By नीरज कुमार दुबे | Apr 26, 2023
नमस्कार, प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम जन गण मन में आप सभी का स्वागत है। इन दिनों देश में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने या नहीं देने के मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है क्योंकि भारत का उच्चतम न्यायालय इस मुद्दे पर रोजाना आधार पर सुनवाई कर रहा है। इस मुद्दे पर आ रही प्रतिक्रियाओं को देखें तो समाज के एक वर्ग को लगता है कि भारत का सामाजिक चरित्र बिगाड़ने के प्रयास हो रहे हैं तो वहीं दूसरा पक्ष चाहता है कि हर व्यक्ति को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी पसंद के लिंग वाले व्यक्ति को जीवनसाथी बना सके। दूसरी ओर, उच्चतम न्यायालय में इस मुद्दे पर सुनवाई के दौरान न्यायाधीश महोदय सरकार से तमाम तरह के सवाल पूछ रहे हैं तो वहीं सरकार राज्यों की राय लेने का भी सुझाव दे रही है और दलील दे रही है कि भारतीय संस्कृति, लोकाचार और सामाजिक संरचना को देखते हुए समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं दी जानी चाहिए। सामाजिक क्षेत्र से भी ऐसी राय सामने आ रही है कि समलैंगिक विवाह को अनुमति देनी है या नहीं यह फैसला देश की संसद पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि विधायिका ही जनता के प्रति जवाबदेह है और वहां हर कानून बनने से पहले उस पर पर्याप्त चर्चा होती है।
हम आपको यह भी बता दें कि इस मामले में एक अन्य रोचक पहलू यह है कि कानून के जानकार समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय की तेजी से बहुत हैरान हैं। भारत के पीआईएल मैन और वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि पोली गैमी, निकाह हलाला, निकाह मुताह, निकाह मीस्याह और सरिया कोर्ट जैसे अहम मुद्दों पर साल 2018 में दाखिल की गयी जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने अब तक पीठ का गठन नहीं किया और सुनवाई भी शुरू नहीं हुई लेकिन हाल ही में दाखिल समलैंगिक विवाह संबंधी याचिका पर सुनवाई शुरू हो गयी है।
जहां तक इस मामले पर उच्चतम न्यायालय में चल रही सुनवाई की बात है तो आपको बता दें कि अब तक जो अहम बातें कही गयी हैं उसके मुताबिक, न्यायालय ने इस मामले पर 20 अप्रैल को सुनवाई में कहा था कि सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के बाद वह अगले कदम के रूप में "शादी की विकसित होती धारणा" को फिर से परिभाषित कर सकता है। उच्चतम न्यायालय की पीठ इस दलील से सहमत नहीं थी कि विषम लैंगिकों के विपरीत समलैंगिक जोड़े अपने बच्चों की उचित देखभाल नहीं कर सकते। बहरहाल, केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का अनुरोध करने वाली याचिकाएं ‘‘शहरी संभ्रांतवादी’’ विचारों को प्रतिबिंबित करती हैं और विवाह को मान्यता देना अनिवार्य रूप से एक विधायी कार्य है, जिस पर अदालतों को फैसला करने से बचना चाहिए।
दूसरी ओर, सरकार के ही पक्ष का बार काउन्सिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने भी समर्थन किया है। बार काउन्सिल ने उच्चतम न्यायालय में समलैंगिक विवाह मुद्दे की सुनवाई किये जाने पर चिंता जताते हुए कहा है कि इस तरह के संवेदनशील विषय पर शीर्ष न्यायालय का फैसला भविष्य की पीढ़ियों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है इसलिए इसे विधायिका के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। हालांकि बार काउन्सिल के इस बयान का तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने विरोध किया है। यही नहीं, तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी तो समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के पक्ष में पहले से ही खड़े हैं। लेकिन ढेरों राजनीतिक पार्टियां, सामाजिक और धार्मिक संगठन आदि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के खिलाफ हैं। परन्तु उच्चतम न्यायालय का रुख देख कर लगता है कि वह कोई ना कोई बड़ा फैसला करने के मूड़ में है इसलिए सबके मन शंकाओं से भरे हुए हैं।
वैसे जो लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के पक्ष में हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि जब भारत में विवाह का विषय विभिन्न आचार संहिताओं द्वारा संचालित होता है और भारत में प्रचलित कोई भी आचार संहिता इनकी अनुमति नहीं देती तो क्या ऐसे में उच्चतम न्यायालय इन सब में भी परिवर्तन करना चाहेगा? इसके अलावा जो लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के पक्ष में दलीलें दे रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि हिंदू धर्म में शादी केवल यौन सुख भोगने का एक अवसर नहीं है। विवाह द्वारा शारीरिक संबंधों को संयमित रखने, संतति निर्माण करने, उनका उचित पोषण करने, वंश परंपरा को आगे बढ़ाने और अपनी संतति को समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाने जैसे जिम्मेदारी भरे कार्य भी किये जाते हैं। इसके अलावा, यदि हम समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने जा रहे हैं तो यह भी ध्यान रखना होगा कि समलैंगिक संबंध वाले कल को अपने आप को लैंगिक अल्पसंख्यक घोषित कर अपने लिए आरक्षण की मांग भी कर सकते हैं।