By कमलेश पांडे | Dec 20, 2024
देश-दुनिया में हर रोज एक महाभारत शुरू होता है जो महज 18 दिन नहीं, बल्कि महिनों-सालों चलता रहता है। दरअसल यह एक राजसी प्रवृत्ति है जो यत्र-तत्र-सर्वत्र अपनी इहलीला प्रदर्शित करती रहती है। यह कभी किसी के अंतरतम में चलता है तो कभी सियासी जगत में। कभी आर्थिक जगत के कार्पोरेट्स वार के रूप में, तो कभी सामाजिक क्षेत्र के जातीय अंतर्द्वंद्व युद्ध में। कभी सांस्कृतिक क्षेत्र के साम्प्रदायिक रणभूमि में तो कभी अंतर्राष्ट्रीय फलक पर खुले जंग के रूप में।
कमोबेश हर जगह युद्ध जीतने वालों को गुटबंदी की जरूरत पड़ती है और इस हेतु प्रायोजित चक्रब्युह हेतु किसी न किसी अभिमन्यु की तलाश रहती है। यूँ तो भारतीय राजनीति में एक नहीं, अनेक अभिमन्यु हैं, लेकिन यहां पर कांग्रेस युवराज और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के समक्ष समुपस्थित राजनीतिक परिस्थितियों की बात करना अधिक प्रासंगिक है। क्योंकि 10 वर्षों के अथक परिश्रम के बाद लोकसभा चुनाव 2024 में अपने कुशल नेतृत्व का डंका पिटवाने वाले राहुल गांधी आखिर हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव जैसी जीती हुई बाजी हारकर अपने ही गठबंधन सहयोगियों के आंखों की किरकिरी कैसे बन गए?
क्या सिर्फ इसलिए कि भाजपा के रणनीतिकारों के इशारे पर कांग्रेस के नेतृत्व वाला इंडिया गठबंधन है जिसमें अधिकांश सूबाई क्षत्रप शामिल हैं? क्योंकि यही वह सफल गठबंधन है जिसने उसकी सारी सियासी हेकड़ी लोकसभा चुनाव 2024 में तोड़ कर रख दी और उसके सामने गठबंधन की मजबूरी खड़ी कर दी। वहीं, यूपी में उसके मोदी-योगी जैसे नेतृत्व के माथे पर चिंता की शिकन पैदा कर दी। या फिर शरद पवार और लालू प्रसाद की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हुई, जबकि ममता बनर्जी अपने मिशन में कामयाब रहीं। उन्होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों को उनकी सियासी हद में रखा।
या फिर समाजवादी पार्टी के मुखिया और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के इशारे पर कांग्रेस युवराज राहुल गांधी नहीं थिरक रहे हैं, इसलिए। क्योंकि शिवसेना यूबीटी प्रमुख उद्धव ठाकरे कांग्रेस के स्वाभाविक सहयोगी नहीं हैं। हालिया महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उन्हें कमतर बताने में कांग्रेस सफल रही और महाराष्ट्र के सियासी नक्शे से मिट गई। इसी प्रकार कांग्रेस ने दिल्ली से पंजाब तक आप को सिमटने पर विवश कर दिया और अखिलेश की सपा को भी यह जतला दिया कि सिर्फ यूपी में रहें, मध्यप्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र में उसके कंधे पर सवार होकर आगे बढ़ने का स्वप्न न पालें। यही वजह है कि ये सभी नेता कांग्रेस से नाराज हैं और तीसरे मोर्चे को पुनः खाद पानी देने की सियासी चाल चल रहे हैं।
यही वजह है कि हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव के बाद इंडिया गठबंधन में नेतृत्व के सवाल पर कांग्रेस नेतृत्व को नीचा दिखाने की तिकड़म जो तिकड़मी सियासत शुरू हुई और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद जैसे नेताओं ने भी कांग्रेस से पाला बदलने में हड़बड़ाहट दिखाई, उससे तो यही महसूस हुआ कि एनसीपी प्रमुख शरद पवार जैसे सियासी धुरंधर अपने मकसद में कामयाब हो गए। तभी तो कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव व लोकसभा सदस्य प्रियंका गांधी जैसे राष्ट्रीय चेहरों के रहते हुए भी इंडिया गठबंधन के नए अध्यक्ष के रूप में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नेत्री और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का नाम उछाला गया।
कहना न होगा कि शरद पवार और ममता बनर्जी ने अपने अपने राज्यों में काँग्रेस को ही तोड़कर अपनी सियासत चमकाई है। हालांकि, उनके मिशन को राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद का साथ मिलने से शरद पवार का पलड़ा भारी हो गया। कहने का मतलब यह कि महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और बिहार ने यह संकेत दे दिया कि उसे मजबूत कांग्रेस की नहीं, कमजोर कांग्रेस की जरूरत है, जो उनके इशारे पर थिरकती रहे। इधर, दिल्ली और उत्तरप्रदेश में भी कांग्रेस को कमजोर ठहराने के लिए दिल्ली में एक मंच पर अखिलेश और केजरीवाल ने हाथ मिला लिया है।
इससे पहले राजद नेता व बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का साथ केजरीवाल ले ही चुके हैं। बिहार के मुख्यमंत्री व जदयू नेता नीतीश कुमार भले ही पुनः एनडीए गठबंधन में हैं, लेकिन केजरीवाल से उनके मधुर सम्बन्ध जगजाहिर हैं। एनडीए विरोधी इंडिया गठबंधन खड़ा करने में नीतीश के योगदान को नहीं भुला सकता है और यदि उन्हें गठबंधन का संयोजक बना दिया गया होता तो आज वो इंडिया गठबंधन में ही होते।
वहीं, ईवीएम के दुरूपयोग के सवाल पर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री व नेशनल कांफ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस को जो आईना दिखाया है, उससे साफ है कि अपने अपने तरीके से इंडिया गठबंधन के सहयोगी राहुल गांधी को घेर रहे हैं, ताकि कांग्रेस दबाव में रहे और यदि कभी पुनः तीसरे मोर्चा बने तो उनके लिये भी रास्ता खुला रहे। क्योंकि भाजपा नीत एनडीए के विरोध में बना इंडिया गठबंधन या संभावित तीसरा मोर्चा कोई मजबूत गठबंधन नहीं है क्योंकि यूपी बिहार में यह महागठबंधन तो महाराष्ट्र में महाराष्ट्र विकास अघाड़ी बन जाता है। इससे पहले इसे यूपीए समझा जाता था। इसलिए मेरा मानना है कि भाजपा या कांग्रेस विरोधी सियासत के लिए तीसरा मोर्चा सबसे उपयुक्त नाम है, जो पूरे देश में एक समझा जाता है।
अपने देखा होगा कि आम आदमी पार्टी ने हाल ही में दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में 'महिला अदालत' का आयोजन किया। जिसमें एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ने अरविंद केजरीवाल के साथ मंच साझा करते हुए बीजेपी पर जमकर हमला बोला और आप को बिना शर्त समर्थन देते हुए कहा कि यहां पर सपा अपना कोई उमीदवार खड़ा नहीं करेगी। ऐसा कहकर उन्होंने कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ा दिया कि यदि वह भाजपा विरोधी और अल्पसंख्यक समर्थक राजनीति करती है तो दिल्ली में सभी सीटों पर अपना उमीदवार नहीं दे।
वहीं, अखिलेश यादव ने यह भी कहा कि जब दिल्ली में घटनाएं हो रही है, तो कल्पना कीजिए पूरे देश मे क्या हो रहा होगा। क्योंकि अरविंद केजरीवाल ने सिर्फ इतना कहा था कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बस एक बार कह दें कि उनसे दिल्ली की कानून व्यवस्था नहीं संभल रही है। हालांकि वह यह नहीं कह पाए कि फिर हम सम्भाल लेंगे। पुलिस मुझे दे दीजिए!
इससे साफ है कि दिल्ली चुनाव में अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल के साथ होंगे और ऐसा करके उन्होंने कांग्रेस को एक बार फिर से ठेंगा दिखाया है। इससे पहले उन्होंने यूपी उपचुनाव में काँग्रेस को एक भी सीट सिर्फ इसलिए नहीं दिया था, क्योंकि मध्यप्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस ने उनकी पार्टी सपा को सीट नहीं दी और महाराष्ट्र में भी कम दी। यही वह है कि यूपी के दो लड़कों की जोड़ी यानी राहुल-अखिलेश के नेतृत्व वाली कांग्रेस व समाजवादी पार्टी के बीच तल्ख़ियां कम होती नहीं दिख रही हैं। अब जिस तरह से सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल को समर्थन देने का ऐलान किया है, उसके सियासी मायने निकाले जा रहे हैं।
दिल्ली में अखिलेश यादव ने न केवल अरविंद केजरीवाल की तारीफ में जमकर कसीदे पढ़े बल्कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को पूर्ण समर्थन देने की बात भी कही। ऐसे में सियासी गलियारों में राहुल गांधी से नाराजगी और केजरीवाल से नजदीकी को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। अखिलेश यादव ने अरविंद केजरीवाल की तारीफ करते हुए कहा कि जिस पार्टी को माताओं और बहनों का साथ मिल जाए, वो पार्टी कभी हार नहीं सकती है। आप सरकार ने महिलाओं को 2,100 रुपये हर महीने देने का जो वादा किया है, वह काफी सराहनीय पहल है। उन्होंने आम आदमी पार्टी को पूर्ण समर्थन देने की बात भी कही। साथ ही कहा कि सपा पूरी जिम्मेदारी के साथ आप के साथ खड़ी है. जहां भी जरूरत होगी हम आपके साथ दिखाई देंगे।
सपा प्रमुख के दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल का खुलकर समर्थन करने के पीछे सियासी रणनीति और हालिया राजनीतिक घटनाक्रम भी माने जा रहे हैं।
समाजवादी पार्टी ने हाल ही में महाराष्ट्र विकास अघाड़ी गठबंधन से अलग होने का ऐलान किया। जबकि सपा महासचिव रामगोपाल यादव भी कह चुके हैं कि राहुल गांधी इंडिया गठबंधन के नेता नहीं हैं। दिल्ली में केजरीवाल ने कांग्रेस से गठबंधन नहीं करने और अकेले चुनाव का ऐलान किया है, जिससके बाद अखिलेश यादव ने मंच से आप सरकार की तारीफ में कसीदे पढ़े। इससे कयास लगाए जा रहे हैं कि सपा भी अब कांग्रेस से किनारा करती दिख रही है।
कांग्रेस से सियासी खटास की प्रमुख वजह सीट बंटवारे को लेकर खींचतान मानी जा रही है। मध्यप्रदेश से लेकर हरियाणा में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के लिए एक भी सीट नहीं छोड़ी। वहीं, महाराष्ट्र में भी आखिरी वक्त में सपा को दो सीटें ही दी गईं। इस प्रकार इंडिया गठबंधन में साइडलाइन होने के चलते अखिलेश यादव नाराज दिखे। क्योंकि वह लोकसभा में तीसरी बड़ी राजनीतिक हैसियत रखते हैं और गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विरोधी तीसरे मोर्चे के प्रमुख सूत्रधार भी बन सकते हैं। इसलिए उन्होंने अब अपनी पसंद वाली सियासत शुरू कर दी है, जो कांग्रेस को नागवार लग रही है।
यही नहीं, संसद में भी सीट अरेंजमेंट से लेकर संभल मुद्दा जोरशोर से न उठाने के मसले पर अखिलेश की सपा व कांग्रेस में खटपट दिखी। इसलिए सपा ने अडानी के मुद्दे पर कांग्रेस से किनारा कर लिया। वहीं, राहुल गांधी की अगुवाई में जब संसद के बाहर विरोध प्रदर्शन हुआ तो वहां सपा सांसद नहीं दिखाई पड़े। वहीं, अखिलेश ने महाराष्ट्र में एमवीए को झटका देते हुए अकेले ही बीएमसी (BMC) चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। उधर, शिवसेना यूबीटी भी इसी तरह का ऐलान कर चुकी है।
इन बातों से साफ है कि इंडिया गठबंधन के राजनीतिक महारथी अपने सियासी चक्रब्युह में राहुल गांधी को ही मात देने की कसरत करते नजर आ रहे हैं। हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक कांग्रेस के पिछड़ने की वजह भी यही है, क्योंकि इनलोगों ने दिल से भाजपा और दिमाग से कांग्रेस का साथ दिया, क्योंकि भाजपा भी दिल से ओबीसी राजनीति करती है, जो तीसरे मोर्चे के साथी दलों को भीतर ही भीतर गुदगुदाती है। सवर्णों और दलितों की सियासत को पिछलग्गू बनाकर रखना ही तो समाजवादियों और नव राष्ट्रवादियों का मकसद रहा है। हां, समाजवादी अल्पसंख्यक और राष्ट्रवादी अगड़ों को भड़काते हैं, अपने अपने हिसाब से, जबकि कांग्रेस इन्हें सहलाती है अपनी तासीर से!
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक