By सुखी भारती | Aug 12, 2022
देवऋर्षि नारद जी का जीवन भी कैसे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है। जिस जप-तप के कारण उनकी तीनों लोकों में कीर्ति बनी, समस्त देव-दानवों ने उनके प्रभुत्व को स्वीकार किया, वही महान तपस्वी व मुनि, देवऋर्षि नारद जी, आज कह रहे हैं, कि जप-तप से तो कुछ होगा नहीं-
‘जप तप कछु न होइ तेहि काला।
हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।’
देवऋर्षि नारद जी ने यहाँ तक मान लिया था, कि अगर राजकुमारी को पाना है, तो कुछ और ही उपाय करना पड़ेगा। कम से कम उन्हें यह तो ज्ञान था ही, कि मैं जो पाना चाहता हूँ, वह एक विषय है, और प्रभु की भक्ति से विषय का नाश होता है, न कि प्राप्ति। मुनि यह भलिभाँति जानते थे, कि इस सुंदर नगरी में तो उसीका महत्व व मूल्य है, जो परम सुंदर होगा। तो क्यों न मैं श्रीहरि से सुंदरता ही मांग लूँ? पर यहाँ भी तो एक समस्या है। समस्या यह, कि जब तक मैं श्रीहरि के पास जाऊँगा, और सुंदरता पाकर वापस लौटूँगा, तब तक तो स्वयंवर का संपूर्ण कार्यक्रम ही समाप्त हो जायेगा-
‘हरि सन मागौं सुंदरताई।
होइहि जात गहरु अति भाई।।
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ।
एहि अवसर सहाय सोइ होऊ।।’
पढ़कर कितना आश्चर्य लगता है, कि जिन देवऋर्षि नारद जी ने, आज तक प्रभु से यही प्रार्थना की थी, कि हे प्रभु! मेरा मन पावन व सुंदर करो। आज वही मुनि मन को छोड़ यह विनति कर रहे हैं, कि कैसे मेरा मन नहीं, बल्कि मेरा तन सुंदर हो। भगवान को कौन प्रिय है? यह तो एक मंदमति भी बता देगा, कि भगवान को तन की सुंदरता वाले नहीं, अपितु मन की सुंदरता वाले प्रिय लगते हैं। लेकिन समस्या तो यही थी, कि इस समय देवऋर्षि नारद जी, भगवान की सभा में नहीं, अपितु संसार की सभा में थे। जहाँ पर सदैव से ही माया व प्रपंच से सजी देह को ही प्राथमिकता दी जाती है। देवऋर्षि नारद जी ने सोचा कि न बाबा न! मैं ऐसी मूर्खता नहीं करुँगा, मैं चला जाऊँ श्रीहरि के पास और इधर पूरा मेला ही कोई और लूट कर ले जाये। तो ऐसे में प्रश्न यही था, कि क्या किया जाये? मुनि ने सोचा, कि क्यों न मैं श्रीहरि को ही यहाँ बुला लूँ? क्योंकि उन्हें मेरी तरह कहीं भी आने-जाने में समय थोड़ी न लगता है। मुनि को यह विचार अति उत्तम लगा। मुनि ने उसी समय अनेक प्रकार से विनतियां व स्तुतियां का गान आरम्भ कर दिया। मुनि द्वारा सुंदर-सुंदर प्रार्थनायें इतने गहन प्रयास से की जा रही थीं, कि आज से पहले तो उन्होंने स्वयं में भी कभी, ऐसा जोश व तरंग महसूस नहीं किया था। प्रार्थनाओं का प्रभाव भी तो देखिए, श्रीहरि तत्काल प्रभाव से, साक्षात रूप में मुनि के समक्ष प्रकट हो गए। मुनि ने जैसे ही भगवान श्रीविष्णु जी को अपने समक्ष देखा, तो उनके नेत्रें में चमक-सी आ गई। उनके मन में यह दृढ़ निश्चय हो गया, कि चलो अब तो श्रीहरि प्रकट हो गए हैं, तो अब अपना काम बस बना ही समझो-
‘बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला।
प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला।।
प्रभु बिलोकि मुतन नयन जुड़ाने।
होइहि काजु हिएँ हरषाने।।’
मुनि ने सोचा कि मैं प्रभु को कैसे कहूँ, कि मुझे संसार में सबसे सुंदर बना दो। क्योंकि प्रभु का क्या भरोसा, कि वे यह उपदेश ही देने लग जायें, कि हे मुनि! आप तो योगी हैं, और संसार में एक योगी से सुंदर भला और कौन हो सकता है? इसलिए मुझे बड़ा संभल कर बोलना है। कोई भी ऐसी गलती नहीं कर देनी, कि सारा बना बनाया खेल ही बिगड़ जाये। तो ऐसे में यही उचित रहेगा, कि मैं श्रीहरि का ही रूप मांग लूँ। कारण कि जगत में श्रीहरि से बढ़कर तो किसी का भी रूप सुंदर नहीं है। देवऋर्षि नारद जी ने बातों ही बातों में सारा मामला तो प्रभु को बता ही दिया था। और कमाल देखिए, कि मुनि को एक बार भी यह नहीं लगा था, कि मेरी ऐसी सोच देख कर, प्रभु मेरे बारे में क्या सोचेंगे। वे तो बस एक ही श्वाँस में कहते ही गए, और प्रभु सुनते गए। ऐसा नहीं था, कि प्रभु मुनि को डांट नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि अब मुनि की इस मानसिक व्याधि का उपचार, केवल वचनों से तो संभव ही नहीं था। इसलिए उन्होंने मुनि को सब कुछ बोलने दिया। मुनि भी अपनी कथा सुनाते रहे-
‘अति आरति कहि कथा सुनाई।
करहु कृपा करि होहु सहाई।।
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं।
आन भाँति नहिं पावौं ओही।।’
श्रीहरि भी सोच रहे होंगे, कि मुनि की क्या दशा हो चुकी है। जिसे शब्दों में कहे नहीं बनता। नादान मुनि को ऐसी स्थिति में यह भी भान नहीं रहा, कि जो मेरा रूप पा गया, उसे फिर विषय वासनाओं से तो कोई वास्ता ही नहीं रहता। चलो यह भी अच्छा है, कि मुनि ऐसी दयनीय स्थिति में भी यही चाहते हैं, कि उन्हें मेरा रूप प्राप्त हो।
क्या भगवान श्रीहरि, देवऋर्षि नारद जी को अपना रूप प्रदान करते हैं, अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती