By अंकित सिंह | Mar 09, 2021
पश्चिम बंगाल में चुनावी सरगर्मी के बीच कांग्रेस के लिए चुनौतियां कम होने का नाम नहीं ले रही है। फुर्फूरा शरीफ के अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ गठबंधन के बाद पार्टी पर लगातार सवाल उठ रहे है। भाजपा तो सवाल उठा ही रही है। लेकिन कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पार्टी के अंदर भी पर सवाल उठ रहे है। आनंद शर्मा जैसे नेताओं ने भी लगातार कांग्रेस के इस फैसले पर सवाल उठाया है। आनंद शर्मा ने तो यह तक कह दिया कि यह फैसला पार्टी की गांधीवादी और नेहरू वादी धर्मनिरपेक्षता के तरीके के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस चयनात्मक नहीं हो सकती। कांग्रेस का गठबंधन पश्चिम बंगाल में वाम दलों और आईएसएफ के साथ है। पार्टी किसी भी कीमत पर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। उसने आईएसएफ की मौजूदगी को स्वीकार किया है। अगर एक गठबंधन में तीन पार्टियां साथ है तो सभी के बीच एक रजामंदी भी हुई होगी।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पश्चिम बंगाल में आईएसएफ का साथ कांग्रेस को क्यों लेना पड़ा? सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में 30 से 35 फ़ीसदी के बीच मुस्लिम आबादी है। करीब 70 से 100 सीटों पर मुसलमानों का वोट बहुत ज्यादा निर्णायक होता है। एक वक्त ऐसा था जब मुसलमानों का वोट वामदल या फिर कांग्रेस को जाते थे। लेकिन ममता बनर्जी के उदय के साथ यह समीकरण बदल गया। बंगाल के मुस्लिम मतदाता टीएमसी की ओर शिफ्ट हो गए। अब्बास सिद्दकी भी ममता बनर्जी के खुले समर्थक हुआ करते थे। लेकिन इस चुनाव से पहले परिस्थितियां बदली है और देखते ही देखते अब्बास सिद्दीकी ने नए पार्टी का ऐलान कर दिया। अब माना जा रहा है कि अब्बास सिद्दीकी की एंट्री से कांग्रेस और वाम दल मुस्लिम मतदाताओं में सेंधमारी की कोशिश कर सकते है।
जो सबसे बड़ी दलील दी जा रही है वह यह है कि आईएसएफ के साथ गठबंधन के बाद से कांग्रेस की छवि को काफी नुकसान हो सकता है। इसके पीछे का यह तर्क दिया जा रहा है कि अब तक कांग्रेस धर्म आधारित राजनीति से खुद को दूर रखती थी। चाहे कोई दल हिंदू धर्म के नुमाइंदी कर रही हो या मुसलमानों की। कांग्रेस सब से दूरी बनाकर मध्य की राजनीति करना ज्यादा पसंद करती थी। आनंद शर्मा ने जो तर्क दिया उसकी भी बुनियाद यही है। लेकिन अब यह कहा जा रहा है कि आईएसएफ के साथ लेने से अगर कांग्रेस को कोई फायदा नहीं है तो उसका नुकसान भी नहीं होने जा रहा है। कांग्रेस अपनी छवि से निकल रही है। क्योंकि उसके नेता अब प्रचार में मंदिर मंदिर घूम रहे हैं और जनेऊ धारी बन रहे हैं। इसके अलावा पार्टी हिंदुत्व की राजनीति करने वाली शिवसेना के साथ पहले से ही सरकार में है। ऐसे में आईएसएफ के साथ गठबंधन में क्या हर्ज है? हालांकि, 2016 में असम चुनाव के दौरान एआईयूडीएफ के साथ पार्टी ने गठबंधन से इनकार कर दिया था क्योंकि उस वक्त पार्टी को लगता था कि यह उसके छवि के अनुसार नहीं होगा। बावजूद इसके पार्टी हार गई थी।
फिलहाल यह देखना होगा कि आई आईएसएफ के साथ कांग्रेस और वाम दलों के गठबंधन से कितना फायदा होता है। लेकिन सीधा-सीधा देखें तो इस गठबंधन से सबसे ज्यादा नुकसान टीएमसी को होने वाला है। टीएमसी को होने वाला नुकसान भाजपा के लिए फायदेमंद है। इससे बंगाल चुनाव में नए राजनीतिक समीकरण दिख सकते है। बहुत सारे उलटफेर की भी संकेत मिल रहे हैं। हालांकि यह देखना होगा कि आईएसएफ के साथ गठबंधन के बाद मुस्लिम मतदाता क्या टीएमसी की तरह ही रहते हैं या फिर इस नए गठबंधन का हिस्सा बनते हैं? वर्तमान में देखे तो बंगाल चुनाव अपने दिलचस्प मोड़ पर है। रोज नए नए समीकरण बन रहे है और वोटरों को साधने के नए-नए तरीके आजमाए जा रहे है।