Gyan Ganga: धृतराष्ट्र के मन में महाभारत युद्ध के परिणाम के प्रति शुरू में ही क्यों हो गया था संदेह?

By आरएन तिवारी | Jul 30, 2021

प्रभासाक्षी के सहृदय गीता प्रेमियों ! 


प्रेम की धारा बहती है जिस दिल में।

चर्चा उसकी होती है भगवान की महफिल में॥


आइए ! अब इस परम पुनीत गीता ज्ञानगंगा के समापन की ओर चलें। 


पिछले अंक में अर्जुन ने भगवान से कहा था- हे भगवान ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः अब आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा। अब, श्री कृष्ण और कुंती नन्दन अर्जुन का जो संवाद गीता के प्रथम अध्याय में प्रारम्भ हुआ था, वह अब यहाँ अठारहवे अध्याय के अंत में पूर्ण हो रहा है।

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गीता के प्रारम्भ में धृतराष्ट्र के मन में संदेह का सागर उमड़ रहा था कि न जाने इस युद्ध का परिणाम क्या होगा? इसलिए उन्होंने संजय से पूछा--- 


हे संजय! धर्म की भूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध करने की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे तथा पांडु के पुत्रों ने क्या किया? इस श्लोक में उसी सवाल का जवाब संजय दे रहे हैं---


संजय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ॥


संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं– हे राजन! मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्‍भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना जो कि अत्यंत अद्भुत और विलक्षण है। इस श्लोक में इति पद का तात्पर्य है कि पहले अध्याय के बीसवें श्लोक में अथ पद से संजय श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप गीता का आरंभ करते हैं और यहाँ इति पद से उस संवाद की समाप्ति करते हैं। 

 

अब संजय महर्षि वेदव्यास जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहते हैं- 


व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ ।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌॥


मैंने श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना। संजय के कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान के द्वारा कहे जाने के कारण यह गीताशास्त्र योगशास्त्र है। यह गीताशास्त्र अत्यंत श्रेष्ठ और गोपनीय है।  


राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌ ।

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥


धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए संजय कहते हैं--- हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्‍भुत संवाद को स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस संवाद  में जो तत्व भरा हुआ है, वह किसी ग्रंथ या शास्त्र में नहीं मिलता। यह गीता शास्त्र भगवान और उनके भक्त का बड़ा अद्भुत संवाद है। इसमें युद्ध जैसे घोर कर्म से भी कल्याण होने की बात कही गई है। 


तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।

विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥


हे राजन्‌! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम 'हरि' है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप (विराट स्वरूप) को भी पुन: पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ॥

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गीता के आरंभ में धृतराष्ट्र का यह गूढ़ प्रश्न था कि युद्ध का क्या परिणाम होगा? अर्थात मेरे पुत्रों को विजय हासिल होगी या पांडु पुत्रों की ? आगे के श्लोक में संजय धृतराष्ट्र के उसी प्रश्न्न का उत्तर देते हुए कहते हैं---


यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥


हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है। 


ॐतत्सदितिश्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां

योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो

नामाष्टादशोऽध्यायः॥


जय भगवद् गीते, जय भगवद् गीते ।

हरि-हिय-कमल-विहारिणि सुन्दर सुपुनीते ॥


कर्म-सुमर्म-प्रकाशिनि कामासक्तिहरा ।

तत्त्वज्ञान-विकाशिनि विद्या ब्रह्म परा ॥ जय ॥


निश्चल-भक्ति-विधायिनि निर्मल मलहारी ।

शरण-सहस्य-प्रदायिनि सब विधि सुखकारी ॥ जय ॥


राग-द्वेष-विदारिणि कारिणि मोद सदा ।

भव-भय-हारिणि तारिणि परमानन्दप्रदा ॥ जय॥


आसुर-भाव-विनाशिनि नाशिनि तम रजनी ।

दैवी सद् गुणदायिनि हरि-रसिका सजनी ॥ जय ॥


समता, त्याग सिखावनि, हरि-मुख की बानी ।

सकल शास्त्र की स्वामिनी श्रुतियों की रानी ॥ जय ॥


दया-सुधा बरसावनि, मातु ! कृपा कीजै ।

हरिपद-प्रेम दान कर अपनो कर लीजै ॥ जय ॥


श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु --------

जय श्रीकृष्ण----------


-आरएन तिवारी

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