रावण ने विचार किया कि मेरे समक्ष तो महाबलि बालि का पुत्र खड़ा है। वही बालि, जिसने मुझे संपूर्ण विश्व में अपनी काँख में दबाकर घुमाया था। लेकिन समस्या तो यह थी कि बालि ने तो मुझे अभय दान दे रखा था। परन्तु उसका पुत्र तो, मेरे ही शत्रु का दूत बनकर आन पहुँचा है। जो कि स्वभाविक दृष्टिकोण से, मेरा भी शत्रु ही है। अगर वह मेरा शत्रु न होता, तो लंका प्रवेश करते ही, मेरे पुत्र को भला क्यों मारता? निःसंदेह इसकी मंशा तो मेरा अहित करना ही है। तो क्यों न मैं इस दुष्ट वानर को यहीं भरी सभा में मृत्यु दण्ड दे दूँ?
रावण भले ही वीर अंगद के वध की योजना पर चिंतन कर रहा हो। लेकिन उसे भी यह ज्ञात था, कि अंगद अगर, बालि का अंश है, तो बालि के गुण तो उसमें निश्चित ही विद्यमान होंगे ही। संपूर्ण बल तो छोड़िए, अपने पिता बालि का, अगर लेष मात्र भी बल, इस वानर में हुआ, तो यह वानर निश्चित ही, संपूर्ण लंका का काल सिद्ध होगा। पहले वाला वानर तो फिर भी लंका को अग्नि की भेंट चढ़ा कर वापिस चला गया। लेकिन यह अंगद नामक वानर तो इतना बलशाली प्रतीत हो रहा है, कि मानो वह दोनों हाथों के मध्य, मसल कर ही लंका को पीस देगा। कारण कि बालि का अतुलनीय व अकथनीय बल, अपने इस पुत्र की भुजाओं में, बाहर तक छलक रहा है। ऐसे में निश्चित ही इस आफत की पुड़िया को हाथ लगाना उचित नहीं है। तो क्यों न मैं इसे भेद नीति के माध्यम से ही पराजित करने का प्रयास करूँ। इसके हृदय में, उस वनवासी राम के प्रति क्यों न मैं कटु भाव भर दूं? यह सोच कर रावण, वीर अंगद को संबोधित करता हुआ कहता है-
‘अंगद तहीं बालि कर बालक।
उपजेहु बंस अनल कुल घातक।।
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु।
निज मुख तापस दूत कहायहु।।’
रावण ने कम शब्दों में अधिक से अधिक विष घोलने का प्रयास किया। रावण ने बड़े सजा सँवार कर कहा, कि अरे अंगद! क्या तू सच में बालि का पुत्र है? विश्वास नहीं होता, कि इतने महान पिता का पुत्र, इतना बड़ा कुलनाशक हो सकता है? निश्चित ही तुम अपने कुलरूपी बाँस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुए हो। तुमने संसार में जन्म लेकर क्या ही उखाड़ लिया है। इससे अच्छा तो यही होता, कि तुम पैदा होते ही नष्ट क्यों न हो गए? कम से कम तुम इन तपस्वियों के दूत कहलाने के पाप से तो वंचित रहते। लेकिन अब तो तुमने अपनी कुल को दाग लगा ही दिया है। पानी तो सिर से लाँघ ही चुका है। सो, अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।
रावण यह सौ प्रतिशत मान कर चल रहा था, कि वीर अंगद का जन्म पूर्णतः व्यर्थ है। रावण ने वीर अंगद को इतना कोसा, कि अगर वीर अंगद के स्थान पर कोई और होता, तो निश्चित ही अवसाद से पीड़ित हो जाता। उसे स्वयं से ग्लानि होने लगती। और रावण का लक्ष्य भी यही था, कि वह वीर अंगद के महान मनोबल को तोड़ डाले। लेकिन उसे क्या पता था, कि आसमां में कभी छेद नहीं होता, पानी कभी तलवार के प्रहार से दोफाड़ नहीं होता और अग्नि किसी भी प्रकार के मैल से अपावन नहीं होती। ठीक ऐसे ही, जिस भक्त के हृदय में श्रीराम जी का पावन वास हो, वे भक्त कभी किसी के बहकावे में नहीं आते। रावण को लगा, कि उसके भेद डालने वाले बाण, ठीक अपने निशाने पर लग रहे हैं।
रावण को जब ऐसा निश्चित प्रतीत हुआ, तो उसने एक और कुटिल व विषैला बाण छोड़ा-
‘अब कहु कुसल बालि कहँ अहई।
बिहिँसि बचन तब अंगद कहई।।’
रावण बोला, कि हे अंगद! अपने पिता की कुशल तो बता। आजकल वे कहाँ हैं?
कितने आश्चर्य की बात है, कि क्या रावण को बालि के वध की अभी तक सूचना ही नहीं थी क्या? यह समाचार तो तीनों लोकों के प्राणियों को ज्ञात था। फिर कैसे हो सकता था, कि रावण इस समाचार से अनभिज्ञ हो? निश्चित ही बालि वध का समाचार पता था। बस वह तो अपनी कुटिल चाल के मोहरे फेंकने में ही व्यस्त था।
रावण के प्रश्न पर तनिक चिंतन तो कीजिए। वह पहला प्रश्न ही इस भाव से करता है, कि वीर अंगद के हृदय को कष्ट हो। जी हाँ, रावण कहता है, कि हे अंगद अपने पिता की कुशल तो बता। जिसका सीधा-सा अर्थ था, कि निश्चित ही वीर अंगद को यह, कैसे भी यह अहसास हो, कि उसके पिता की कुशलता अब नहीं है। कारण कि उसका श्रीराम जी ने वध कर दिया है। रावण चाहता है, कि वीर अंगद को यह बात खलनी चाहिए, कि उसके पिता अब इस संसार में नहीं है। तभी तो रावण ने यह प्रश्न किया, कि बताओ तो तुम्हारे पिता आज कल कहाँ हैं?
वीर अंगद ने रावण की कुटिल चाल को भाँप लिया। और रावण को ऐसा उत्तर दिया, कि उसकी सात पुश्तों को भी यह उत्तर याद रहेंगे-
‘दिन दस गएँ बालि पहिं जाई।
बूझेहु कुसल सखा उर लाई।।’
वीर अंगद ने कहा, कि रावण अब मैं अपने मुख से अपने पिता की क्या कुशल कहुँ? क्यों न तुम स्वयं ही उनसे मिल कर उनकी कुशल पूछ लेना। लेकिन इसके लिए बस तुम्हें दस दिन की प्रतीक्षा करनी होगी। रावण ने कहा, कि दस दिन क्यों? अभी क्यों नहीं? क्या तुम्हारे पिता कुछ अधिक ही दूरी पर जा बिराजे हैं क्या? कहो तो मैं अपना पुष्पक विमान वहाँ ले चलूँ?
वीर अंगद ने कहा, कि हे मूर्ख रावण! अब मैं तुम्हें क्या बताऊँ, कि जहाँ मेरे पिता बालि का वास है, वहाँ पुष्पक विमान नहीं, बल्कि मर कर ही जाया जाता है। और वहाँ जाकर तुम स्वयं मेरे पिता बालि से पूछ लेना, कि उनकी कुशल कैसी है। इससे तुम्हें स्वयं ही प्रमाण हो जायेगा, कि श्रीराम जी से विरोध करने के पश्चात कैसी कुशल होती है-
‘राम बिरोध कुसल जसि होई।
सो सब तोहि सुनाइहि सोई।।
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें।
श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें।।’
और सुन रावण! यह प्रपंच जो तू रच रहा है न? उसे मैं भलि भांति जानता हूँ। तूं यही चाहता है न, कि मेरे हृदय में श्रीराम जी के प्रति शंका उत्पन्न हो जाये। तो सुन, तुम्हारी यह कामना, सातों जन्म तक भी पूर्ण नहीं हो पायेगी। कारण कि, जिस हृदय में श्रीराम जी का वास हो जाये, वहाँ स्वप्न में भी भेद उत्पन्न नहीं हो सकता। रावण ने देखा, कि मेरा तो यह दांव भी असफल हो गया। तो अब मैं क्या करूँ, कि मेरा कार्य सिद्ध हो जाये।
रावण अब कौन-सी कुटिल चाल चलता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती