अखिलेश यादव इस तरह के फैसले लेते रहे तो खत्म हो जायेगी समाजवादी पार्टी

By अजय कुमार | Aug 30, 2019

बदलाव प्रकृति का नियम है, लेकिन बदलाव हमेशा सार्थक नहीं होता है। इसकी सार्थकता तभी है जबकि आपके पास कुछ नया करने का जज्बा हो। अन्यथा अकसर बदलाव के नतीजे ठीक उस मरीज की तरह होते हैं जो वेंटिलेटर पर पड़ा अंतिम सांसें गिन रहा होता है और डॉक्टर किसी चमत्कार की उम्मीद में उसके ऊपर नये−नये प्रयोग करता रहता है। यही बात समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव पर भी लागू होती है। अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की सभी इकाइयों को भंग करके पुनर्गठन की जो बात की है, उसका कितना फायदा समाजवादी पार्टी को मिलेगा, यह तो भविष्य ही बताएगा, परंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि 'सियासी जंग' जीतने में संगठन से बड़ी भूमिका उसको नेतृत्व प्रदान करने वाले की होती है।

 

इतिहास गवाह है जिस पार्टी का नेतृत्व कमजोर पड़ जाता है, वह लम्बे समय तक सियासी मैदान में काबिज नहीं रह पाया है। खासकर, हिन्दुस्तान की राजनीति तो नेताओं के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। केन्द्र की राजनीति में जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक ऐसा ही देखा गया है, तो यही चलन पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक के राज्यों की राजनीति का भी रहा है। इसी वजह से लालू यादव के बाद उनके बेटे और मुलायम को जबर्दस्ती हासिए पर डालने के बाद अखिलेश यादव अपना सियासी वजूद गंवाते जा रहे हैं। सपा प्रमुख अखिलेश न तो अपने नेताओं को बचा पा रहे हैं न उनका वोट बैंक सुरक्षित रह गया है। जिन मुलायम सिंह यादव के 'पैंतरों' के सामने बड़े−बड़े नेता 'ढेर' हो जाते थे, जिनके सामने कांग्रेस का खड़ा रहना मुश्किल था और जो मायावती अपने सियासी प्रतिद्वंद्वी मुलायम के कारण कभी सपा के  मुस्लिम वोट बैंक पर डाका नहीं डाल सकीं, उन्हीं मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव कभी कांग्रेस से तो कभी बसपा से सियासी 'पटखनी' खाते रहते हैं।

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2012 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने मुलायम को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा था। सपा की सरकार बनी, लेकिन मुलायम ने स्वयं मुख्यमंत्री बनने की बजाए बेटे अखिलेश को सीएम की कुर्सी पर बैठा दिया था। संभवतः इसी के साथ समाजवादी पार्टी के बुरे दिन शुरू हो गए। अखिलेश न तो पार्टी को संभाल पाए, न ही कुनबे को। पार्टी में बगावत के बिगुल बजने लगे। यह सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद और तेज हो गया। 2017 का विधानसभा चुनाव आते−आते सपा के कई बड़े नेताओं ने या तो पार्टी से किनारा कर लिया या फिर पार्टी छोड़ कर दूसरे दलों में चले गए। समाजवादी पार्टी के 'जन्मदाता' मुलायम तक को अखिलेश ने हासिए पर डाल दिया। समाजवादी पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधान सभा और 2019 कई उप−चुनावों में भी समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। इस दौरान अखिलेश ने 2017 के विधान सभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में क्रमशः राहुल और मायावती से भी हाथ मिलाकर देख लिया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अभी लोकसभा चुनाव में मिली हार को अखिलेश पचा भी नहीं पाए थे कि उप−चुनाव की दस्तक सुनाई देने लगी है। कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश विधान सभा की 13 सीटों पर होने वाले उप−चुनाव ने समाजवादी पार्टी की धड़कन बढ़ा दी है। अखिलेश की परिपक्वता का अंदाजा इसी से लगया जा सकता है कि जहां बसपा ने उप−चुनाव के लिए प्रत्याशी भी घोषित कर दिए हैं, वहीं अखिलेश संगठन को ही दुरुस्त नहीं कर पाए हैं।

 

कहने को तो सपाइयों द्वारा कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद समाजवादी पार्टी खुद को नए कलेवर में ढालने की तैयारी कर रही है। पार्टी में युवा कार्यकर्ताओं की भागीदारी बढ़ाने के अलावा सोशल इंजीनियरिंग को मजबूती दी जाएगी। पार्टी कार्यालय में प्रमुख नेताओं ने राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ इस बारे में मंथन भी किया है, लेकिन समाजवादी पार्टी में नई ऊर्जा नहीं दिखाई दे रही है।

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पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और बसपा से गठबंधन का प्रयोग फेल होने के बाद समाजवादी पार्टी संगठन की ओवरहॉलिंग पर अधिक फोकस कर रही है। जानकारों का कहना है कि सपा को अस्तित्व बचाने के लिए कई मोर्चों पर मुकाबला करना होगा। कुनबे की कलह लोकसभा चुनाव में सपा को ले डूबी। बसपा और रालोद से चुनावी गठबंधन के बाद मजबूत दिखते जातीय समीकरण बेदम साबित हुए। सपा प्रमुख के लिए लोकसभा और विधान चुनाव में अपेक्षित नतीजे नहीं मिलने से अधिक घातक बसपा प्रमुख की रणनीति को नहीं समझ पाना है। बसपा गठबंधन कर सपा को बौना साबित करने में सफल रही। सपा को इसका नुकसान विधानसभा की रिक्त 13 सीटों पर होने वाले उप−चुनाव में ही नहीं त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भी उठाना पड़ सकता है।

 

ऐसा लगता है कि अखिलेश को सियासी टाइमिंग की समझ ही नहीं है। ऐसा न होता तो अखिलेश यादव उप−चुनावों से पूर्व विधानसभा क्षेत्र स्तर तक कमेटियां भंग करने के अलावा फ्रंटल संगठनों को नए सिरे से तैयार करने का निर्णय नहीं लेते। यह काम विधानसभा चुनाव के बाद भी किया जा सकता था। अगर अखिलेश ने समाजवादी पार्टी के फ्रंटल और जिला संगठनों की इकाई को भंग कर ही दिया था, तो इसका जल्द से जल्द पुनर्गठन भी हो जाना चाहिए था। वरना उप−चुनाव में सपा पूरे दमखम से लड़ती नजर नहीं आएगी। अखिलेश की समाजवादी पार्टी को भाजपा के अलावा बसपा से भी टक्कर लेनी होगी, जो आसान नहीं लगता है। उप−चुनाव में सपा के आगे बसपा से बेहतर प्रदर्शन की चुनौती है क्योंकि बसपा भी पहली बार उप−चुनाव में उतरेगी। दोनों में से जो पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी, 2022 के विधानसभा चुनाव में उसी की बढ़त की उम्मीद जगेगी। वर्ष 2022 के लिए संगठन तैयार करते समय सपा एमवाई समीकरण (मुस्लिम−यादव) के अलावा अगड़ों और दलितों को जोड़ने की कोशिश भी करेगी।

 

-अजय कुमार

 

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