बहुत साल पहले एक राजनीतिक सीरियल आया था जिसमें फारुख शेख और जयंत कृपलानी ने जीवंत अभिनय किया था। फारुख शेख मंत्री व जयंत कृपलानी सरकारी अफसर बने थे। सरल स्वभाव मंत्री को बुद्धिमान ब्यूरोक्रेट कैसे हैंडल करते हैं इसका बहुत दिलचस्प चित्रण उस सीरियल में था। आजकल मामला वैसा नहीं है, प्रशासक अपने शासक को नचाना तो चाहते हैं लेकिन शासक उन्हें अपने इशारों पर चलाना चाहते हैं इस बीच बेचारा देश वक़्त के नज़ारे देखता रहता है। राजनीति में आना अलग बात है लेकिन उचित तरीके से शासन कर पाना अलग बात है तभी तो यह कहा जाता रहा है कि शासक तो आते जाते रहते हैं, पार्टियां बदलते रहते हैं, असली शासक तो अफसरशाही ही होती है। राजनेता अस्थायी होते हैं और अफसर स्थायी होते हैं, जैसे प्रकाशक स्थायी होते हैं और लेखक आते जाते रहते हैं। मैदान वही रहता है, खिलाड़ी आते हैं, कोई जीतकर जाता है और कोई हार कर जाता है।
सत्ता का मज़ा लेने के साथ साथ हर सरकार चाहती है कि उनका राज चलता रहे। ज़्यादा लोकप्रियता के ख़्वाब देखते हुए शासकों को लगता है कि प्रशासकों की आधारभूत बुद्धि व उन्हें दिए जाने वाले प्रशिक्षण का प्रारूप पुराना, नाकाफी है शायद इसलिए पेशेवराना साबित नहीं हो रहा है। उनमें राजनीतिज्ञों जैसा कौशल और प्रतिभा नहीं दिखती जिसके कारण राजनीति में सफलता मिलती है। राजनीति में इशारे बहुत काम आते हैं, उंगली का इशारा, आंख के कोण, होंट हिलाने की शैली, चुप रहना बहुत खतरनाक इशारा माना जाता है। बस यहीं एच आर यानी मानव संसाधन की वैक्सीन काम आती है। यह वैक्सीन राजनीतिजी दूसरों को लगवाती हैं, लगभग हर शासक ने ऐसा चाहा है और प्रत्येक शासक आज भी ऐसा चाहता है कि उसकी नीतियों के स्वादिष्ट रस में आम जनता नाक तक डूब जाए। अब जब यह सुस्पष्ट हो चुका है कि शासक अपने हिसाब से जनसेवा करना चाहता है तो कोई व्यक्ति शुद्ध मेहनत कर प्रशासक बन कर सेवा करने क्यूं आता है यह जानने की ज़रूरत नहीं है। क्या यह क्षेत्र भी सुविधापूर्वक जीने के लिए ही चुना जाता है। शासक यह चाहता है कि प्रशासक उनकी योजनाओं को आम जनता तक पहुंचाने के लिए अपनी भावनात्मक बुद्धि को ज्यादा व्यवहारिक बनाएं। इतना भौतिक विकास कर देने के बाद अगर इंसानियत, सहृदयता, समानता और नैतिकता जैसी नाज़ुक फसल उगाने की बात हो रही हो तो लगता है कुछ गैर राजनीतिक सा राजनीतिक हो रहा है।
बताते हैं एक प्रशासक और ठेकेदार के बीच, एक महंगी निर्माण योजना को लेकर जो संजीदा वायदा हुआ था वह पूरा नहीं हुआ। साहिब ने खफा होकर फाइल अपने पास मंगा ली और जब ठेकेदारजी, जो छोटे मोटे नेता भी थे, मिलने आए तो पीए ने ठेकेदारजी को साहिब के हाथ से लिखा हुआ दिखा दिया। प्रशासक ने अपनी ज़बरदस्त, खतरनाक कलम से जहां EPRIOVED अंग्रेज़ी में ‘एप्रूव्ड’ लिखा था उसके सामने ‘नॉट’ लिख दिया जिससे वह ‘नॉट एप्रूव्ड’ हो गया। अब पुरानी ऑफर धराशायी हो चुकी थी, ठेकेदार ने नया वायदा पूरा करना था। वह खुद फ़ाइल लेकर साहिब के पास गए, पीए ने पुष्टि कर दी कि काम हो गया है। साहिब ने अपनी सुन्दर कलम से ‘नॉट’ के आगे अंग्रेज़ी की ‘ई’ लगाकर उसे ‘नोट एप्रूव्ड’ कर दिया था। संतुष्ट ठेकेदारजी ने राजनीतिजी से कहा हमें ऐसे ही प्रशासक चाहिए।
- संतोष उत्सुक