अफगानिस्तान में नाटो देश विशेषकर अमेरिका की सेना की वापसी के बाद हालात बिगड़ते जा रहे हैं। तालिबान का प्रभुत्व बढ़ा है। तालिबान के बढ़ते प्रभुत्व को देखकर दुनिया के देश चिंतित हैं। भारत इसलिए चिंतित है क्योंकि अफगानिस्तान के विकास में उसने खरबों डालर का विनिवेश किया हुआ है। भारत सरकार और कूटनीतिज्ञ अफगानिस्तान के हालात पर नजर रखे हैं। इधर−उधर से ऐसी चर्चाएं मिल रही हैं कि भारत अफगानिस्तान में अपनी सेना भेज सकता है। ऐसे माहौल में अमेरिका के विदेश मंत्री मंगलवार को भारत आ रहे हैं। अफगानिस्तान के सेना प्रमुख भी इसी सप्ताह भारत में होंगे। अफगानिस्तान को लेकर 28 जुलाई को इनकी भारत के विदेश मंत्री के साथ और उसके बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से बात होगी। यह भी संभावना है कि तालिबान से निपटने में वह भारत से सेना की मदद मांग सकते हैं। कहा जा सकता है कि वह अफगानों की मदद को सेना भेजे, जबकि लगता है कि भारत ऐसा करेगा नहीं।
अफगानिस्तान में रूस की सेनाएं लंबे समय तक रहीं। कामयाबी न मिलती देख उसे अपने भारी भरकम हथियार छोड़कर वापस आना पड़ा। अमेरिकी समेत नाटों देशों की सेनाएं भी 20 साल अफगानिस्तान में तैनात रहीं, पर अमेरिकी ट्रेड सेंटर पर हमले के जिम्मेदार ओसामा बिन लादेन के खात्मे के अलावा कुछ ज्यादा नहीं कर सकीं। अफगानिस्तान एक ऐसी अंधेरी गुफा का रूप ले चुका है, जिसमें प्रवेश करना तो सरल है, पर निकलना नहीं। रूस की अफगानिस्तान में मौजूदगी के दौरान अमेरिका वहां के आतंकवाद को मदद दे रहा था। पाकिस्तान अफगानिस्तान के तालिबान को लड़ाकू की ट्रैंनिंग देने में लगा था। अमेरिका पहुंचा, तो रूस तो उसका विरोध कर ही रहा था। अमेरिका को इस्लामिक देश भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। दुनिया के मुस्लिम समाज में अमेरिका की छवि मुस्लिम विरोधी की बन गई है। इराक और वहां के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का पतन वे भूले नहीं हैं। इस का कारण यह रहा कि अमेरिका के ट्रेड सेंटर पर हमले को अधिकतर मुस्लिम समाज ने जायज माना। ट्रेड सेंटर पर हमले का बदला लेने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सेना उतारी और ओसामा बिन लादेन के पतन तक वह खामोश नहीं बैठा। अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है, इसलिए ओसामा बिन लादेन के मरने पर इस्लामिक समाज बोला तो कुछ नहीं। किंतु उसे यह घटना गहरा घाव जरूर दे गई। इसका मानना यह रहा कि ओसामा बिन लादेन ही ऐसा था, जिसने अमेरिका को घर में घुसकर ठीक किया था।
महाभारत एक घटना थी। एक युद्ध था। उसमें बहुत सारे योद्धा किसी न किसी ओर से शामिल थे। पर यह भी सत्य है कि उस युद्ध में सबके अपने लक्ष्य थे। अपने दुश्मन। ऐसा ही आज अफगानिस्तान में है। वहां जो देश अफगानी फौज के साथ खड़ा होता है, उसका विरोधी देश वहां के आतंकवादी संगठनों के साथ चला जाता है। ऐसे में जरूरत है कि अफगानिस्तान को आतंकवाद के विरुद्ध खड़ा किया जाए। वहां की सेना को समय की मांग के हिसाब से तैयार किया जाए। उन्हें शस्त्र दिए जाएँ। अपनी लड़ाई वे खुद लड़ें। अब तक उनकी लड़ाई रूस लड़ता आया है या अमेरिका। इनके जवान वहां के पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं। अफगान वहाँ सदियों से रहते हैं। वह वहां की जलवायु में रचे बसे हैं। उनका लड़ना ज्यादा सही होगा। जब तक अफगान जनता की लड़ाई दूसरे लड़ेंगे, कामयाबी नहीं मिलेगी। अपना युद्ध उसे खुद लड़ना होगा।
इसी सप्ताह अमेरिका के विदेश मंत्री भारत आ रहे हैं। उनके प्रवास के दौरान अफगानिस्तान के सेना प्रमुख भी भारत में ही रहेंगे। वे चाहेंगे कि भारत अफगानिस्तान में अपनी फौज भेजे। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम रूस और नाटो देश के वहां हुए हश्र से सीख लें। हम अफगान सेना को प्रशिक्षण दें, तकनीकि शिक्षा दें। अफगानिस्तान ऑपरेशन में जाने वाले अमेरिकी प्लेन को अपने एयरपोर्ट उपलब्ध कराएं। सीधे−सीधे अपनी सेना को अफगानिस्तान में न भेजें। वहां के युद्ध में सीधे शामिल न हों। क्योंकि तालिबान पर कामयाबी के लिए अफगान जनता को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। जब तक वे खड़े नहीं होंगे, तब तक दूसरे देश की सेना के वहां जाने का कोई लाभ नहीं होने वाला है। हमारे वहां जाने के बाद हमारे विरोधी चीन और पाकिस्तान खुलकर तालिबान के साथ आ जाएंगे। पाकिस्तान पहले ही तालिबान के साथ खड़ा है। ये दोनों देश नहीं चाहेंगे कि यहां भारत पैर जमाए। वैसे भी अभी हमारी प्राथमिकताएं दूसरी ज्यादा हैं। चीन सीमा पर आंखें दिखा रहा है। कोरोना की बर्बादी अभी हम झेल रहे हैं।
भारत, अमेरिका और नाटो देश को चाहिए कि वह पाकिस्तान सीमा में तालिबान की मिल रही मदद को रोके। इस सप्लाई चेन को तोड़े। जिस दिन ऐसा हो गया, आधी लड़ाई जीत ली जाएगी। भारत ने श्रीलंका में लिट्टे से निपटने के लिए अपनी सेना भेजने की एक बार गलती की है। उसे वहां नुकसान ही हुआ। लाभ नहीं मिला। श्रीलंका के आतंकी संगठन लिट्टे पर कुछ फर्क नहीं पड़ा क्योंकि श्रीलंका की जगह हम लड़ रहे थे। जब लिट्टे से लड़ने को श्रीलंका खड़ा हुआ तो कुछ ही समय में लिट्टे का विशाल साम्राज्य ध्वस्त हो गया। इसलिए नीति तो यही कहती है कि हम मित्र की लड़ाई खुद लड़ने की जगह उसे ही लड़ने दें। उसे तकनीक दें, शस्त्र दें, युद्ध का साजोसामान दें, किंतु अपने को युद्ध में न डालें।
-अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)