जब सत्ता ही धार्मिक भेदभाव करेगी तो फिर जमीयत जैसे सांप्रदायिक संगठन बेलगाम होंगे ही

By कमलेश पांडे | Jul 08, 2024

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, इसलिए धर्म के नाम पर किसी भी तरह की सरकारी सहूलियत लोगों को नहीं मिलनी चाहिए। इतना ही नहीं, धार्मिक शिक्षा और धार्मिक त्यौहारों पर किसी भी बहाने राजकोष लुटाने से बचना चाहिए। वहीं, विभिन्न धार्मिक आयोजनों में शांति बनाए रखने के नाम पर होने वाले प्रशासनिक खर्च को भी सम्बन्धित ट्रस्ट/समिति या जनसमूह से वसूलने का स्पष्ट विधान होना चाहिए। यदि ऐसा होगा तो बहुतेरे विरोधाभास स्वतः समाप्त हो जाएगा।


हालांकि, नीतिगत विडंबना है कि भारत में साम्प्रदायिक व जातीय तुष्टिकरण के नाम पर घृणित सियासी खेल खेला जा रहा है, जिसके चक्कर में भोली-भाली जनता और प्रशासनिक लोग दोनों पीस रहे हैं। यदि इसे अविलंब काबू नहीं किया गया तो उसका खामियाजा हमें आज नहीं तो कल निश्चय ही भुगतना पड़ेगा। मसलन, धर्म को लेकर अंग्रेजों ने जो खेल खेला, उससे देश विभाजन की नौबत आई। वहीं, मुगलों ने जो धार्मिक कट्टरता दिखाए, उससे सामाजिक बिखराव आया, जो आज तक जारी है। बावजूद इसके हमारे लोकतांत्रिक हुक्मरानों ने इन बातों से जज्बातों से कोई सीख नहीं ली, क्योंकि सवाल वोट बैंक का है और उसे शह देने वाले संविधान का है, जिसे संशोधित किये बिना बहुतेरे विरोधाभासों को कतई समाप्त नहीं किया जा सकता। 

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सीधा सवाल है कि संविधान को शासन-प्रशासन का नीति नियामक बनाना चाहिए, न कि वोट बैंक का! क्योंकि जब यह वोट बैंक का टूल्स बना दिया जाएगा, जैसा कि कांग्रेस, जनता पार्टी आदि और भाजपा के शासकों ने किया है, तो बहुसंख्यक वर्ग के द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग पर अत्याचार किया जाएगा। यहां पर मेरा तातपर्य जातीय और धार्मिक दोनों प्रकार के अल्पसंख्यकों से है। शायद इसलिए ही तो आरक्षण और सामाजिक न्याय, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के बाद अब संविधान बचाओ जैसे भावनात्मक मुद्दे जनमानस को उद्वेलित कर रहे हैं और इन्हें बढ़ावा दिलवाकर पूंजीवादी ताकतें हमारे राष्ट्रीय संसाधनों पर निजी कब्जे जमा रही हैं। इन्हें शह देने में बीजेपी और कांग्रेस दोनों आगे हैं और क्षेत्रीय दल तो इनके पिछलग्गू हैं ही!


ऐसे में सुलगता सवाल है कि क्या एक धर्मनिरपेक्ष देश में महज वोट बैंक के खातिर किसी को धर्म के आधार पर आरक्षण देने के लॉलीपॉप थमाए जा सकते हैं? यदि नहीं तो फिर विभिन्न राज्यों में धार्मिक अल्पसंख्यक लोगों को किस आधार पर आरक्षण दिए जा रहे हैं? यदि यह गलत है तो प्रशासनिक लॉबी और न्यायिक लॉबी खामोश क्यों है?क्या यह संवैधानिक विरोधाभास एक दिन मूल संविधान को ही खत्म नहीं कर देगा? क्योंकि शरिया कानून मानने वाली जमात भारतीय संविधान की कितनी कद्र करती है, वह कुछेक विरोधाभासी मुद्दों पर उनके स्टैंड से ही स्पष्ट है।


यह बात छेड़ने का मेरा मकसद किसी सम्प्रदाय को आहत करने का नहीं है, बल्कि वह बौद्धिक बहस छेड़ने का है, जिससे प्रशासनिक दिग्गज और न्यायिक दिग्गज बचते आये हैं। इसलिए संविधान के चौथे स्तंभ के एक प्रतिनिधि होने के नाते जनमत कायम करने हेतु यह संवैधानिक कमियां आप सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।


आपने यह भी देखा, पढ़ा और सुना होगा कि किसी किसी राज्य में धार्मिक अल्पसंख्यकों के मौलवी, गुरू आदि को तो फिक्स मानदेय दिए जा रहे हैं, लेकिन हिन्दू पुजारियों को  कुछ भी नहीं! आखिर ऐसा क्यों? क्या यही संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता है? इतना ही नहीं, हिंदुओं के मालदार धार्मिक स्थलों खासकर चर्चित मंदिरों के राजस्व पर प्रशासनिक माध्यम से काबिज होकर उनका दूसरों के लिए  उपयोग किया जा रहा है, लेकिन अन्य धर्मों के चर्चित उपासना स्थलों के साथ ऐसा नहीं किया जा रहा है? क्या यही धर्मनिरपेक्षता है और संविधान की संरक्षक सुप्रीम कोर्ट तक इन विसंगतियों पर खामोश है! आखिर ऐसा क्यों? क्या ऐसा होने से राष्ट्र गुमराह नहीं हो रहा है?


कहने का तात्पर्य यह कि राजनेताओं के दबाव में प्रशासनिक अधिकारी स्थापित संवैधानिक मूल्यों यानी पंथनिरपेक्षता के खिलाफ जो निर्णय ले रहे हैं, उसे लागू कर रहे हैं, और उनके खिलाफ माननीय न्यायालय तक कोई स्वतः संज्ञान नहीं लेते हैं कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में आप यह सब क्या उलटबांसी कर रहे हैं? तो आखिर इन बातों-जज्बातों को जनमानस के समक्ष कौन ले जाएगा। इसलिए आज मैं यह मुद्दा आपलोगों के बीच उठा रहा हूँ ताकि एक स्पष्ट जनमत कायम करने में मदद मिले।


उपर्युक्त वर्णित मुद्दे तो महज बानगी भर हैं, जबकि बहुतेरी बातें आये दिन बहस में सामने आ रही हैं। अभी हाल ही में जमीयत का एक प्रस्ताव आया है। इसमें उठाई हुई बात छोटी है, लेकिन संदेश खतरनाक! वह यह कि जमीयत ने आह्वान किया है कि मुस्लिम छात्र स्कूलों में सरस्वती वंदना व सूर्य नमस्कार का विरोध करें। ऐसे में ज्वलंत प्रश्न पैदा हो रहा है कि कभी आधुनिक शिक्षा की पैरोकारी करने वाले जमीयत उलेमा-ए-हिन्द शिक्षण संस्थानों में टकराव के नए रास्ते पर आखिर क्यों बढ़ रही है? 


आखिर वह अपने इस मंसूबे को छात्रों के जरिए अमल में लाने की तैयारी क्यों कर रही है? क्योंकि जिस तरह से जमीयत ने स्कूलों में सरस्वती वंदना, धार्मिक गीतों और सूर्य नमस्कार जैसी गतिविधियों को अधार्मिक बताते हुए मुस्लिम छात्रों से इनका बहिष्कार और विरोध करने का आह्वान किया है, वह कहां तक जायज है। यदि इसी तरह का परस्पर विरोधी आह्वान हिन्दू संगठन अपने हिन्दू छात्रों से करने लगें तो फिर टकराव बढ़ेगा और गंगा-जमुनी तहजीब का ढिंढोरा पीटने वाले दलों की परेशानी और अधिक बढ़ जाएगी, जो कि बमुश्किल आम चुनाव 2024 में पटरी पर वापस आई है।


एक बात और, जमीयत ने जिस तरह से मुस्लिम छात्रों के लिए आधुनिक शिक्षा के साथ कुरान पढ़ने और कंठस्थ कराने तथा फ़ारसी की शिक्षा देने की जो पैरोकारी की है, वह कितना जायज है? क्या वह इसी तरह की सुविधा हिन्दू धर्मावलंबियों को देने की बात बर्दाश्त कर पाएगा, यदि कोई सरकार ऐसी सकारात्मक पहल करे तो भी! उससे भी बड़ी बात यह कि क्या सभी अलग-अलग धर्मों के लोगों को किसी भी स्कूल में धार्मिक शिक्षा देना मुमकिन है? वो भी ऐसे दौर में जब कॉस्ट कटिंग के चलते कहीं सरकारी स्कूलों के सेक्शन बन्द किये जा रहे हैं तो कहीं विषय तक विलोपित किये जा रहे हैं। आलम यह है कि स्वीकृत शिक्षकों के पद तक को विलोपित किया जा रहा है। उनके स्थान पर अनुबंध पर पढ़ाने वाले शिक्षक रखे जा रहे हैं, जो कैसे छात्र तैयार कर रहे हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता!


उल्लेखनीय है कि जमीयत मुख्यालय में जमीयत उलेमा-ए-हिन्द की प्रबंधन समिति के दो दिवसीय अधिवेशन के अंतिम दिन गत शुक्रवार 5 जुलाई को यह प्रस्ताव पारित किया गया। जिसमें मुस्लिम अभिभावकों से यह आग्रह किया गया है कि वह अपने बच्चों में तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रति विश्वास पैदा करें और शैक्षणिक संस्थानों में किसी भी बहुदेववादी प्रथाओं में भाग लेने से बचें। यदि जबर्दस्ती की जाए तो विरोध करें और कानूनी कार्रवाई करें। 


ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर यह प्रस्ताव ऐसे समय में क्यों लाया गया है, जब मुस्लिम समाज में आधुनिक शिक्षा पर विभिन्न सरकारों के साथ ही बुद्धिजीवियों द्वारा भी जोर दिया जा रहा है। वो भी तब जब एक दिन पहले ही अधिवेशन में खुद जमीयत के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने मुस्लिम युवाओं से आधुनिक शिक्षा के माध्यम से देश की सेवा का आह्वान किया था। लेकिन अगले ही दिन उन्होंने कहा कि जमीयत विशुद्ध धार्मिक संगठन है। यह आधुनिक शिक्षा के विरोध में नहीं है, लेकिन हमारा स्पष्ट मानना है कि नई पीढ़ी को बुनियादी धार्मिक शिक्षा प्रदान किये बिना स्कूल की शिर्क (किसी को अल्लाह के बराबर दर्जा देना) वाली शिक्षाओं पर आधारित पाठ्यक्रम न पढ़ाया जाए।


इतना ही नहीं, मौलाना महमूद मदनी ने उत्तरप्रदेश के गैर मान्यता प्राप्त 4,204 मदरसों में पढ़ रहे बच्चों को शिक्षा के अधिकार (आरटीई) कानून के तहत अन्य स्कूलों में प्रवेश दिलाने के उत्तरप्रदेश सरकार के निर्णय का भी तीखा विरोध किया। इस पर टकराव वाला रुख अपनाते हुए मदनी ने कहा कि हम स्पष्ट रूप से कहना चाहते हैं कि इस्लामी मदरसे शिक्षा के अधिकार कानून से अलग हैं। यह अधिकार हमें संविधान ने दिया है, जिसे हम छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। स्वाभाविक है कि संवैधानिक विरोधाभास से ही तो सामाजिक-सांप्रदायिक दर्द निरंतर बढ़ रहा है, जिसका असरकारक दवा ढूंढने में हमारी संसद और विधानमंडल विफल प्रतीत हो रहे हैं। कहने का तातपर्य यह कि बदलते समय के साथ समुचित संशोधन के पहल नहीं किये जा रहे हैं।


वहीं, जमीयत के अधिवेशन में धर्म आधारित आरक्षण की पैरोकारी करते हुए सरकार से मांग की गई कि अनुच्छेद 341 में संशोधन किया जाए, ताकि कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और केरल राज्यों की तरह मुसलमानों और ईसाइयों को पूरे देश में आरक्षण का अधिकार मिले। ऐसे में एक और सवाल उठ रहा है कि उसने सिख, जैन आदि धार्मिक अल्पसंख्यक लोगों के लिए ऐसे आरक्षण की मांग क्यों नहीं की। वहीं, फलस्तीन मामले में इजरायल को भारत द्वारा हथियार देने, देश में उन्मादी हिंसा, सामान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को लेकर जमीयत ने सरकार की आलोचना की है। जिससे पता चलता है कि विदेश नीति भी उसके मनमाफिक बने, वह यही चाहता है।


सवाल है कि जो लोग आज समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं, वह समान मतदाता अधिकार का लाभ क्यों उठा रहे हैं? जिन्हें देश में उन्मादी हिंसा से चिंता है, वो अपने मदरसों में ऐसी सीख धर्मविशेष के छात्रों को क्यों दे रहे हैं, जो बात की अब पब्लिक डोमेन में आ चुकी है। उन्हें फलस्तीन की चिंता तो है, लेकिन कश्मीर की नहीं, जहां पाक प्रायोजित आतंकवाद, हिंसा ब्रेक के बाद जारी है। 


लोगों की स्पष्ट राय है कि भारतीय संविधान को वकीलों और नेताओं का स्वर्ग नहीं बनने देना चाहिए। इसमें स्पष्ट और पारदर्शी संशोधन होने चाहिए, ताकि किसी को शह देने और किसी को मात देने के आरोप भारतीय संविधान पर नहीं लगे। इसमें समाज के अंतिम व्यक्ति के आंसू पोछने की स्पष्ट व्यवस्था होनी चाहिए, चाहे वह किसी भी जाति और धर्म का हो! 


यदि ऐसा नहीं किया गया तो यह और कितने पाकिस्तान देश के अंदर पैदा करेगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। ऐसी साहित्यिक भविष्यवाणी तो कमलेश्वर जी ने दशकों पहले कर रखी है। इसलिए सुलगते समय की मांग है कि या तो पाकिस्तान और बांग्लादेश की सीमाएं खत्म हों या फिर 'फूहड़' भारतीय धर्मनिरपेक्ष! जो ऐसी स्पष्ट प्रतिबद्धता दिखायेगा, वही भारत का भावी नेतृत्व बनेगा! आज नहीं तो निश्चय कल। चीन से मुकाबिल होने के लिए यही अचूक रणनीति होगी 21वीं सदी की, जो सुशासन के मार्फ़त आएगी, नीतिगत भ्रस्टाचार से नहीं!


- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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