100 दिन में कोई विशेष छाप नहीं छोड़ पाये योगी आदित्यनाथ

By अजय कुमार | Jun 28, 2017

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार सौ दिन पुरानी हो चुकी है। 22 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश की शक्ल−सूरत बदलने के लिये सौ दिन का कार्यकाल 'ऊंट के मुंह में जीरा' जैसा है। सौ दिन में किसी सरकार से चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती है, लेकिन कुछ मुद्दों पर तो उंगली उठाई ही जा सकती है। इस लिहाज से योगी सरकार के सौ दिनों का कार्यकाल संतोषजनक भले लगे लेकिन पूर्ववर्ती बीजेपी सरकारों से कमतर नजर आया। योगी के सत्ता संभालने के बाद जब यह उम्मीद की जा रही थी कि प्रदेश में कानून व्यवस्था में सुधार आयेगा तब अचानक कानून व्यवस्था अखिलेश काल से भी बुरे दौर में पहुंच गई। जिस जनता ने अखिलेश राज में प्रदेश में व्याप्त जंगलराज के चलते सत्ता से नीचे उतार दिया था, वही जनता यह सोचने को मजबूर हो गई कि कहीं उसका फैसला गलत तो नहीं था। हर तरह के अपराध में इजाफा हो गया था। छोटी−छोटी आपराधिक घटनाओं की बात तो दूर थी, खून−खराबा, दंगा−फसाद, लूटपाट, गैंगरेप जैसे जघन्य अपराधों से अखबार के पन्ने रंगे मिल रहे थे। यह सब तब हो रहा था जब सीएम योगी अपराधियों को उलटा लटका कर सीधा करने के दावे कह रहे थे।

माहौल खराब था तो वह पूर्व सीएम मायावती को तो छोड़ ही दीजिये अखिलेश यादव भी गरजने लगे जिनके राज में अपराधी छुट्टा घूमते और कानून के हाथ बंधे रहते थे, जो हालात बने हुए थे, उसको लेकर लखनऊ से दिल्ली तक हिला हुआ था। चर्चा यह भी होने लगी थी कि कहीं योगी को सीएम बनाकर मोदी ने गलती तो नहीं कर दी, जबकि पार्टी में योगी से अनुभवी नेता मौजूद थे। वहीं ऐसे लोग भी हैं जिनका मानना है कि असल में योगी सियासी दलदल में फंस गये हैं। वह अखिलेश राज के भ्रष्टाचार को एक्सपोज करने के चक्कर में अपने कर्तव्यों से विमुख नजर आने लगे हैं। इसी के चलते पंचम तल (मुख्यमंत्री सचिवालय) पर अधिकारियों की तैनाती में योगी को दो माह का समय लग गया। फिर भी वह अपनी पसंद के अधिकारी नहीं बैठा पाये। यहां तक कि योगी जिस आईएएस अधिकारी अवनीश अवस्थी को प्रदेश का मुखिया बनाने के लिये दिल्ली से लखनऊ लाये थे, उसके लिये भी पंचम तल पर एक सीट रिजर्व नहीं कर सके। अंत में उन्हें सूचना विभाग और एक्सप्रेस वे का प्रमुख सचिव बनकर ही संतोष करना पड़ा।

 

प्रमुख सचिव की कुर्सी मिली प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात रिटायर्ड आईएएस और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वफादार चहेते आईएएस एसपी गोयल को। गोयल साहब की पहचान नौकरशाहों के बीच 'मुंशी' के रूप में होती है जो एक−एक फाइल का बारीकी से अध्ययन करने के बाद आगे बढ़ाते हैं। भले ही फाइलों का त्वरित निस्तारण नहीं होने से विकास का काम प्रभावित होता रहे। कहा जाता है कि गोयल साहब की लॉयलिटी योगी से अधिक मोदी के प्रति है। आखिर 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी को ही जीतना है, इसलिये केन्द्र की तरफ से इस तरह की दखलंदाजी को नकारा भी नहीं जा सकता है। वैसै भी मोदी के गुजरात से दिल्ली में आने के बाद यूपी उनकी रग−रग में बसा नजर आने लगा है। वह योपी को लेकर हमेशा एग्रेसिव रहते हैं। बात अधिकारी तक ही सीमित नहीं है। नौकरशाही को लेकर सत्ता के गलियारों में यह चर्चा भी चल रही है कि योगी राज में ठाकुर लॉबी काफी सशक्त हो गई है। तमाम महत्वपूर्ण पदों पर पर इसी वर्ग के नौकरशाहों का दबदबा है। वैसे यह संयोग भी हो सकता है और हकीकत भी।

 

खैर, बात नौकरशाही से हटकर की जाये तो सीएम बनने के बाद योगी के वह तेवर देखने को नहीं मिलते हैं जिसके लिये वह जाने जाते हैं। उनके तेवरों से तल्खी जा चुकी है जो उनकी पूंजी हुआ करती थी, जिसके कारण योगी ने अपनी अलग पहचान बना रखी थी। बदले स्वभाव के कारण योगी को अधिकारियों से काम लेने में भी दिक्कतें आ रही हैं। योगी पंचायत लगाकर 'ऑन स्पॉट' फैसला लेने के लिये जाने जाते थे। मगर अब फैसला लेना तो दूर वह अधिकारियों की नकेल तक नहीं कस पा रहे हैं। योगी को अपनी ही पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से सबक लेना चाहिए। कल्याण सिंह उन नौकरशाहों को दंडित करने में जरा भी देरी नहीं करते थे, जो सरकार कें काम में रोड़े फंसाते थे। उनकी इच्छा का सम्मान नहीं करके अपनी चलाते थे। कल्याण की दृष्टि से समझा जाये तो यूपी की नौकरशाही बेलगाम घोड़े की तरह काम करती है। वह कहते थे, 'नौकरशाही रूपी बेलगाम घोड़े पर वह ही सवारी कर सकता है जिसकी रान में ताकत हो, वर्ना यह 'घोड़े' सवार को ही पटक देते हैं।'

कल्याण सिंह ऐसा कहते ही नहीं थे, उन्हें नौकरशाही की लगाम कसने में महारथ हासिल थी। 1991 में जब कल्याण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्हें नौकरशाही का अड़ियल रवैया समझने में देर नहीं लगी। इसके बाद तो कल्याण सिंह ने सरकार के कामकाज को गंभीरता से नहीं लेने वाले अधिकारियों के खिलाफ निलंबन का अभियान ही चला दिया, जिसका सार्थक मैसेज जनता के बीच में गया तो नौकरशाही भी कल्याण नाम से थर्राने लगी। इसके विपरीत सीएम योगी का सबसे पहला बयान आया कि वह किसी अधिकारी का तबादला नहीं करेंगे, जबकि वह अखिलेश राज में हुए भ्रष्टाचार के लिये अखिलेश के मंत्रियों के साथ−साथ इन नौकरशाहों को भी कसूरवार मानते हैं। योगी के बयान से उन नौकरशाहों की बल्ले−बल्ले हो गई जो अखिलेश के करीब हुआ करते थे और यह मानकर चल रहे थे कि योगी राज में उनको हाशिये पर डाल दिया जायेगा। इन अधिकारियों की वफादारी आज भी योगी से कहीं अधिक अखिलेश के प्रति है। यही अधिकारी सरकार की छवि भी धूमिल कर रहे हैं।

 

यहां एक वाकये की चर्चा करना जरूरी है। 17वीं विधानसभा का पहला सत्र शुरू हुआ तो परम्परा के अनुसार 15 मई को राज्यपाल राम नाईक का संबोधन (राज्यपाल का अभिभाषण) हुआ। सदन में काफी शोरगुल हो रहा था, इसी शोरगुल में राज्यपाल ने अपना पूरा भाषण पढ़ डाला। सब जानते हैं कि राज्यपाल का अभिभाषण सरकार की 'गीता' (पवित्र पुस्तिका) माना जाता है। राज्यपाल के अभिभाषण में सरकार की पूरी मंशा नजर आती है। भाषण में राज्यपाल ने पृष्ठ 03 पर पढ़ा, 'मेरी सरकार ने लोक कल्याण संकल्प पत्र 2017 के अनुरूप दिनांक 31.12.2016 तक किसानों द्वारा लिये गये एक लाख रूपये तक के फसली ऋण को माफ करने का निर्णय लिया है। सरकार के इस निर्णय से 86 लाख से अधिक किसान लाभान्वित होंगे तथा इससे राजकोष पर लगभग 36000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार अनुमानित है।' जबकि संकल्प पत्र में 31.12.2016 की तारीख कहीं थी ही नहीं। संकल्प पत्र का जो सार था उसके अनुसार 15 मार्च 2017 तक का किसानों का ऋण माफ करने की बात कही गई थी। इस गलती का पता जब राज्यपाल को चला तो उन्होंने इसके लिये क्षमा मांगी और सरकार को भी इस गलती का अहसास कराया लेकिन इतनी बड़ी गलती करने वाले अधिकारी के खिलाफ कोई दंडनात्मक कार्रवाई करना योगी सरकार ने उचित नहीं समझा जो सरकार की शिथिलता को दर्शाता है। सरकार को समझना होगा कई बार 'भय बिन प्रीत न होये' का मुहावरा चरितार्थ करना पड़ता है। ऐसा ही लचीला रवैया उन नौकरशाहों और तमाम अन्य अधिकारियों के खिलाफ भी अपनाया जा रहा है जो सीधे तौर पर अपनी कारगुजारी से सरकार को शर्मसार कर रहे हैं और जनता के बीच इमेज सरकार की खराब हो रही है।

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