1 कदम आगे 2 कदम पीछे, 12 दिन में 3 अहम फैसले को लेकर बैकफुट पर सरकार, क्या विपक्ष के होश उड़ाने वाली रणनीति पर काम कर रहे मोदी?

By अभिनय आकाश | Aug 21, 2024

2014 में 282, 2019 में 303 लेकिन 4 जून 2024 में ये जादुई आंकड़े यानी 272 से दूर 240 पर जा सिमटा। अपने दम पर पूर्ण बहुमत लाने वाली बीजेपी ने अपने पहले और दूसरे कार्यकाल में कई बड़े और कड़े फैसले चुटकी बजाकर ले लिए। लेकिन 2024 में वो देखने को मिल रहा है जो इससे पहले के मोदी 1.0 और मोदी 2.0 में देखने को नहीं मिला। अबकी बार एनडीए की सरकार इन दिनों मोदी सरकार अगर एक कदम आगे बढ़ाती है तो उसे दो कदम पीछे वापस खींचने पड़ रहे हैं। 12 दिन में तीन अहम फैसले ऐसे हैं जिस पर सरकार बैकफुट पर नजर आई है। मोदी सरकार को अपने फैसले रद्द करने पड़े हैं, वापस लेने पड़े हैं या फिर उसे ठंडे बस्ते में डालने पड़े हैं। संसद में बड़ी धूमधाम से वक्फ बोर्ड के नए कानून का ऐलान हुआ। इसको लेकर बिल भी लाया गया। लेकिन फिर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। एक ब्रॉडकास्ट बिल लाया गया। लेकिन जब विपक्ष ने इसको लेकर हंगामा किया। उस बिल को ही विड्रो कर लिया गया। ताजा मामला सरकारी नौकरियों में सीधी भर्ती से जुड़ा है। लेटरल एंट्री ये शब्द आपने बीते कुछ दिनों में कई बार सुना होगा। लेटरल एंट्री को आखिरकार सरकार ने रद्द कर दिया है। लगातार राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे, अखिलेश यादव, एमके स्टालिन जैसे तमाम नेता इसकी मुखालफत कर रहे थे। लगातार एक्स पर उसको लेकर पोस्ट कर रहे थे। मीडिया में इसे उठाया जा रहा था। आखिरकार वही हुआ जो विपक्ष के दवाब के तहत होना चाहिए था। 

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लैटरल एंट्री पर  बैकफुट पर सरकार  

लेटरल एंट्री यानी बिना कोई यूपीएससी का एग्जाम दिए अलग अलग मंत्रालयों में सचिव, उपसचिव और डॉयरेक्टर जैसे पदों पर नियुक्ति को लेकर एक नोटिफिकेशन जारी किया गया था। 45 खाली पद हैं जिनकी भर्ती के लिए एक विज्ञापन जारी किया गया था। इस विज्ञापन को अब वापस ले लिया गया है। लेकर अखिलेश तक ने आंदोलन तक की धमकी दे डाली थी। वहीं एनडीए के घटक दल ने भी खुलकर इसकी मुखालफत की थी। लगातार विपक्ष इसे आरक्षण विरोधी, सोशल जस्टिस विरोधी और सामाजिक न्याय का विरोधी बता रहा था। विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों में उच्च पदों पर विशेषज्ञता वाले लोगों की एक प्रकार से सीधी भर्ती अर्थात लेटरल एंट्री वाला विज्ञापन वापस लेने से यही स्पष्ट हो रहा है कि मोदी सरकार दबाव में आ गई।

विपक्ष तो मानो ऐसे मुद्दे की ताक में बैठा था

जैसे ही इस बार लैटरल एंट्री का विज्ञापन आया, विपक्ष ने ऐसे रिएक्ट किया मानो वह ऐसी ही किसी मुद्दे की तलाश में था। दरअसल, नियमों के तहत लैटरल एंट्री में आरक्षण का विकल्प नहीं है। सरकार ने बताया कि लैटरल एंट्री के तहत सिंगल पोस्ट काडर में नियुक्ति में कभी आरक्षण का प्रावधान नहीं रहा है। लेकिन विपक्ष ने इस तर्क को अनसुना करते हुए आरोप लगाया कि बीजेपी इस सिस्टम को बैकडोर से आरक्षण समाप्त करने का जरिया बना रही। राहुल गांधी, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव सहित तमाम विपक्षी नेताओं ने इस पर हमलावर रुख अपना लिया। उन्होंने न सिर्फ इसे आरक्षण को समाप्त करने की दिशा में पहला कदम बताया बल्कि आरोप लगाया कि इसके जरिए मौजूदा सरकार संस्थानों में बिना मेरिट के अपने लोगों को नियुक्ति करने का रास्ता साफ करना चाहती है। 

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सहयोगियों से नहीं किया गया विमर्श?

दबाव केवल विपक्षी दलों का ही नहीं था, बल्कि सहयोगी दलों का भी था। चंद्रबाबू नायडू नें तो लेटरल एंट्री के जरिये अनुभवी लोगों की भर्ती की पहल का समर्थन किया, लेकिन चिराग पासवान खुलकर विरोध में आ गए। एक अन्य प्रमुख सहयोगी दल जदयू के नेताओं ने भी लेटरल एंट्री का विरोध कर दिया। इससे तो यही लगता है कि मोदी सरकार ने इस पहल को आगे बढ़ाने के पहले अपने सहयोगी दलों से विचार-विमर्श ही नहीं किया। यदि वास्तव में ऐसा नहीं किया गया तो यह उसकी रणनीतिक चूक ही है।

वक्फ संशोधन बिल

"थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े, देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ"। सदन में 8 अगस्त को वक्फ बिल लोकसभा में पेश हुआ और इस पर जोरदार बहस भी हुई। इसके बाद जो कुछ भी हुआ उसका सार गालिब के शेर में है। जैसा की तय था कि इंडिया गठबंधन ने बिल का विरोध किया। कांग्रेस, सपा, एनसीपी शरद पवार, एआईएमआईएम, टीएमसी, सीपीआईएम और डीएमके ने हंगामा किया। सपा सांसद ने तो खुलेआम धमकी देते हुए कहा कि सरकार ने इसमें कोई बदलाव किया तो लोग सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर हो जाएंगे। इन सब के बीच मोदी सरकार ने इस बिल को जेपीसी यानी ज्वाइंट पार्लिटामेंट्री कमेटी के पास भेज दिया। यानी विपक्ष जो इल्जाम लगा रहा था कि हमसे राय नहीं ली गई। अब इस कमेटी में सब पक्ष अपनी राय रख सकते हैं। कुल मिलाकर कहे तो ये ठंडे बस्ते में चला गया है। इसको लेकर जेपीसी बना दी गई है। एनडीए की एक सहयोगी चंद्रबाबू नायडू ने ये शर्त रख दी थी कि जेपीसी गठित नहीं होने की सूरत में समर्थन नहीं देगी। 

ब्रॉडकास्टिंग बिल 

सरकार ने सबसे पहले 10 नवंबर 2023 को इस ड्राफ्ट को पब्लिक डोमेन में रखा था। इसके बाद विपक्ष हमलावर हो गया था। विपक्षी दलों का यहां तक आरोप था कि सरकार सेंसरशिप लाने का प्रयास कर रही है। मानसून सत्र में केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव इस बिल को पेश किया। इस बिल को लेकर न केवल विपक्ष बल्कि डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स और इंडिविजुअल कॉन्टेंट क्रिएटर्स ने सरकार के इस कदम का विरोध किया। फिर मसौदा वापस ले लिया गया है। खबर ये है कि आगे इस पर कोई नया मसौदा नहीं आने वाला है। 

कुछ अलग गेम तो नहीं चल रहा

इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर खबरों तक में यही चल रहा है कि झुकती है सरकार बस झुकाने वाला चाहिए। 12 दिनों में तीन अहम फैसलों में बुकफुट पर आई सरकार को बैसाखियों के सहारे चलता हुआ बताया जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि सरकार को चुनावों में आशानुरूप सफलता न मिलने से उसका मोराल डाउन हो गया है। लेकिन कुछ सियासी जानकार इसे सरकार की एक सोची समझी रणनीति भी बता रहे हैं। कहा जा रहा है कि सरकार जानबूझकर ऐसे मुद्दों को लटरा रही है जो थोड़ा विवादित है। आपने दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता है वाली कहावत तो सुनी होगी। कुल मिलाकर कहें तो सरकार अब मुद्दों को हल करने की बजाए लटकाने की अहमियत को समझ चुकी है। राम मंदिर निर्माण का मुद्दा सालों तक राजनीति के केंद्र में रहा और इसने बीजेपी की सीटों को 2 से बढ़ाकर 303 तक पहुंचा दिया। लेकिन ये मामला जब तक फंसा रहा बीजेपी को लाभ मिलता रहा। उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने 2014 और 2019 में 71 और 62 सीटें हासिल की लेकिन मंदिर निर्माण के बाद का हाल सभी को ज्ञात है। कहा जा रहा है कि लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है और जनता समस्या के समाधान के बाद इसे भूल जाती है। इसलिए ऱणनीति के तहत मुद्दो को तब तक लटाकाए रखना जब तक की जनता आंदोलित न हो एक चाल हो सकती है। कम से कम वक्फ बोर्ड बिल को लेकर ऐसा तो कहा जा सकता है। 

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