By आशीष वशिष्ठ | Jun 23, 2017
पहले देश के छोटे−बड़े शहरों और गांवों में दर्जनों तालाब हुआ करते थे। वर्तमान में देश के अधिकांश तालाब खत्म होने की कगार पर हैं। या तो वो सूख चुके हैं या उन पर गगन चुम्बी इमारतें बन गयी हैं। तालाबों की हत्या की जा रहीं हैं। तालाब चीख रहे हैं लेकिन उनकी सुनने वाले जिम्मेदार विकास की बेतुकी इबारत पढ़ाने पर अमादा हैं। भू−वैज्ञानिक तालाबों और छोटी−छोटी नदियों के संरक्षण का सुझाव देते रहे हैं। चिंतित न्यायालय अलग−अलग प्रकरणों में सरकार को जल संरक्षण से संबंधित कड़े दिशा−निर्देश देता रहा है। सरकार अपनी उपलब्धियां हर कार्यक्रम में गिनाने पर तुली रहती है लेकिन समाप्त हो रहे तालाबों पर किसी का ध्यान नहीं जाता। हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल और जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार हैं, लेकिन बड़े बांधों के निर्माण की होड़ ने हमारी उस महान परंपरा को नष्ट कर दिया।
1950 में भारत के कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई तालाबों से की जाती थी। ये तालाब सिंचाई के साथ−साथ भू−गर्भ के जलस्तर को भी बनाए रखते थे, इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। सूदूर भूतकाल में तो 8 प्रतिशत से अधिक सिंचाई तालाबों से ही होती थी। तालाबों में पाए गए शिलालेख इसके जीते−जागते प्रमाण हैं। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना का अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षड़यंत्र रचा था, उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा है और वर्तमान, जनविरोधी, ग्राम−गुलामी की सिंचाई योजना को तेजी से लागू किया है।
देश की परम्परा और संस्कृति का हिस्सा माने जाने वाले तालाबों पर जगह−जगह कब्जे हो चुके हैं। पुराने समय में इन जोहड़ भूजल स्तर बनाए रखने और गांवों के पशुओं की प्यास बुझाने के साथ−साथ पानी की जरूरत को पूरा करते थे। लेकिन समय के साथ इन तालाबों का अस्तित्व खत्म हो चुका है। गांवों में तालाबों पर कब्जे हो चुके हैं। उनका दायरा घट गया है। पानी की कमी के कारण ज्यादातर तालाब सूख चुके हैं। स्वतंत्रता के बाद नए तालाब खुदवाने की बात तो दूर पुराने तालाबों की देखभाल करने में बहुत उपेक्षा बरती गई। तालाबों के जरिए ही प्राकृतिक रूप से वाटर हार्वेस्टिंग होता था। तालाबों को बचाने पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। जमीन कारोबार से जुड़े लोगों और भूमाफियाओं की मिलीभगत से देश के लाखों तालाबों का अस्तित्व समाप्त हो गया है। उनकी जगह आज काम्पलेक्स व कालोनी नजर आ रही हैं।
किसी जमाने में तालाब गांव या शहर की पहचान होते थे। वर्ष भर इनसे लोगों को पशुओं के लिए पानी उपलब्ध होता है वहीं इनके किनारे पेड़ों की खूब हरियाली होती। लेकिन समय के साथ इन तालाबों का अस्तित्व खत्म होता गया है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भू−माफियाओं की गुंडई का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि साल पहले तक लखनऊ में 12653 तालाब, पोखर और कुएं थे लेकिन भू−माफियाओं और बिल्डरों ने करीब चार हजार हजार तालाबों को पाट दिया है। जबकि 2034 तालाबों, पोखरों व झीलों पर अवैध कब्जे हैं। अगर यूपी की बात करें तो इलाहाबाद में 137601 तालाब, गोरखपुर में 3971 तालाब, बस्ती में 3831 तालाब, कानपुर में 3771 तालाब, विंध्याचल में 3281 तालाब, आजमगढ़ में 105351 तालाब, सहारनपुर में 68581 तालाब, फैजाबाद में 52791 तालाब, लखनऊ में 12653 तालाब, मेरठ में 18531 तालाब, देवीपाटन में 11311 तालाब, चित्रकूट में 4591 तालाब, बरेली में 4561 तालाब, मुरादाबाद में 4051 तालाब, अलीगढ़ में 2011 तालाब, वाराणसी में 1611 तालाब और आगरा में 59 तालाब अवैध कब्जे के कारण मिट चुके हैं। यही तालाब शहर को बाढ़ से बचाते थे। बरसात के वक्त पानी इनमें जमा हो जाता था, जिससे सड़कों पर जलभराव नहीं होता था।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में तालाबों को बचाने पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। सरोवर धरोहर योजना सरकार संचालित कर रही है ताकि पेयजल संकट से बचा जा सके। रायपुर को तालाबों की नगरी कहा जाता था। यहां 227 तालाब थे। शासन−प्रशासन ने इन्हें सहेजने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसका परिणाम यह हुआ कि रायपुर के 53 तालाब सूख गए या भूमाफियाओं की भेंट चढ़ गए। अब केवल 175 तालाब हैं। जिससे आज पेयजल व निस्तारी के लिए हाहाकार मचा है, आज भी सड़क चौड़ीकरण व सार्वजनिक उपयोग के नाम पर कई तालाबों को खत्म करने की साजिश रची जा रही है। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश है, तालाबों पर अतिक्रमण किसी भी स्थिति में नहीं होना चाहिए।
झारखंड की राजधानी रांची समेत कई जिले में मौजूद तालाब अब सूखने लगे हैं। पूरे सूबे में 50 फीसदी से अधिक तालाब विलुप्त हो चुके हैं। करीब 30 फीसदी तालाब गायब होने के कगार पर हैं। तालाबों के विलुप्त होने से जलस्तर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। शहरों और कस्बों का हाल बुरा हो गया है।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का केवल अंडरग्राउंड वॉटर ही प्रदूषित नहीं हुआ है बल्कि यहां का बड़ा तालाब भी इससे अछूता नहीं है। करबला के नजदीक अहमदाबाद पंप हाउस परिसर में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से होता हुआ सीवेज वॉटर बड़े तालाब में मिल रहा है। इस संबंध में एनजीटी के निर्देशों के बाद भी इसको सीवेज से मुक्त नहीं किया जा सका है। इसी तरह से शहर का छोटा तालाब, सारंगपाणी, शाहपुरा झील भी पूरी तरह से प्रदूषित हो चुकी है। ऐसे में यहां झील ही बर्बाद हो रही हैं।
उत्तर प्रदेश में गंगा और दर्जनों नदियों वाला जिला बिजनौर लगातार जल संकट की ओर बढ़ रहा है। उत्तराखंड से निकलते ही गंगा बिजनौर जिले में प्रवेश करती है। गंगा के अलावा रामगंगा, मालन, गांगन, खो, गूलाह, बान समेत दर्जन भर नदियां और नाले बिजनौर से होकर बहते हैं। नदियों की भरमार के बावजूद जनपद में भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
बिजनौर के जलीलपुर, बुढ़नपुर, नूरपुर और नहटौर ब्लाक क्षेत्र डार्क जोन में हैं। यानि इन क्षेत्रों में भूजल का दोहन रीचार्ज से ज्यादा है। हम लगातार भूमि से पानी का दोहन कर रहे हैं लेकिन इसके मुकाबले बहुत कम पानी जमीन में जा रहा है। इसके अलावा कुछ और ब्लाक भी डार्क जोन होने की कगार पर हैं। जिले में भूजल संरक्षण के प्राकृतिक जल स्त्रोत तालाब खत्म होते जा रहे हैं। जिले में तालाब, पोखरों और झीलों की स्थिति पर गौर करें तो कभी जब जनपद की आधार खतौनी बनी थी उस समय इनकी संख्या 23 हजार 795 थी और इनका दायरा लगभग 31 हजार 538 हेक्टेयर में फैला हुआ था, लेकिन इनमें से करीब तीन हजार तालाबों पर अब भी कब्जा है और बाकी का क्षेत्रफल काफी सिमट गया है। इसके अलावा गंगा और रामगंगा के दोआब क्षेत्र में बसे बिजनौर जिले में इन दोनों नदियों के अलावा करीब एक दर्जन बरसाती नदियां जिले से होकर बहती हैं लेकिन इनके भी कंठ पूरी तरह सूखे हुए हैं।
तेजी से गिरता भूजल स्तर विश्व की चिंता का विषय बना हुआ है। भारत में भी स्थिति दुरुह होती जा रही है। ऐसे में भूजल संरक्षण और संवर्धन के प्रति आम आदमी कितना गंभीर है, यह महत्वपूर्ण है। अब सरकार को कोसने का वक्त गया। सनातन धर्म में पवित्र विवाह बंधन के दौरान कुओं, तालाबों और नदी जैसे प्राकृतिक जलस्त्रोतों का पूजन कराया जाता है। जीवन के दूसरे अध्याय की शुरुआत में बता दिया जाता है कि जल के प्राकृतिक स्त्रोत हमारे जीवन के लिए कितना महत्व रखते हैं, मगर हमने ऐसे जलस्त्रोतों पर ही कब्जा कर लिया। कुओं को दफन कर दिया और तालाबों पर अंट्टालिकाएं खड़ी हो गईं। नदी क्षेत्रों में भी भवनों की श्रृंखला तन गईं। वहीं शहर के मकानों में जल संरक्षण के बाबत कोई इंतजाम नहीं और न ही लोगों को इसके प्रति जागरूक करने का कोई सरकारी प्रयास ही किया गया। सिर्फ सरकारी भवनों में जल संरक्षण का इंतजाम कर औपचारिकता पूरी कर ली गई।
हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल व जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार होते हैं। जल के प्रति एक विशेष प्रकार की चेतना और उपयोग करने की समझ उनकी थी। इस चेतना के कारण ही गांव के संगठन की सूझ−बूझ से गांव के सारे पानी को विधिवत उपयोग में लेने के लिए तालाब बनाए जाते थे। इन तालाबों से अकाल के समय भी पानी मिल जाता था। जैसा कि गांवों की व्यवस्था से संबंधित अन्य बातों में होता था, उसी तरह तालाब के निर्माण व रख−रखाव के लिए भी गाँववासी अपनी ग्राम सभा में सर्वसम्मति से कुछ कानून बनाते थे। ये कानून 'गंवई दस्तूर' कहलाते थे। ये दस्तूर 'गंवई बही' में लिखे जाते थे, या मौखिक परंपरा के जरिए पीढ़ी−दर−पीढ़ी चले जाते थे।
वर्तमान में हम इसलिए जल संकट से जूझ रहे हैं क्योंकि हम हमारी समृद्ध पारंपरिक जल संरक्षण तकनीकों से कट गए हैं। इन प्राचीन तकनीकों को प्रयोग कर हम आबादी के 70 प्रतिशत भाग को जल संकट से बचा सकते हैं। तकनीक के अभाव में हम पेयजल का उपयोग ही हर कार्य के लिए कर रहे हैं। चाहे वह भवन निर्माण हो या फिर पशुओं या वाहनों को साफ करने के लिए। सीआईआई जैसे संगठन इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हो गए हैं और विजन 2022 लेकर चल रहे हैं। विशिष्ट बात यह भी है कि 'जोहड' जैसे प्राचीन स्रोतों के पुनरुद्धार से 33 प्रतिशत वन क्षेत्र में इजाफा भी हुआ है। अलवर इसका उदाहरण है।
देश में गंभीर होती जल समस्या और तेजी से गिरते जल स्तर की समस्या के मद्देनजर केंद्र और प्रदेश सरकारों को जल संरक्षण के लिए पोखरों और तालाबों का संरक्षण और समुचित व्यवस्था करनी होगी। वहीं नागरिकों को जल के महत्व को समझते हुए, इसके व्यर्थ इस्तेमाल से बचने तथा वर्षा जल के संचयन व प्रयोग को प्रमुखता देनी होगी। सीतामढ़ी और नादेंड में सोक पिट बनाने की सफलता के पीछे जनभागीदारी ने बड़ी भूमिका निभाई है। सरकार के साथ नागरिकों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
- आशीष वशिष्ठ