पूजा के मगरमच्छ (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Feb 15, 2022

जानवरों की पूजा के बहाने विशेष देवताओं को प्रसन्न कर, अपना उल्लू सीधा करने का प्रावधान मानवजीवन में बहुत पुराना है। चुनावी मौसम में यह ज़्यादा ज़रूरी है। हमारे यहां कई तरह के मगरमच्छ हैं और उनकी पूजा उनके महत्त्व व ज़रूरत के हिसाब से की जाती है। मगरमच्छ को देवी का वाहन भी माना गया है और पिछले दिनों मगरमच्छ की मूर्ति की राजनीतिक पूजा के समाचार आए हैं। शुक्र है, अभी मगरमच्छ की प्रतिमा की ही पूजा हुई है। भरोसा नहीं राजनीति और राजनीति के यशस्वी कारीगरों का, कल, परसों या नरसों जीते जागते मगरमच्छों की भव्य पूजा आरंभ हो जाए। 


हमेशा ज़ोर शोर से यह स्वीकार भी किया गया है कि राजनीति में कई आकार, प्रकार, रंग और प्रवृति के मगरमच्छ होते हैं। इतने बड़े बड़े होते हैं कि पता नहीं चलता। बताते हैं यह जी भर कर अगर-मगर करते हैं और पानी ही नहीं, कहीं भी रह सकते हैं। यह अपनी पूजा गुप्त रूप से करवाना पसंद करते हैं और की भी जाती है। आदमी की पालतू सोहबत में रहते रहते कुछ मगरमच्छों में आदमी जैसी प्रवृतियां विकसित हो जाया करती हैं यानी वे थोड़े कम मगरमच्छ हो जाते हैं। उन्हें दूर से देखो तो कई बार उनके आदमी सा होने का भ्रम होता है लेकिन उनसे पाला पड़ने पर ही पता चलता है कि वे वास्तव में क्या चीज़ हैं। बताते हैं मीठे पानी के स्त्रोतों में बेहद खतरनाक मगरमच्छ पाए जाते हैं। 

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सरकारें पहाड़, नदी, हरियाली के रखरखाव से ऊब गई लगती हैं तभी मगरमच्छों के निवास को पर्यटकीय आकर्षण हेतु विकसित किया जा रहा है। पर्यटक भी अब कुछ नया शानदार, जानदार, थोड़ा डराने वाला, रोमांचक चाहने लगे हैं। मगरमच्छ भी निश्चय ही इससे खुश होंगे कि उनकी पूजा हो रही है और उन्हें देखने, मिलने आम इंसान भी आ रहे हैं। इससे मछली की तरह फिसलने वाले राजनीतिक सन्दर्भों का भी नवीनीकरण होकर सदुपयोग हो पाएगा। कुछ भी हो पूजा से मगरमच्छों का प्रतीकात्मक महत्त्व बढना सुनिश्चित हो गया है। अब, अगर के मच्छ, मगर के मच्छ और अगर-मगर के मिश्रित मच्छों के बारे भी राजनीतिक विचार विमर्श ज़्यादा फैलेगा।

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इतिहास में इस बात के अनेक उदाहरण हैं कि सत्ता को मगरमच्छ पालने का शौक होता है, जो सत्ता के झूले पर नहीं होते उन्हें मगरमच्छ माना जाता है लेकिन कभी स्पष्ट कहा नहीं जाता। हमारे यहां मगरमच्छ के आंसू भी खूब बहाए जाते हैं जो मानव जीवन की काफी चर्चित भावनात्मक क्रिया मानी जाती है। हो सकता है भविष्य में, बढ़ती महत्ता के मद्देनज़र ‘मगरमच्छ के आंसू बहाना’ एक व्यवसायिक कार्य बन जाए।

 

विकसित होता इंसान अब भावनात्मक भी हो रहा है। वह प्रकृति और पशु प्रेम को विज्ञापनों और नारों के आधार पर खूब तरजीह दे रहा है। जानवर की जानवरियत को अपने सर पर चढाकर नाच रहा है। गनीमत है जानवर अभी भी अपनी प्राकृतिक प्रवृति के अनुसार व्यवहार कर रहे हैं। कहीं जानवरों ने इंसानों जैसा इंसानियत रहित व्यवहार करना शुरू कर दिया तो वह समय बेहतर तो नहीं होगा। तब शायद मगरमच्छ के आंसुओं की जगह मगरमच्छ की हंसी का समय होगा। फिल्हाल मगरमच्छों की पूजा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक हो या राजनीतिक इस पर विचार विमर्श लाज़मी है।


- संतोष उत्सुक

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