राजधर्म पर अगर स्वार्थपरक राजनीति का धर्म हावी हो जाए तो वही होता है जो पंजाब विधानसभा में हुआ। कांग्रेस के नेतृत्व वाली कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की सरकार ने विधानसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया है और इसे संविधान के खिलाफ बता कर इसे वापिस लेने की मांग की है। शायद कैप्टन अमरेन्द्र सिंह राजनीति के चलते इतने विवश हो चुके हैं कि अपने परिवार की महान परम्पराओं विशेषकर अपनी माताश्री द्वारा दिए गए संस्कारों के खिलाफ चलते दिखाई देने लगे हैं। अमरेन्द्र सिंह पटियाला राजघराने के वारिस हैं और उनकी माताश्री राजमाता मोहिन्द्र कौर केवल राजमाता के अलंकार को धारण करने वाली ही नहीं थीं, बल्कि उन्होंने अपनी पदवी के अनुरूप हर अवसर पर 'राजमाता के धर्म' का पालन किया। बात चाहे राजपाट का कामकाज संभालने की हो या देश विभाजन के समय पीड़ितों की सहायता करने, लोकतन्त्र के पक्ष में आवाज उठाने की या फिर परिवार की मुखिया होने के नाते सदस्यों का मार्गदर्शन करने की, उनका वात्सलय व जिम्मेवारी का भाव सदैव मुखरित हो कर सबके सामने आया। राजमाता ने पाकिस्तान से लुट-पिट कर आए हजारों हिन्दू-सिखों को गले से लगाया लेकिन मुख्यमन्त्री ने विधानसभा में नागरिकता सन्शोधन विधेयक के खिलाफ प्रस्ताव पारित करवा कर के पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान से आने वाले दुखी हिन्दू-सिखों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है।
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बात करते हैं राजमाता मोहिन्द्र कौर की, अगस्त 1938 में 16 वर्ष की आयु में उनकी शादी पटियाला के महाराजा सरदार यादविन्द्र सिंह के साथ हुई। संयोग से उनकी पहली पत्नी का नाम भी मोहिन्द्र कौर था जिसके चलते परिवार के लोग इन्हें अलग पहचान देने के लिए मेहताब कौर के नाम से बुलाने लगे, परंतु अन्त तक उनकी सार्वजनिक पहचान मोहिन्द्र कौर के रूप में ही रही। इनकी पहली सन्तान श्रीमती हेमइन्द्र कौर (धर्मपत्नी पूर्व विदेश मन्त्री श्री नटवर सिंह), दूसरी संतान रूपइन्द्र कौर, मार्च 1942 में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह (पंजाब के मुख्यमन्त्री) और 1944 में सरदार मालविन्द्र सिंह के रूप में चौथी सन्तान हुई।
इस बीच 15 अगस्त, 1947 को देश का विभाजन हुआ। विभाजन का सबसे बुरा असर पंजाब राज्य पर पड़ा और महापंजाब आधे हिस्से में सिमट कर रह गया। विभाजन की त्रासदी झेलने के साथ-साथ सबसे बड़ी चुनौती बनी नए देश पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आने वाली लाखों हिन्दू-सिखों की आबादी। अपनी मातृभूमि से लुटपिट कर आ रहे इन लोगों के पास न तो खाने को अन्न था, न रहने को छत और न ही जीवन की अन्य कोई सुविधा। संकट की इस घड़ी में महाराजा यादविन्द्र के साथ-साथ राजमाता ने अपने राजधर्म का बाखूबी पालन किया। इतिहासकार कुलवन्त सिंह ग्रेवाल बताते हैं कि पटियाला के आसपास शरणार्थी शिविर लगा कर हजारों लोगों को भोजन, दवाएं, कपड़े दिए और उनके पुनर्वास में उनकी सहायता की। राघराने ने अपने राजकोष के साथ-साथ राजमहल के दरवाजे भी खोल दिए। कहते हैं कि राजमाता मोहेन्द्र कौर खुद भोजन तैयार करवातीं और नंगे पांव व ढंके हुए सिर से पूरे सम्मान के साथ विस्थापित लोगों को भोजन करवातीं। उन दिनों को याद कर आज भी इस इलाके के लोगों की आंखें राजमाता के प्रति श्रद्धा से झुक जाती हैं।
देश विभाजन के बाद सरदार पटेल ने देश के एकीकरण का काम शुरू किया तो 15 जुलाई, 1948 को पटियाला राजघराने ने अपने राज्य का विलय भारतीय संघ में कर दिया। उस समय राजमाता मोहिन्द्र कौर ने अपने राजकीय दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया। पंजाब और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (पेप्सू) का गठन किया गया तो महाराजा यादविन्द्र सिंह को राजप्रमुख नियुक्त किया गया। महाराजा यादविन्द्र सिंह को भारत सरकार की तरफ से 1956 में सन्युक्त राष्ट्र की आम सभा, 1957-58 में युनेस्को, 1959 में यूएनएफएओ में प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। वे 1965 से 66 तक इटली और 1971 से 74 तक नीदरलैण्ड में भारतीय राजदूत भी रहे। राजमाता मोहिन्द्र कौर ने सन् 1964 में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1964 से 67 तक राज्यसभा और 1967 से 71 तक लोकसभा सदस्य रहीं। 1974 में महाराजा यादविन्द्र सिंह का हेग में देहान्त हो गया तो वे परिवार सहित वापिस भारत लौट आईं। कांग्रेस पार्टी में रहते हुए उन्होंने अनेक उच्च दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया परन्तु तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने देश में आपातकाल लगा दिया तो राजमाता मोहिन्द्र कौर ने इसके खिलाफ आवाज वठाई। लोकतन्त्र की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किए।
दुखद बात है कि देश विभाजन व देश में आपातकाल लागू होने के समय संकट की घड़ी में जिस तरह से राजमाता मोहिंद्र कौर ने राष्ट्रधर्म के पालन व साहस का प्रदर्शन किया उस परम्परा को निभाने में असफल रहे कैप्टन अमरेंद्र सिंह।
जैसा कि सभी जानते हैं कि नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के उन प्रताड़ित अल्पसंख्यकों जिनमें हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, इसाई, पारसी शामिल हैं, को भारत की नागरिकता देने के लिए बनाया गया है जिन्हें धार्मिक कारणों से वहां प्रताड़ित किया जा रहा है। देश के विभाजन के बाद यह लोग किसी न किसी तरह भारत नहीं आ पाए थे। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने एतिहासिक भूल में सुधार करते हुए 31 दिसम्बर, 2014 तक भारत आ चुके इन शरणार्थियों को नागरिकता देने की शर्तों में कुछ राहत दी है जिसका कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दल अन्ध विरोध कर रहे हैं। दुखद बात तो यह है कि ऐसे में पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेंन्द्र सिंह ने अपनी पार्टी की लकीर पर चलते हुए केवल इस विधेयक का विरोध ही नहीं किया बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए विधानसभा में प्रस्ताव पारित करवा दिया। गौरतलब है कि चाहे कांग्रेस की विभिन्न प्रदेशों की सरकारें इस विधेयक का विरोध तो कर रही हैं परन्तु कोई कांग्रेसी सरकार इसके विरुद्ध विधानसभा में प्रस्ताव नहीं लाई। वामपन्थी गठजोड़ के नेतृत्व वाली केरल सरकार के बाद पंजाब सरकार इस तरह का कदम उठाने वाली दूसरी राज्य सरकार बनी है।
एक सीमावर्ती राज्य होने के कारण पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की पहली शरणगाह राजस्थान के साथ-साथ पंजाब ही होती है परन्तु राजनीतिक स्वार्थों के चलते मुख्यमन्त्री ने यह जानते हुए भी दुखी शरणार्थी हिन्दू-सिखों के जख्मों पर नमक छिड़का कि उनका यह प्रस्ताव पूर्ण रूप से असन्वैधानिक है क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार, नागरिकता देने का विषय केन्द्र की कार्यसूची में शामिल है न कि राज्य सूची या समवर्ती सूची में। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह खुद भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दे चुके हैं और भलि-भान्ति इस तथ्य से परिचित हैं कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। कैप्टन की छवि एक प्रखर राष्ट्रवादी नेता की रही है जिन्होंने पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राईक, एयर स्ट्राईक सहित अनेक संकटों के समय कांग्रेस पार्टी की लाइन से हट कर देश की सेना व देशवासियों का साथ दिया परन्तु इस बार उन्होंने देश की जनता को विशेषकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आने वाले प्रताड़ित हिन्दू-सिखों को निराशा के भँवरजाल में डुबो दिया है।
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कानून विशेषज्ञों का कहना है कि पंजाब विधानसभा द्वारा केन्द्रीय नागरिकता संशोधन विधेयक के विरुद्ध पास किया गया प्रस्ताव असन्वैधानिक, संघीय ढांचे के विरुद्ध तथा संविधान के मूलभूत ढांचे का उल्लंघन करता है। भारत के संविधान की धारा 256 और 257 के अनुसार प्रत्येक राज्य केन्द्र द्वारा पारित कानून को लागू करने के लिये बाध्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो केन्द्र सरकार उसे दिशा निर्देश भी जारी कर सकती है। यह प्रस्ताव संविधान की उन दोनों धाराओं को चुनौती देता है। भारत के संविधान में संघीय ढांचा अपनाया है जिसके अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों के अलग-अलग अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख है। दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोच्च है और कोई भी एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करता। नागरिकता सम्बन्ध में कानून बनाना न केवल केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है और संविधान की धारा 11 में इस सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार केवल और केवल संसद को देता है। किसी विधानसभा या किसी राज्य सरकार का इसमें कोई दखल नहीं है। पंजाब का ये प्रस्ताव केन्द्र सरकार और संसद के अधिकारों को छीनने का प्रयास है जिसकी संविधान इजाजत नहीं देता।
-राकेश सैन