़बड़झाला है। यह अच्छा नैतिक परिवर्तन हो सकता है कि बढ़ते तनाव, दबाव, बहाव और रक्तचाप की स्थिति में खालिस भारतीय नुस्खों को ओढ़ते हुए माफ़ी का प्रयोग किया जाए। वो ‘बड़े’ व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि माफ़ करे या न करे या किसी भी कीमत पर न करे। फिर भी अच्छी बात तो अच्छी ही होती है। हम अभी भी यही मानते होंगे  कि क्षमा मांगने या कर देने से कोई छोटा नहीं हो जाता बलिक यह पता चलता है कि हम रिश्तों की कितनी कद्र करते हैं। वह बात दीगर है कि आजकल रिश्ते भी वस्तुओं की मानिंद ट्रेंडी हैं। राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक अस्वस्थताओं के कारण रिश्ते लगातार रिसते जा रहे हैं तभी ज़माना दिल से नहीं, दिमाग से क्षमा मांगने का है।

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वक़्त इशारा कर रहा है कि अब हम विदेशियों का यह (अव)गुण भी अपना लें। विदेशों में तो बाकायदा ‘राष्ट्रीय सॉरी दिवस’ मनाया जाता है और उस दिन हमारे यहां भी क्षमा वितरित करने की शुभ राष्ट्रीय शुरुआत हो सकती है। अपनी अपुष्ट कारगुजारियों के लिए सरकारें भी इस दिन एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर ‘दुःख निवारण दिवस’ मना सकती है। क्षमा मांगने या करने को यदि व्यवसाय में न बदला जाए तो कई दशाएं सुधर सकती हैं। यह नई किस्म का मानवीय आयोजन माना जा सकता है। संशय यह है कि माफ़ ‘बड़े’ करेंगे या ‘छोटे’ और उत्पात कौन मचाएगा। क्योंकि बड़ा आदमी, छोटा उत्पात मचाना नहीं चाहता और छोटा आदमी, बड़ा उत्पात मचाने के काबिल नहीं होता। वैसे सबसे पहले खुद को क्षमा करने की ज़रूरत है फिर दूसरों को उनके उन क्रियाकलापों के लिए जो हमें गुस्ताखियां लगे, के लिए माफ़ कर सकते हैं। कुछ अनाम लोगों को उनके प्रसिद्ध कृत्यों के लिए भी माफ़ कर देने से इंसानियत का भला बढ़ सकता है। माफ़ करने वाला इंसान ही रहेगा या....। सवाल एक और भी है, क्या हमारे विकसित, सभ्य, संपन्न समाज को वाकई इस तुच्छ चीज़ की ज़रुरत है। 


- संतोष उत्सुक

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