देवलोक का अमृतकाल बनाम मृत्युलोक में मानवता का पतनकाल (व्यंग्य)

By डॉ. मुकेश 'असीमित' | Jul 05, 2024

देवराज इंद्र की सभा लगी हुई थी। सभी देवगण एकत्रित हुए थे, सभी अपने देवत्व स्वरूप काया और इंद्रलोक की माया की चकाचौंध में फूले नहीं समा रहे थे कि तभी देवर्षि नारद आ धमके। दरअसल सभा में देव लोक का अमृतकाल महोत्सव चल रहा था, अप्सराएं अपनी देव लुभावनी मुद्रा में नृत्य कर रही थीं, इंद्र राजा भी अमर बेल के अमर फूलों की वर्षा कर रहे थे। सोमरस की स्टाल पर ऐसी भीड़ लगी हुई थी जैसी मृत्युलोक में तंदूरी रोटी की स्टाल पर लगती है! इस अमृतकाल के अमृत महोत्सव में आए इस अचानक व्यवधान से इंद्र राजा मन ही मन क्रोधित तो हुए, लेकिन बाहर अपनी कुटिल मुस्कान धारण किए बोले, "अहो भाग्य हमारे देवर्षी आप पधारे, आजकल तो आप मृत्युलोक में ज्यादा विचरण करते हैं, देवलोक की तरफ आपका ध्यान ही नहीं। क्या चक्कर है, वहां कोई गठबंधन की सरकार में मंत्री पद का अवसर मिल गया क्या?"


देवर्षि नारद ने इंद्र राजा के कटाक्ष को नजरअंदाज करते हुए कहा, "देवराज इंद्र, तुम अपने देवत्व पर जो फूल रहे हो ना, तुम ही बताओ देवता, दानव और मानव में श्रेष्ठ कौन है।" देवराज इन्द्र बोले-आप भी नारद मुनि, अब हमारी श्रेष्टता पर ही सवाल दागने लगे, आप मृत्युलोक में विरोधी पार्टी से मिलकर हमारा सिंघासन हिलाना चाहते है क्या?"

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देवर्षि नारद ने कहा, "नहीं इंद्र बिलकुल इस भुलावे में मत रहो, श्रेष्ठ तो मानव ही हैं। देखो, कैसे मानव ने अपना खुद का संसार रच लिया है, उसे अब देवों की परवाह नहीं, दानवों की परवाह नहीं। वह खुद ही अपने अवसरों के अनुसार दानव-देवता का रूप धारण कर सकता है। इतना चुटकी बजाते ही रूप बदलने की कला देवों और दानवों ने तो नहीं सिखाई, उसने खुद ही ईजाद की है। हम देवताओं ने तो हमेशा मानव को देव कोप की धमकी देकर उसे नियंत्रण में रखने का प्रयास किया। हमने उसके साथ जुड़ी सभी दैहिक भौतिक चीजों को देव स्वरूप बताकर उसे इनका सम्मान करने और इन्हें देव स्वरूप में पूजने का आदेश दिया था। जहां पहले हम आकाशवाणी करके उसे जब मन चाहे तब देव प्रकोप का भय दिखाते रहते थे ताकि वह मनमानी न कर सके, लेकिन अब देखो, उसने खुद के सैटेलाइट लगा लिए। मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को अपने भाषणों, प्रवचनों, घोषणाओं से अपनी बात मनवाने की चेष्टा कर रहा है। भड़काऊ भाषणों, धार्मिक प्रवचनों से घोले गए ज़हर से पल भर में समाज में मार-काट मचा सकता है, भाई-भाई को लड़वा सकता है, धार्मिक उन्माद का तूफ़ान खडा कर सकता है । 


मानव, देवता और दानवों से जब तक कमजोर था, जब तक उसमें मानवता भरी हुई थी। मानवता के चलते वह अपने आप की महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित रखता था, पर पीड़ा को समझता था, दूसरों के हित की सोचता था, करूणामय भाव रखता था। लेकिन ये भाव उसे देवों के समकक्ष बना देते थे। वह तो देवों से ऊपर उठना चाहता था, तो 'ना बजेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी' की तर्ज पर उसने मानवता ही छोड़ दी। जैसे ही उसने मानवता छोड़ी, मानव को लगा कि उसमें और जानवरों में कोई भेद नहीं रहना चाहिए, इसलिए वह जानवर बन गया, उसने पशुत्व धारण कर  लिया। अब मानव पशुत्व के भेष धारण कर नारी की अस्मिता पर धावा बोल सकता है, भाई-भाई का गला काट सकता है, धर्म-राजनीति के नाम पर दंगे-फसाद करवा सकता है, मार-काट मचा सकता है! ये सब चुटकियों का काम हो गया है। 


मानव निर्माण करते वक्त ब्रम्हा जी से एक भूल हो गयी थी, उन्होंने मानवता का कोई स्वरूप नहीं दिया, इसलिए मानवता विहीन मानव भी बिल्कुल मानवता धारण किए हुए मानव जैसे नजर आ रहे हैं, और इसी का फायदा उठाकर लोग अपने कुकर्मों को अंजाम दे रहे हैं। जब से मानवता विहीन मानव हुआ है,तब से मानव आपदा में भी अवसर ढूँढने लगा है, कोरोना काल में तो यह उच्चतम स्वरुप में दिखाई दी थी! देवर्षि नारद ने अपनी वाणी को थोडा विराम दिया, पास ही रखा पानी का गिलास गटका और फिर शुरू हो गए "हम ये कह सकते है की ऐसे कुछ काल आते है जब मानव अपने इस मानवता विहीन रूप का ट्रायल लेता है। अब जहाँ भी एक्सीडेंट, बाढ़, भूकंप, बिजली के करंट आदि से लोग मर रहे होते है, सब से पहले उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर करते है ताकि ढेरों लाइक्स कमेंट्स रुपी धन संचय कर सकें !जहां पहले राम नाम की लूट थी वहा अब लायक कॉमेंट्स की लूट का बोलबाला है और लोग इसी धन के जरिये अपना लोक परलोक दोनों सिधारना चाहते है। पत्रकार भी अपनी ब्रेकिंग न्यूज़ "मानवता हुई शर्मसार" के लिए ऐसी जगह पहुँचने को तत्पर रहता है जहा मानवता तार-तार हो रही है ताकि लोगों को बता सके की मानवता कैसे तार-तार होती है, लोग भी लाइव डेमो के जरिये लेसन सीख रहे है और प्रयोग के तौर पर मौका आने पर खुद इसे आजमा रहे है। अब कोई रिश्ते-नातों की परवाह नहीं करता, समाज की परवाह नहीं करता, तुच्छ स्वार्थ के चलते बस अपने हित के बारे में सोच रहा है। उसे देवों की परवाह नहीं, दानवों की परवाह नहीं, मौत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि जब मानवता ही नहीं रही तो डर किस बात का। कोई करूणा नहीं रही, उसे राह चलते दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की तड़प में भी करूणा का भाव नहीं दिखता। बेटा अपनी मरी हुई मां को कंधा देने से पहले वसीयत पर माँ के अंगूठे का हस्ताक्षर करना नहीं भूलता। लोग लाशों की चिता पर अपने हाथ सेंक रहे हैं, उसे ही कैंप फायर की अग्नि समझकर जश्न मना रहे हैं।

कुल मिलाकर इंद्र राजा, तुम अपने देवत्व पर फूल रहे हो ना, कभी अपने सिंहासन से उठकर नीचे मृत्युलोक में जाओ और देखो मानव की तरक्की। वह कहां से कहां पहुंच गया। यह युग वास्तव में मृत्युलोक का अमृतकाल है जहां मानवता चंद सिक्कों की खातिर अपनी नग्नता के प्रदर्शन के साथ अमृत महोत्सव मना रही है। इसके आगे आपका यह अमृत महोत्सव एकदम फीका नजर आ रहा है।"


इंद्र राजा को लगा कि उनका सिंहासन डोलने वाला है। इस तरह तो यह मानव एक दिन उसकी कुर्सी हथिया लेगा। तभी इंद्र राजा ने घोषणा की, "नाच-गान बंद करो, सभी ब्रह्माजी के पास जाकर इसका समाधान ढूंढें कि कैसे मानव में मानवता का सॉफ़्टवेयर वापस इंस्टॉल कर सकें।"


- डॉ. मुकेश 'असीमित'

गंगापुर सिटी, राजस्थान पिन कोड-323301

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