देश की राजधानी नई दिल्ली से सटी औद्योगिक नगरी गाजियाबाद में लोकसभा चुनाव धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है। आम चुनाव 2024 के तहत यहां दूसरे चरण में 26 अप्रैल को मतदान होगा, इसलिए पक्ष-विपक्ष के बीच राजनीतिक तपिश बढ़ती जा रही है। यहां की मुख्य चुनावी लड़ाई एनडीए समर्थित भाजपा प्रत्याशी अतुल गर्ग और इंडिया गठबंधन की कांग्रेस-सपा-आप प्रत्याशी डॉली शर्मा के बीच होगी। हालांकि दलित और क्षत्रिय वोटों के सहारे बसपा प्रत्याशी नंद किशोर पुंडीर इस लड़ाई को त्रिकोणात्मक बनाने में सफल हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
अब आइए बात करते हैं उन पहलुओं पर जो इस चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं:-
पहला फैक्टर है- शहरी बनाम ग्रामीण। आमतौर गाजियाबाद महानगर के शहरी इलाकों में जहां भाजपा की पैठ मजबूत है, वहीं ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की पकड़ मजबूत है। वर्तमान में सपा कांग्रेस की सहयोगी पार्टी है। जबकि बसपा की पैठ शहरी/ग्रामीण दोनों इलाकों के जातिविशेष में है। बता दें कि गाजियाबाद की 70 प्रतिशत आबादी शहरों में और 30 प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है। इस मामले में कांग्रेस पर भाजपा भारी पड़ सकती है।
दूसरा फैक्टर है- जातीय समीकरण। जो किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में विरले ही जाता है। एक आंकड़े के मुताबिक, कुल 29 लाख 38 हजार 845 मतदाताओं वाली इस सीट पर सर्वाधिक 18 प्रतिशत ब्राह्मण, 15 प्रतिशत मुस्लिम, 14 प्रतिशत ठाकुर, 12 प्रतिशत गुर्जर, 10 प्रतिशत वैश्य, 16 प्रतिशत वंचित और 15 प्रतिशत अन्य मतदाता हैं। चूंकि भाजपा ने वैश्य, कांग्रेस ने ब्राह्मण और बसपा ने क्षत्रिय प्रत्याशी उतारे हैं। ये तीनों जाति भाजपा की हार्ड कोर समर्थक मानी जाती है।
शायद इसलिए भी कांग्रेस और बसपा ने उसी में सेंध लगाने की पहल की है। हालांकि, जातीय समीकरण भी अभी भाजपा के पक्ष में है क्योंकि उसने दलित, पिछड़े व पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने की पहल शिद्दत पूर्वक की है, जबकि कांग्रेस इसे तोड़ने के लिए तरह-तरह के प्रयोग/उपाय कर रही है। लिहाजा, यहां भी भाजपा का पलड़ा कांग्रेस पर भारी है।
राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि पिछले 2 लोकसभा चुनावों से काँग्रेस के वोट बैंक में भाजपा सेंध लगा चुकी है, जिसे वापस पाना अब भी कांग्रेस के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है। क्योंकि गरीबी हटाओ के नारे पर हिंदुत्व भारी पड़ चुका है। क्षद्म धर्मनिरपेक्षता पर राष्ट्रवाद हावी होकर बोल रहा है। वहीं, जातिविशेष पर बसपा की पकड़ से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए मौजूदा चुनावी लड़ाई दिलचस्प मोड़ लेती जा रही है।
तीसरा फैक्टर है- सांप्रदायिक गोलबंदी। यह बात साफ है कि भाजपा को हिंदुओं के वोट थोक भाव में मिलते हैं, जबकि अल्पसंख्यक समाज का वोट रणनीतिक रूप से थोड़ा-बहुत। वहीं, कांग्रेस व उसके समाजवादी समर्थकों को अल्पसंख्यक समाज का वोट थोक भाव में मिलता है, जबकि बहुसंख्यक हिंदुओं के वोट जातीय आधार पर रणनीतिक रूप से थोड़ा बहुत। आंकड़े गवाह हैं कि जहां भी सांप्रदायिक गोलबंदी होती है, वहां भाजपा को ज्यादा, कांग्रेस को कम फायदा मिलता है। वहीं, अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में यह स्थिति उलट जाती है।
चौथा फैक्टर है- सरकारी कामकाज और विभिन्न मुद्दे। इस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी अतुल गर्ग जहां मोदी सरकार और योगी सरकार की उपलब्धियां गिना रहे हैं। अपने शहर विधायक होने और उत्तरप्रदेश में राज्यमंत्री के रूप में सेवा देने के बारे में भी बता रहे हैं। साथ ही राष्ट्रीय मुद्दों की भी बात कर रहे हैं। वहीं, कांग्रेस प्रत्याशी डॉली शर्मा कोरोना काल में अतुल गर्ग के यूपी के स्वास्थ्य राज्यमंत्री रहते हुए भी उनके द्वारा बरती गई लापरवाही पर लगातार उन्हें घेर रही हैं।
इसके अलावा, भाजपा द्वारा केंद्रीय मंत्री जनरल वी के सिंह का टिकट काटने पर भी उनकी पार्टी को आड़े हाथों ले रही हैं। यही नहीं, स्थानीय मुद्दों पर भी उन्हें लगातार घेर रही हैं। उनका आरोप है कि विगत 15 सालों से भाजपा के सांसद हैं, लेकिन मलिन बस्तियों तक विकास की किरण नहीं पहुंची है। गांवों में भी विकास नदारत है। इसलिए उन्होंने दो टूक कहा है कि गाजियाबाद का चुनाव वो स्थानीय मुद्दों पर भी लड़ेंगी। क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रदूषण, स्वच्छता, सुरक्षा, मेट्रो पहुंच आदि को वह सबके अनुकूल करने का इरादा रखती हैं। महंगाई व बेरोजगारी दूर करने का जज्बा रखती हैं। यहां पर कांग्रेस का पलड़ा कैंडिडेट के तेवर की वजह से भारी है और यही तेवर उनकी असली सियासी पूंजी है।
पांचवां फैक्टर है- संगठन और उसके दांवपेंच। इस मामले में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं कर सकता है, क्योंकि उसके ऊपर आरएसएस का परोक्ष हाथ हमेशा से ही रहता आया है। कांग्रेस भी अपने सेवा दल के सहारे देश पर लंबे समय तक राज कर चुकी है, जो अब कमजोर हो चुकी है। वहीं, नई आर्थिक नीतियों के दुष्परिणाम स्वरूप समाज में ऐसी प्रतिस्पर्धा बढ़ी कि सेवा भाव अब लगभग गायब होते जा रहा है और श्रम मूल्य सामाजिक जीवन में प्रभावशाली स्थान लेता जा रहा है।
वहीं, कांग्रेस की सहयोगी पार्टी सपा और आप के कैडर तो हैं, लेकिन ये भाजपा की रणनीति का मुकाबला कितने कारगर ढंग से कर पाते हैं, सबकुछ इस बात पर ही निर्भर करेगा। हालांकि पारस्परिक समन्वय बिठाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। वहीं, बसपा के पास लगभग 20 प्रतिशत कैडर वोट है, जिसके सहारे भारतीय राजनीति में उसकी पूछ निरंतर बनी हुई है। जबकि गत 12 वर्षों से वह यूपी की सत्ता से बाहर है।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मीडिया और सोशल मीडिया में अक्सर छाई रहने वाली कांग्रेस प्रत्याशी क्या भगवा किले पर कांग्रेसी तिरंगा फहरा पाएंगी? क्या लुंज-पुंज कांग्रेस संगठन के सहारे वह अपने गठबंधन सहयोगियों को साधकर अपना लक्ष्य पूरा कर पाएंगी? क्या अपनी आक्रामक सियासी शैली से वह शांतिप्रिय व सुशिक्षित शहरी मतदाताओं को लुभा पाएंगी? क्या सियासी रूप से अनुभवहीन लोगों की फौज का नेतृत्व करते हुए वह गाजियाबाद के मैदान को फतह कर पाएंगी? सधा हुआ जवाब तो यही मिल रहा है कि आज की तिथि में दिल्ली उनके लिए बहुत दूर तो नहीं, बल्कि सन्निकट भी नहीं है। आने वाले दिनों में उन्हें कई सियासी पापड़ भी बेलने पड़ेंगे, लेकिन सवाल फिर वही कि क्या वह ऐसा कर पाएंगी? यदि नहीं तो अतुल का अतुलित सियासी बल उन्हें इस बार भी मात दे सकता है!
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक