By सुखी भारती | Sep 14, 2021
तपस्विनी स्वयंप्रभा वानरों के लिए प्रभु श्रीराम जी की भेजी एक दूत ही थीं। जिससे हमें संदेश मिलता है कि जीवन के किसी पड़ाव में भले ही हम कितने भी निराश व उदास क्यों न हों। हम व्याधियों के घने वनों में भी, क्यों न फंसे बैठे हों, लेकिन प्रभु ऐसे में भी हमें रास्ता दिखाते हैं। और यहां वानरों के लिए भी प्रभु ने इतने भयानक वन के भीतर भी मार्ग दिखाने के लिए तपस्विनी स्वयंप्रभा को ला खड़ा कर दिया था। तपस्विनी स्वयंप्रभा ने जब देखा कि सभी वानरों का एक ही प्रयास है कि हम केवल शरीरक परिश्रम से ही माता सीता को पा लेंगे। हम यहाँ तहाँ अपनी दूर दृष्टि से माता सीता जी की खोज कर लेंगे। तो तपस्विनी स्वयंप्रभा ने सोचा कि चलो, ठीक है, उनके प्रयास में निश्चित ही संकल्प की चाश्नी मिली हुई है। लेकिन श्रीसीता जी भी, श्रीराम जी की ही भाँति मात्र शरीर थोड़ी न हैं। जिन्हें पाने के लिए मानव इन्द्रियों के प्रयास ही काफी हैं। इन दो चर्म चक्षुओं का क्या है? यह तो संसार की माया तक को देखने में भी असमर्थ सिद्ध होती हैं, फिर भला मायापति को देखने में यह कितनी क्या सार्थक होंगी। इसलिए इन वानरों को अगर वास्तव में सही मार्ग चाहिए, तो सर्वप्रथम इन्हें इन बाहरी दो नेत्रें का प्रयोग बंद करना पड़ेगा। तब तनस्विनी स्वयंप्रभा ने वानरों से कहा, कि हे प्रिय वानरों! निःसंदेह आपके प्रयास प्रशंसनीय हैं। लेकिन आपके प्रयासों को पंख तभी लगेंगे, जब आप अपने नेत्र बंद करेंगे-‘मूदहु नयन बिबर तजि जाहू।।’ और नेत्र बंद करके ही आपको इस गुफा से बाहर आना होगा। एक बार तो वानरों को भी लगा, कि भई यह क्या बात कही जा रही है? कुछ देखना है, तो आँखें तो खुली ही रखनी होगी न? भला आँखें बंद करके भी किसी को कुछ दिखा है क्या? वानरों के मन में फन उठा रहे यह प्रश्नों को तपस्विनी स्वयंप्रभा ने भांप लिआ। और तपस्विनी स्वयंप्रभा ने तुरंत कहा-‘पैहहु सीतहि जनि पछिताहू।।’ अर्थात तुम सचमुच ही श्रीसीता जी को पायोगे। मन में तनिक भी पछतावा अथवा निराश मत हो। वानरों के मन में संघर्ष अपना घमासान मचाये हुए था। उन्हें यही विश्वास नहीं हो पा रहा था, कि भला आँखें बंद करके कोई मार्ग कैसे ढूंढा जा सकता है। लेकिन फिर वानरों के मन में यह मंथन भी चल रहा था, कि तपस्विनी स्वयंप्रभा के सान्निध्य में आकर हमने एक से एक हत्प्रभ करने वाले दृश्य देखे हैं। जो निश्चित ही विश्वास करने के योग्य नहीं थे। हो सकता है कि अगली क्रिया भी इसी का ही एक अंग हो। तब सभी ने अपने-अपने नेत्र मूंद लिए। नेत्र मूंदने के पश्चात् जब सबने अपनी आंखें खोली तो सच में आश्चर्यचकित करने वाली घटना घटी। समस्त वानर गुफा में हैं ही नहीं। वहाँ से वे सब गायब हो चुके हैं। और सब के सब एक सागर के तट पर पहुंच चुके हैं-
‘नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा।
ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा।।’
यहाँ जिधर देखो, बस पानी ही पानी है। अनंत सागर का कोई ओर-छोर ही प्रतीत नहीं हो रहा। पीछे वन हैं, और आगे सागर। और तपस्विनी स्वयंप्रभा ने जो कहा था, कि मार्ग मिल जायेगा, तो वर्तमान दृश्य तो दर्शा रहा है कि यहाँ तो रास्ता होने की संभावना भी शून्य हो चुकी प्रतीत हो रही है। कारण कि आगे समुद्र और पीछे वन है। और बीच में फँसे हैं हम। तपस्विनी स्वयंप्रभा जी ने हमारे साथ यह उपहास आखिर क्यों किया। श्रीसीता जी को पाने का मार्ग अगर ऐसा है, तो इससे अच्छे मार्ग से तो पहले हम ही ढूंढ रहे थे। कम से कम उस समय एक ही अँधा मार्ग था, अर्थात केवल वन थे। और अब तो साथ सागर का महां अँधा मार्ग भी मुख फाड़े खड़ा है। वनों में तो फिर भी हम पैदल चलकर कहीं पहुँच तो जाया करते थे। भला सागर में हम कहाँ से क्या मार्ग खोजने की चाहना कर सकते हैं। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि हम बुरी तरह से घिर चुके हैं-
‘इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं।
बीती अवधि काज कछु नाहीं।।
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता।
बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता।।’
वानर आपस में बात कर रहे हैं, कि अब तो श्रीसीता जी को पाने की अवधि भी बीत गई समझो, और काम कुछ हुआ नहीं। और बिना श्रीसीता जी की खबर लिए वापिस जाने का भी लाभ कुछ दिखाई नहीं दे रहा।
‘कह अंगद लोचन भरि बारी।
दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी।।
इहाँ न सुधि सीता कै पाई।
उहाँ गएँ मारिहि कपिराई।।’
वीर अंगद तो और निराशा से भरे स्वर कह रहे हैं। उनके नेत्रों में जल भरा हुआ है। और कह रहे हैं कि हमारी तो दोनों ही प्रकार से मृत्यु निश्चित है। यहाँ तो माता सीता की सुधि नहीं मिली। और वहाँ जाने पर वानरराज सुग्रीव हमें मार डालेंगे।
श्रीरामचरितमानस में प्रभु महिमा में लिखे यह प्रसंग, हमारे दैनिक जीवन की समस्यों के कितने स्पष्ट दर्पण हैं। क्योंकि हम भी अपने जीवन काल में जब कभी कोई उत्कृष्ट अभियान पर निकलते हैं। तो उस समय हमारा उत्साह, संक्लप व लक्ष्य पाने की भूख देखते ही बनती है। निश्चित ही ऐसे अभियान हम तभी आरम्भ करते हैं, जब हम जीवन को श्रेष्ठ स्थान पर ले जाना चाह रहे होते हैं। और ऐसे अभियान अथवा यात्र का श्रीगणेश हम तभी करते हैं, जब हम इस अभियान के समस्त सफल व असफल परिणामों से अवगत होते हैं। और हम यह मान कर चलते हैं, कि हमारे इस अभियान में अस्सी प्रतिशत सफलता के पूर्ण आसार हैं, और मात्र बीस प्रतिशत संभावना हानि की होती है। लेकिन यहाँ वानरों ने जिस समय माता सीता जी को खोजने का संकल्प लिया था, तो उस समय उन्होंने अपनी सफलता को सौ प्रतिशत के पलड़े में ही रखा था। और असफलता तो वे लेकर ही नहीं चले थे। लेकिन वर्तमान में परिस्थितियां तो पूर्णतः ही विपरीत थीं। असफलता का प्रतिशत सौ को छू चुका था। और सफलता शून्य के पलड़े में गोते खा रही थी। और उच्च व श्रेष्ठ जीवन के खोजी वानर, मृत्यु द्वार पर पहुँचने की बातें कर रहे थे। ऐवरेस्ट चोटी फतह करने की बड़े-बड़े दावे, किसी गहरी खाई में लुढ़कते नजर आ रहे थे। बहार की सुहानी ऋतु, पतझड़ में पलट चुकी थी। आँखों के आशावादी स्वपन, निराशा के अंधकार में कहीं खो चुके थे। कदमों की गति ऐसे रुक गई थी, मानों वे पर्वत की भांति अचल हो गए हों।
क्या वानरों को यूं ही निराशा घेरे रहती है, अथवा उन्हें कोई सुंदर दिशा भी दिखाई देती है। जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः) ...जय श्रीराम!
-सुखी भारती