हर रोज अखबारों की सुर्खियां बनती आत्महत्याओं की खबरें तथाकथित समाज विकास की विडम्बनापूर्ण एवं त्रासद तस्वीर को बयां करती है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है। इसका दंश वे झेलते हैं जिनका कोई अपना आत्महत्या कर चला जाता है, उनके प्रियजन, रिश्तेदार एवं मित्र तो दुःखी होते ही हैं, सम्पूर्ण मानवता भी आहत एवं शर्मसार होती है। इन डरावनी स्थितियों को कम करने के लिये एवं आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिये विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस प्रतिवर्ष 10 सितंबर को मनाया जाता है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सहयोग से अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन फॉर आत्महत्या रोकथाम (इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर सुसाइड प्रवेंशन-आईएएसपी) द्वारा आयोजित किया जाता है।
कभी कोई विद्यार्थी, कभी कोई पत्नी, व्यापारी अथवा किसान, कभी कोई सरकारी कर्मी तो कभी कोई प्रेमी-जीवन में समस्याओं से इतना घिरा हुआ महसूस करता है या नाउम्मीद हो जाता है कि उसके लिये जीवन से पलायन कर जाना ही सहज प्रतीत होता है और वह आत्महत्या कर लेता है। आत्महंता होते व्यक्ति के लिये समस्याएँ विराट हो गई हैं एवं सहनशक्ति क्षीण हुई है। यही कारण है कि विश्व में हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है, इस तरह वर्ष से आठ लाख से अधिक लोग मर जाते हैं तथा इससे भी अधिक लोग आत्महत्या का असफल प्रयास करते हैं। आत्महत्या पंद्रह से उनतीस वर्ष की अवस्था के युवाओं के बीच मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है। वैश्विक स्तर पर आत्महत्या का सबसे सामान्य तरीका कीटनाशक खाना, फांसी लगाना, रेल्वे के आगे कूद जाना, पानी में डूबना और बंदूक हैं।
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आत्महत्या की समस्या दिन-पर-दिन विकराल होती जा रही है। इधर तीन-चार दशकों में विज्ञान की प्रगति के साथ जहां बीमारियों से होने वाली मृत्यु संख्या में कमी हुई है, वहीं इस वैज्ञानिक प्रगति एवं तथाकथित विकास के बीच आत्महत्याओं की संख्या पहले से अधिक हो गई है। यह समाज के हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है। चिंता की बात यह भी है कि आज के सुविधा भोगी जीवन ने तनाव, अवसाद, असंतुलन को बढ़ावा दिया है, अब सन्तोष धन का स्थान अंग्रेजी के मोर धन ने ले लिया है। जब सुविधावादी मनोवृत्ति सिर पर सवार होती हैं और उन्हें पूरा करने के लिये साधन नहीं जुटा पाते हैं तब कुंठित एवं तनावग्रस्त व्यक्ति को अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है। यह केवल भारत की समस्या नहीं है विदेशों में तो इसके आँकड़े चैंकाने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में 2014 में कुल 42773 आत्महत्याएँ हुईं। दूसरे अमेरिका में हर रोज 105 लोग आत्महत्या करते हैं इस तरह वहाँ वर्ष में 38 हजार मौतों का कारण आत्महत्या है। लगभग अस्सी नब्बे प्रतिशत किशोर किशोरियां तनावग्रस्त हैं जिनका डॉक्टरी इलाज चल रहा है। यह सब आज के अति भौतिकवादी एवं सुविधावादी युग की देन है। तकनीकी विकास ने मनुष्य को सुविधाएँ तो दीं लेकिन उससे उसकी मानवीयता, संतुलन छीन लिया। उसे अधिक-से-अधिक मशीन में और कम से कम मानव में तब्दील कर दिया है। एडवर्ड डेह्लबर्ग कहते हैं- जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिन्दगी बेकार है तो वह या आत्महत्या करता है या यात्रा।’ प्रश्न है कि लोग दूसरा रास्ता क्यों नहीं अपनाते? आत्महत्या ही क्यों करते हैं?
भारत में आत्महत्या के प्रमुख कारणों में बेरोगजारी, भयानक बीमारी का होना, पारिवारिक कलह, दांपत्य जीवन में संघर्ष, गरीबी, मानसिक विकार, परीक्षा में असफलता, प्रेम में असफलता, आर्थिक विवाद, राजनैतिक परिस्थितियां होती हैं। स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक आत्महत्या करते हैं। इसी प्रकार मानसिक विकार के कारण उन्माद, अत्यधिक चिंता, मानसिक अस्थिरता, स्नायुविकार, सदैव हीनता की भावना से ग्रसित रहने, निराशा से घिरे रहने, अत्यधिक भावुक, क्रोधी होने अथवा इच्छाओं का दास होने आदि प्रमुख मानसिक विकार हैं, जिनके अधीन होकर व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। कोई व्यसन शराब, जुआ, यौन लिप्सा अथवा अपराधी कार्यों, जैसे व्यक्तिगत दोषों की अधिकता के कारण सामाजिक जीवन से अपना तालमेल करने में असमर्थ रहने पर भी आत्महत्या कर लेता है। छात्रों के सिर पर परीक्षा का तनाव प्रतिस्पर्धा के दौर में और भी बढ़ गया है। कुछ अभिवावक व अन्य लोग सर्वाधिक अंकों, उन्नत कैरियर जैसे आईएस, सीए, डॉक्टरी को ही महत्व देते हैं जिससे छात्र पर मानसिक दबाव और बढ़ा देते हैं जबकि उसकी अपनी कुछ विषयों को लेकर रुचि व कठिनाइयां होती हैं। विद्यार्थी जीवन के इन दबावों ने आत्महत्या की घटनाओं को बढ़ाया है। आज रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हैं। ग्रेजुएशन कर चुकने वाला व्यक्ति केवल किसी दफ्तर में ही अपने लिये सम्भावनायें तलाशता है। लेकिन नौकरी नहीं मिलती। बेरोजगारी अवसाद की ओर ले जाती है और अवसाद आत्महत्या में त्राण पाता है।
जो परिवार तलाक, अलगाव, आर्थिक कलह एवं अभावों, रिश्तों के कलह के कारण टूटी हुयी स्थिति में होते हैं उनमें भी आत्महत्या की घटनाएं अधिक पायी जाती हैं। राजनैतिक उथल-पुथल और व्यापार में नुकसान, आर्थिक तंगी भी आत्महत्या का कारण बनती है। किसानों की फसल की तबाही और कर्ज की अदायगी की चिंता से हो रही आत्महत्या भी गंभीर समस्या बन गई है। कर्ज लेकर घी पीने की जीवनशैली ने भी सब कुछ दांव पर लगा दिया है। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण में वृद्धि भी इसके कारण है। भौतिक मूल्यों के बढ़ते हुए प्रभाव ने सामाजिक सामंजस्य की नई समस्याओं को जन्म दिया है। लेकिन आत्महत्या किसी भी सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के भाल पर एक बदनुमा दाग है, कलंक हैं। टायन्बी ने सत्य कहा है कि कोई भी संस्कृति आत्महत्या से मरती है, हत्या से नहीं।’
इन्टरनेशनल एसोसियेशन फार सुसाइड प्रिवेंशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल 30 प्रतिशत किशोर व अल्प आयु युवाओं के मन में आत्महत्या के विचार बहुत ही ज्यादा हावी हो चुके हैं। आत्महत्या के विचार पहले तो पैसिव रूप में आते हैं जिससे कि किसी प्राकृतिक आपदा, बीमारी, दुर्घटना इत्यादि में जीवन समाप्त हो जाने की प्रबल इच्छा पैदा होती है। परन्तु स्वयं से आत्महत्या के कृत्य करने से वह बचना चाहता है। मगर धीरे-धीरे ये आत्महत्या के विचार सक्रिय रूप ले लेते हैं तथा व्यक्ति आत्महत्या के कृत्य को स्वयं अंजाम देने पर इस कदर आमादा हो जाता है कि उसके मन में सुसाइड का कृत्य एक मादक खिंचाव बन जाता है जिसे मेन्टल हाईजैक कहा जाता है और फिर आत्महत्या के विभिन्न तौर तरीकों पर ध्यान केन्द्रित करना शुरू कर देता है और आत्महत्या का कृत्य कर बैठता है। कई असफल आत्महत्या के कृत्य जिसको पैरा सुसाइड कहते हैं, के बाद वह सुसाइड करने में सफल भी हो जाता है।
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आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को रोकना एक आदर्श एवं संतुलित समाज का आधार होना चाहिए। विश्व स्तर पर आयोजित होने वाले विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस की सार्थकता तभी है जब इस दिशा में कुछ ठोस उपक्रम हो। संपर्क, संवाद और देखभाल- यह तीन शब्द आत्महत्या की रोकथाम में मूल मंत्र साबित हो सकते हैं। आत्महत्या के पीछे मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, व्यक्तिगत, सांस्कृतिक एवं परिस्थितिकीय कारण होते हैं। उन कारणों को खोजना जरूरी है। अनेक संगठन एवं व्यक्ति इस दिशा में सार्थक पहल कर रहे हैं। जिन्होंने आत्महत्या रोकने के उपाय खोजे हैं और अपने विचारों एवं कार्यों को अमलीजामा पहनाने के लिये मुहिम चला रहे हैं। बैंगलोर के मुरलीधर आर. इस कोशिश में जुटे हैं कि किशोर बच्चों पर पढ़ाई और कैरियर का इतना दबाव न आए कि उन्हें आत्महत्या जैसा क्रूर एवं त्रासद कदम उठाना पड़े। मुंबई की सृष्टि इलेक्ट्रोनिक मीडिया से चाहती है कि वो आत्महत्या की खबरों को सनसनीखेज न बनाएं। बाइस वर्षीय इंजीनियर राशि अनेक उपक्रम कर रही है, उसने केन्द्र सरकार से एक राष्ट्रीय हैल्पलाइन बनाने की मांग की है। विद्यार्थियों पर कैरियर एवं ऊंचे अंक का दबाव बनाने वाले स्कूलों, अभिभावकों एवं अध्यापकों को भी अपनी सोच बदलने के लिये सकारात्मक वातावरण बनाना होगा। फ्रांसिस थामसन ने कहा कि “अपने चरित्र में सुधार करने का प्रयास करते हुए, इस बात को समझें कि क्या काम आपके बूते का है और क्या आपके बूते से बाहर है।’ इसका सीधा-सा अर्थ तो यही हुआ कि आज ज्यों-ज्यों विकास के नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यों-त्यों आदर्श धूल-धूसरित हो रहे हैं और मनुष्य आत्महंता होता रहा है।
-ललित गर्ग