आजकल शिरोमणि अकाली दल बादल ने अभियान छेड़ा हुआ है। दल के अध्यक्ष स. सुखबीर सिंह बादल, राज्यसभा सदस्य स. सुखदेव सिंह ढींढसा, डॉ. दलजीत सिंह चीमा सहित अनेक वरिष्ठ नेता शिष्टमंडल के साथ केंद्रीय मंत्रियों से मिल चुके हैं। इनकी मांग है कि संविधान का अनुच्छेद 25-बी में संशोधन कर सिख धर्म को हिंदू धर्म से विलग किया जाए। इस धारा के अंतर्गत सिख, बौद्ध व जैन हिंदू धर्म के ही अंग माने जाते हैं। इसको लेकर अकाली दल के दिल्ली विधायक मनजिंदर सिंह सिरसा वहां विधानसभा में भी इस विषय को उठा चुके हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या अकाली दल अपने इस अलगाववादी अभियान के परिणाम भुगतने को तैयार है? इसके लिए क्या अकाली दल उस आरक्षण को अस्वीकार करेगा जो जातिगत आधारित होने के कारण केवल हिंदू समाज के साथ रहने से ही मिल सकता है? केंद्रीय राज्यमंत्री एवं पंजाब भाजपा के अध्यक्ष श्री विजय सांपला ने अकाली दल को पहले इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने व सामाजिक सरोकारों से जुड़े संगठनों, प्रतिनिधियों व कर्मचारी संगठनों से विमर्श करने का सुझाव दिया। पंजाब में साल 2011 की जनगणना के अनुसार 32 प्रतिशत जनसंख्या दलितों की है जिनमें अनुमानत: 25 प्रतिशत सिख हैं जिनके लिए आरक्षण व इससे मिलने वाली सुविधा जीवन मरण के प्रश्न से कम नहीं है। इतिहास बताता है कि अगर दलित सिखों से आरक्षण की सुविधा छीनी गई तो संभव है कि वे पंथ से भी दूरी बना लें।
अकाली दल की यह मांग जितनी पुरानी उतनी ही अनावश्यक और विवाद पैदा करने वाली है। भारतीय संविधान के अनुच्छेत 25-बी की व्यवस्थाओं के बावजूद आज सिख धर्म देश में स्वतंत्र धर्म के रूप में जाना जाता है। जनगणना के दौरान इसको अलग श्रेणी में रखा जाता है। सिख विद्वान स. मोहन सिंह अपनी पुस्तक डॉ. भीमराव अंबेडकर के पृष्ठ नंबर 54 पर लिखते हैं '14 अक्तूबर, 1949 को गृहमंत्री स. पटेल ने संविधान सभा को बताया कि इसाई प्रतिनिधि की हां में हां मिलाते हुए सिख प्रतिनिधियों ने भी धर्म के आधार पर कोई सुविधा लेने से इंकार कर दिया। लेकिन इसके बाद दलित समाज से जुड़े सिखों के कई नेता स. पटेल सो मिले और उन्हें जाति आधारित आरक्षण की मिल रही सुविधा जारी रखने का आग्रह किया। इन दलित सिखों की मांग के दबाव में आकर बाकी सिख प्रतिनिधियों ने भी आरक्षण की मांग का यह कहते हुए समर्थन किया कि अगर इन दलित सिखों को आरक्षण की सुविधा नहीं मिलती तो वे सिख धर्म छोड़ सकते हैं और इससे वे सिख समाज के तौर पर सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक दृष्टि से कमजोर हो जाएंगे।
इस पूरे मुद्दे पर पूर्वी पंजाब के सिख विधानकारों व संविधान सभा के सदस्यों की बैठक भी स. कपूर सिंह के नेतृत्व में हुई जिसमें मजहबी, रामदासिया, कबीरपंथी, सिकलीगर व अन्य जातियों को आरक्षण देने की बात मान ली गई। उस समय संविधान सभा में अल्पसंख्यक समिति के परामर्शदाता डॉ. भीमराव अंबेडकर ही थे जिन्होंने सिखों को आरक्षण संबंधी स. पटेल की सलाह मान ली। इस पर सिखों को भारतीय अनुच्छेद की धारा 25-बी के तहत हिंदू धर्म के साथ संलग्न कर उन्हें अनुसूचित जाति व पिछड़ा वर्ग को मिलने वाली जातिगत आरक्षण की सुविधा दी गई।
सिख समाज व नेताओं के सम्मुख 68 साल पुराना वह यक्ष प्रश्न आज भी मुंह बाए खड़ा है कि जिसका उत्तर दिए व हल निकाले बिना आगे बढ़ना बहुत कठिन है। क्या सिख समाज का दलित व पिछड़ा वर्ग आरक्षण की सुविधा छोड़ने के लिए तैयार होगा? क्या आरक्षण के लिए सिख समाज का दलित व पिछड़ा वर्ग पंथ की मुख्यधारा से तो नहीं कट जाएगा? अगर ऐसा होता है तो क्या वह सिख पंथ और कमजोर नहीं होगा जो विगत जनगणना के अनुसार पहले ही जनसंख्या के हिसाब से कम हो रहा है? क्या इससे समाज में बिखराव, अनावश्यक बहस व खींचतान पैदा नहीं होगी, समाज में अलगाववादी तत्वों को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा? दलित वर्ग से संबंधित सेवारत अधिकारियों व सरकारी कर्मचारियों का भविष्य कितना प्रभावित होगा?
दरअसल देखा जाए तो विगत विधानसभा चुनाव में पिछड़ कर तीसरे नंबर पर आने की पीड़ा अकाली दल को परेशान किए हुए है और वह अपनी खोई हुई भूमि को प्राप्त करने के लिए भावनात्मक मुद्दे उठा कर पुराने ढर्रे पर आने की चेष्टा करता दिख रहा है। अकाली नेतृत्व को ज्ञात होना चाहिए कि देश की स्वतंत्रता के 70 सालों में देश में बहुत कुछ बदल चुका है। अब भावनात्मक मुद्दों व बातों से राजनीति करना संभव नहीं है। अकाली दल अपनी मांग पर पुनर्विचार करे और इसके खतरों को भांपने का प्रयास करे। यही पंजाब, सिख समाज और अंतत: देश के लिए कल्याणकारी होगा। देश में जब सिख धर्म पूरी तरह से स्वतंत्र धर्म के रूप में स्थापित है, समाज के लोग हर मोर्चे पर आगे बढ़ कर अपना व देश का विकास कर रहे हैं, देश के हर क्षेत्र में सिख समाज की धूम है तो अनावश्यक विवादों से समाज को उद्वेलित करना उचित नहीं है।
-राकेश सैन