Gyan Ganga: एक दूसरे से मिलने के लिए क्यों बहुत आतुर थे हनुमानजी और विभीषण ?

By सुखी भारती | Dec 16, 2021

श्रीराम जी को आश्चर्य तो होना ही था। भला लंका नगरी में ऐसे मंदिर की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी, कि जहाँ मदिरा की नदियां बहती हों, वहाँ अचानक से गंगा जी का प्रवाह बहता दिखाई दे रहा था। ऐसे मतिभ्रम करने वाले कार्य, भला लंका नगरी में नहीं होंगे, तो भला और कहाँ होंगे। श्रीहनुमान जी सोचने लगे, कि अवश्य ही रावण ने मुझे फँसाने के लिए यह प्रपँच रचा है। लेकिन फिर श्रीहनुमान जी सोचने लगे, कि अगर यह स्थान माया द्वारा रचित व प्रेरित होता, तो निश्चित ही मुझे श्रीराम जी की कृपा से ऐसी नकारात्मक तरंगों का पूर्वाभास अवश्य हो जाता। लेकिन ऐसी कोई अनुभूति तो मुझे हुई ही नहीं। उल्टे मेरा हृदय तो हर्ष से अभिभूत महसूस कर रहा है। रोम-रोम में एक अद्भुत उत्साह-सा उमड़ता प्रतीत हो रहा है। मानों लाखों की पराई भीड़ में कोई अपना मिल गया है। यूँ लग रहा है, कि यही तो वह भाई है, जो अपने श्रीराम रूपी पिता से, मेरी ही भाँति बिछुड़ा हुआ है। चिर काल के पश्चात ही सही, लेकिन जैसे मुझे श्रीराम जी ने अपनाने की कृपा कर दी है, ठीक वैसे ही लगता है, कि इस महल में बसने वाले सज्जन का भी वह शुभ आ पहुँचा है, जब श्रीराम जी इन्हें भी अपनी पावन गोद प्रदान करेंगे। लंका जैसी कीचड़ में ऐसा साधु का होना, वैसे तो असंभव-सा था। लेकिन श्रीहनुमान जी ने सोचा कि कीचड़ में अगर कमल का सुंदर पुष्प खिल सकता है, तो लंका नगरी में भला साधु का निवास क्यों नहीं हो सकता-

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‘लंका निसिचर निकर निवासा।

इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।

मन महुँ तरक करैं कपि लागा।

तेहीं समय बिभीषनु जागा।।’


श्रीहनुमान जी के अंतःकरण में ऐसा चिंतन चल ही रहा था, कि उसी समय विभीषण जी जाग गए। पहला पहर है, राक्षसी प्रभाव समाप्त होने को है, श्रीहनुमान जी हरि मंदिर के बाहर खड़े हैं। ऐसे समीकरण जहाँ हों, भला वहाँ भी कोई सोया रह सकता है? मानो विभीषण जी के साथ भी ऐसा ही हुआ, वे जाग गए। और जागते ही जिन शब्दों का उच्चारण करते हैं, वे थे ‘राम-राम’। जैसे ही विभीषण जी ने राम-राम उच्चारण किया, तो श्रीहनुमान जी के हृदय में अतिअंत हर्ष उठा, कि अब तो शत-प्रतिशत निश्चित हो गया, कि यहाँ किसी सज्जन साधु का ही निवास है। क्योंकि उस उच्चारण में माया का प्रभाव भी नहीं था। वैसे भी कोई माया का वेश ओढ़कर, अगर राम-राम जैसा पावन शब्द बोले भी, तो इतना बोलने से माया का प्रभाव तो वैसे भी नहीं पड़ता। सबसे बड़ी बात, कि श्रीहनुमान जी जैसा बैरागी साधु का मन, अगर किसी की तरफ आकर्षित हुआ है, तो समझो कि वह कोई श्रीराम जी का ही सेवक है। ऐसा प्रभु का प्रेमी लंका नगरी में भी मिल जायेगा, इसकी तो श्रीहनुमान जी को स्वप्न में भी ज्ञान नहीं था। और यहाँ अचानक ही किसी प्रेमी का मिल जाना, मानो श्रीहनुमान जी के हाथ कोई खजाना ही लग गया हो। श्रीहनुमान जी इसलिए प्रसन्न नहीं थे, कि श्रीविभीषण जी उन्हें कोई बाहरी लाभ देंगे। अपितु वे इसलिए प्रसन्न थे, क्योंकि प्रभु भक्त के साथ जब कोई अन्य प्रभु का प्रेमी मिलता है, तो उनके मध्य प्रभु की ऐसी मीठी वार्ता होती है, कि गुड़ चाश्नी की मिठास भी उसके आगल फीकी प्रतीत होती है। श्रीहनुमान जी जैसे परम भक्त तो ऐसे मौके प्रत्येक क्षण ढूँढ़ते ही रहते हैं, कि जिस पल उन्हें प्रभु की कथा सुनाने वाला कोई प्रेमी मिल जाए तो फिर उसकी खुशी का कहना ही क्या? कबीर साहिब ने भी इसी निमित लिखा है-


प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरां, प्रेमी न मिलआ कोए।

प्रेमी से प्रेमी मिले, गुरु भक्ति दृढ़ होए।।

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संसार में तो आपने देखा होगा, कि सांसारिक व्यक्ति जब किसी दूसरे सांसारिक व्यक्ति से मिलता है, तो केवल संसार के रिश्ते, धन-वैभव व मान अपमान की ही चर्चा करता है। वहाँ कोई प्रभु की महिमा नहीं होती। जिसका परिणाम यह होता है, कि माया में धँसा व्यक्ति, माया में और गहरा धँसता जाता है। उसके पतन की संभावनाएँ और परिपक्व हो जाती हैं। वहीं अगर वहाँ कोई प्रभु के प्रेमी मिलते हैं, तो वे आपस में माया की नहीं, अपितु मायापति की चर्चा करते हैं। जिससे जीव के बँधन बँधते नहीं, अपितु कटते हैं। दुर्भाग्य है कि जीव जीवन पर्यन्त वही कर्म करता है, जिससे उसके बँधन कटते नहीं, अपितु और ठोस व गहरे होते जाते हैं। ऐसे माया से सने मोही जीवों को अगर कोई प्रभु चर्चा सुनाने वाला मिल भी जाए, तो उन्हें वह चर्चा में रस थोड़ी न आता है। अपितु वे प्रभु के गान से प्रसन्न होने की बजाए, चिढ़ने लगते हैं। उनकी स्थिति ऐसे व्यक्ति की भाँति हो जाती है, जिसे बड़ा भारी ज्वर हो, और उसके समक्ष छप्पन प्रकार के व्यंजन रखकर कहा जाए, कि कृप्या आप इन व्यंजनों को ग्रहण करें। आप ही बताइये, ऐसे भारी ज्वर में क्या किसी को स्वादिष्ट से भी स्वादिष्ट भोजन में रस आता है क्या? नहीं न? बस ठीक इसी प्रकार प्रभु से विमुख को भी प्रभु के रसगान में अपने पिछले पापों के प्रभाव से रस नहीं आता। महापुरुषों ने कहा भी है-


तुलसी पिछले पाप से हरि चर्चा न सुहाए।

जैसे ज्वर के ताप से भूख विदा हो जाए।।


श्रीहनुमान जी विभीषण जी से मिलने के लिए व्यग्र हैं। तो क्या सुखद परिणाम निकलते हैं, दोनों श्रीराम भक्तों का मिलन होता है। जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम।


-सुखी भारती

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