आरक्षण में ''सेंधमारी'' कर भाजपा को चुनावी फायदा दिलाना चाहते हैं योगी

By अजय कुमार | Nov 30, 2018

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव से पूर्व आरक्षण की सियासत एक बार फिर परवान चढ़ने लगी है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने आरोप लगाया है कि भाजपा और कांग्रेस आरक्षण व्यवस्था को खत्म करना चाहती हैं तो योगी सरकार ने विधानसभा चुनाव में किए गये वायदे के अनुसार कोटे में कोटा (आरक्षण में आरक्षण) करने के लिये नया मसौदा तैयार कर लिया है। अगर सब कुछ ठीक−ठाक रहा तो नई आरक्षण व्यवस्था जल्द लागू हो जायेगी। अगर−मगर की बात इसलिये कही जा रही है क्योंकि इससे पूर्व में भी राजनाथ सिंह और मुलायम सिंह सरकार ने कुछ ऐसे ही प्रयास किए थे, लेकिन उनकी कोशिश परवान नहीं चढ़ पाईं थीं।

 

28 अक्टूबर 2000 में मुख्यमंत्री बने राजनाथ सिंह ने पहली बार कोटे में कोटा का प्रयास किया था। राजनाथ ने उत्तर प्रदेश में हुकुम सिंह के नेतृत्व में सामाजिक न्याय समिति बनाकर आरक्षण का बंटवारा किया ताकि आरक्षण का सबसे अधिक फायदा लेने वाली यादव, कुर्मी और जाट बिरादरी के लोगों की जगह उन जातियों को आरक्षण का फायदा मिल सके जो सामाजिक और आर्थिक रूप से उक्त जातियों से काफी कमजोर थीं। राजनाथ सिंह का प्रयास कानूनी जामा पहन पाता इससे पहले ही उनकी सरकार के एक मंत्री अशोक यादव हाईकोर्ट से स्टे ले आये, जिसके चलते यह लागू नहीं हो सका। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को हार का भी सामना करना पड़ा था।

 

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तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह भले ही सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण में आरक्षण की वकालत कर रहे थे, लेकिन उनकी नजर पिछड़ों के वोट बैंक पर थी। इसी प्रकार वोट बैंक की सियासत के तहत मुलायम सिंह यादव ने अपने शासनकाल के दौरान पिछड़ा वर्ग के तहत आरक्षण प्राप्त कर रही कुछ जातियों को अनुसूचित जाति/जनजाति की श्रेणी में डाल दिया था। मुलायम की इसके पीछे की मंशा यही थी कि पिछड़ा वर्ग में जातियों की संख्या जितनी कम रहेगी, उतना फायदा उनके वोट बैंक समझे जाने वाले यादव, कुर्मी और जाट को मिलेगा। मुलायम के इस कदम का एससी/एसटी आरक्षण एक्ट के तहत फायदा लेने वाली जातियों ने काफी विरोध किया था। वर्ष 2005 में मुलायम सरकार ने बिंद, केवट, मल्लाह आदि जातियों को पिछड़ा वर्ग से निकालकर अनुसूचित जाति का दर्जा दे दिया था, लेकिन मायावती की सरकार ने इसे खत्म कर दिया। 2012 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी समाजवादी पार्टी (सपा) के तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने वादा किया था कि चुनाव बाद राज्य में पार्टी की सरकार आने पर बीस अति पिछड़ी जाति को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाकर आरक्षण की सीमा में लाया जाएगा, लेकिन अखिलेश सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

 

ऐसा नहीं है कि आरक्षण में आरक्षण की सोच कोई नई है। देश के 11 प्रदेशों में अति पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त है। बिहार, हरियाणा, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, पांडुचेरी, पश्चिम बंगाल, केरल और जम्मू-कश्मीर में यह व्यवस्था लागू है। उत्तर प्रदेश में भी इसे काफी पहले लागू हो जाना चाहिए था। यहां सामाजिक न्याय का दंभ भरने वाली सपा−बसपा को पूर्ण बहुमत से सरकार चलाने का अवसर मिला, लेकिन अति पिछड़ा और अति दलित कभी इनके एजेंडे में नहीं रहा। जब सपा सत्ता में थी तब बसपा उस पर जाति विशेष को ही प्रत्येक स्तर पर अहमियत देने का आरोप लगाती थी।  इसमें अति पिछड़ा कहीं नहीं थे। बसपा सत्ता में थी तब सपा उस पर जति विशेष की हिमायत का आरोप लगाती थी। बसपा की मेहरबानी अति दलितों के लिए नहीं थी। आज दोनों पार्टियां गठबन्धन को बेताब हैं, लेकिन उनकी चिंता में आज भी अति पिछड़ा और अति दलित नहीं हैं।


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बहरहाल, अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पूर्व उत्तर प्रदेश में नये सिरे से कोटे में कोटा निर्धारित करने के लिये दलितों और पिछड़ों के आरक्षण में बंटवारे के लिए गठित सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट योगी सरकार के पास पहुंच गई है। योगी सरकार ने मंजूरी दे दी (जिसकी पूरी उम्मीद है) तो, एससी/एसटी और पिछड़ा वर्ग आरक्षण तीन बराबर हिस्सों में बांट जायेगा। इसके लिए तीन वर्ग पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा बनाने का प्रस्ताव है। समिति ने एससी/एसटी में भी दलित, अति दलित और महादलित श्रेणी बनाकर इसे भी तीन हिस्सों में बांटने की सिफारिश की है। रिपोर्ट लागू किए जाने की स्थिति में जातीय राजनीति पर केंद्रित राजनीतिक दलों में घमासान मच सकता है। इसे देखते हुए इस रिपोर्ट को लागू करने में जल्दबाजी नहीं की जा रही है।

 

सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू होने पर प्रदेश में यादव, ग्वाल, सुनार, कुर्मी, ढड़होर सहित 12 जातियां पिछड़ा वर्ग के कुल 27 फीसदी आरक्षण में से एक तिहाई आरक्षण पर सिमट जाएंगी। यदि पिछड़ा वर्ग की तीन श्रेणियों में 27 पदों पर भर्ती होनी है तो पिछड़ा वर्ग में रखी गई 12 जातियों को कुल 9 पद ही मिलेंगे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में पिछड़ा वर्ग को तीन श्रेणियों में बांट दिया है। इस वर्ग को अब तक 27 फीसदी आरक्षण मिलता था। सिफारिश के मुताबिक अब तीनों श्रेणियों को 9−9−9 फीसदी आरक्षण देने की रिपोर्ट में संस्तुति की गई है। पिछड़ा वर्ग में 12, अति पिछड़ा में 59 और सर्वाधिक पिछड़ा में 79 जातियां रखी गई हैं।

  

इसी प्रकार समिति ने एससी/एसटी के 22 फीसदी आरक्षण को भी तीन हिस्सों में बांटने की सिफारिश की है। दलित, अति दलित और महादलित तीन श्रेणियां प्रस्तावित की गई हैं। 22 फीसदी आरक्षण को इन तीन वर्गों में 7, 7 और 8 के फार्मूले पर बांटने का प्रस्ताव है। दलित वर्ग में 4, अति दलित में 37 और महादलित में 46 जातियों को रखने की सिफारिश की गयी है।

 

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गौरतलब है कि कुछ माह पूर्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायधीश ने भी कहा था कि दलित और पिछड़ा वर्ग की एक जाति विशेष आरक्षण कोटे के पूरा लाभ ले चुकी है। इस मुद्दे पर सरकार को विचार करना चाहिए। इसमें भी लगातार कई पीढ़ी से आरक्षण का लाभ उठाने वाला एक वर्ग तैयार हो चुका है। यह कहीं से भी पिछड़ा या दलित नहीं है। लेकिन आरक्षण के नाम पर वह वंचित वर्ग का हिस्सा ले रहे हैं। कम से कम इन मसलों पर चर्चा तो होनी चाहिए। यह अच्छा है कि योगी आदित्यनाथ ने आलोचनाओं की चिंता किये बिना इस दिशा में कदम बढ़ाया है।

 

यहां मोदी सरकार की भी चर्चा जरूरी है। वह भी कोटे में कोटा की वकालत करती है। एक रिपोर्ट के अनुसार, केन्द्र सरकार की नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को मिलने वाले आरक्षण के लाभों का एक चौथाई हिस्सा केवल 10 जातियों को मिलता है, जबकि लगभग एक हजार जातियां ऐसी हैं जिनको कोई लाभ नहीं मिलता है। यह डेटा मोदी कैबिनेट की सिफारिश पर रिटार्यड जज जी. रोहणी की अध्यक्षता में बने पांच सदस्यों के पैनल द्वारा साझा किया गया था, जिसे ओबीसी कोटा के अधिक न्यायसंगत वितरण के लिए गठित किया गया था। हालांकि पैनल ने किसी एक जाति को मिलने वाले आरक्षण की अलग से जानकारी नहीं दी, जो डेटा को और अधिक सटीक विश्लेषण प्रदान करता। राष्ट्रपति ने ओबीसी की केंद्रीय सूची के उप−वर्गीकरण पर विचार−विमर्श करने के लिए पिछड़ा वर्ग पैनल को नियुक्त किया था। पैनल ने पता लगाया कि ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल विभिन्न समुदायों में लाभ के वितरण में उच्च स्तर पर असमानता मौजूद है।

 

पैनल को ओबीसी की केंद्रीय सूची को उप−वर्गीकृत करने का काम सौंपा गया था, जिसमें 2633 प्रविष्टियां शामिल थीं। आरक्षण में लाभ के वितरण को समझने के लिए पैनल ने ओबीसी के लिए निर्धारित कोटा के अंतर्गत केंद्र सरकार के शैक्षिक संस्थानों में पिछले तीन सालों के दौरान लिए गए प्रवेश पर जाति−वार डेटा एकत्र किया और सेवाओं एवं संगठनों में पिछले पांच सालों में हुई भर्ती के आंकड़ों की भी मांग की। इस डेटा को एकत्रित करना एक कठिन काम था। अधिकांश संगठन ओबीसी श्रेणी के अंतर्गत लाभ लेने वाली जातियों का अलग रिकॉर्ड नहीं रखते हैं। सामान्य तौर पर रिकॉर्ड एससी, एसटी और ओबीसी के नाम पर होता है। लाभार्थियों की जाति का डेटा उनके द्वारा दिए गए जाति प्रमाण पत्र से एकत्रित किया गया था। आयोग द्वारा एकत्रित डेटा से पता चला कि लाभ का एक चौथाई हिस्सा मात्र 10 जातियों को, दूसरा चौथाई 38 जातियों को, तीसरा चौथाई 102 जातियों को और अंतिम चौथाई करीब 1500 जातियों को मिलता है। इससे भी खराब स्थिति यह है कि 1500 जातियों में से 994 जातियों को 25 प्रतिशत में से केवल 2.68 प्रतिशत ही लाभ मिलता था। इसके अलावा केंद्रीय सूची में शामिल 983 जातियां ऐसी हैं जिनका लाभ में कोई हिस्सा नहीं था।

  

आरक्षण को लेकर योगी सरकार माथापच्ची कर रही है तो दूसरी तरफ बसपा सुप्रीमो मायावती बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ आरक्षण को हथियार बनाए हुए हैं। चुनावी दौरे पर राजस्थान पहुंची बसपा सुप्रीमो मायावती ने आरोप लगाया कि कांग्रेस−बीजेपी कई बरसों तक सत्ता में रहीं, लेकिन किसी भी वर्ग का विकास नहीं हो सका। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस और बीजेपी आरक्षण को खत्म करना चाहती है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट कांग्रेस शासन में ही आ गई थी, लेकिन दलित वर्ग के प्रति दुराभाव के चलते उसे लागू नहीं किया गया।

 

-अजय कुमार

 

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