उत्तर प्रदेश में पहले से ही मरणासन स्थिति में नजर आ रही कांग्रेस को आम चुनाव से पहले उसी की पार्टी के नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के एक बयान से जोर का झटका लगा है। कमलनाथ ने जैसे ही विवादास्पद टिप्पणी में यूपी−बिहार के लोगों को बाहरी करार दिया, उन्हें दिल्ली और यूपी के भाजपा नेताओं ने तो घेर ही लिया। समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के नेता भी कांग्रेस पर हमलावर हो गये। इसी के साथ यह भी तय हो गया कि कांग्रेस के लिये अब सपा−बसपा शायद ही गठबंधन के दरवाजे खोलें। यूपी की तरह बिहार से भी कांग्रेस के खिलाफ आवाज उठ रही है। राष्ट्रीय जनता दल नेता तेजस्वी यादव ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर कांग्रेस को चेता दिया है, जो हालात बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस को कम से कम उत्तर प्रदेश में तो अकेले अपने दम पर ही चुनाव जीतना होगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस को दरकिनार करके सपा−बसपा ने गठबंधन में सीटों का फार्मूला भी तय कर लिया है।
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गौरतलब है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शपथ ग्रहण करने के बाद मीडिया से रूबरू होते हुए कहा था कि मध्य प्रदेश के लोगों को पूरा रोजगार नहीं मिल पा रहा है क्योंकि बाहरी यानी बिहार और यूपी के लोग बड़ी संख्या में रोजगार पा जाते हैं। कांग्रेस का यह बयान उत्तर प्रदेश में दो सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस को एक बार फिर जबर्दस्त झटका दिला सकता है। सूत्र बताते हैं कि पांच राज्यों के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के बाद बसपा और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को गठबंधन में शामिल नहीं करने का बड़ा फैसला कर लिया था। इस पर कमलनाथ के बयान ने नमक−मिर्च छिड़कने का काम कर दिया। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में सपा−बसपा अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल को साथ लेकर बीजेपी को चुनौती देंगे। कहा तो यहां तक जाता है कि तीनों के बीच सीटों का फार्मूला भी तय हो गया है। बसपा जहां 38 सीटों पर वहीं सपा 37 और रालोद तीन सीटों पर चुनाव लड़ेगा। हाँ, सपा−बसपा कांग्रेस पर इतनी मेहरबानी जरूर करेंगे कि कांग्रेसी गढ़ माने जाने वाले रायबरेली और अमेठी संसदीय सीट पर बसपा−सपा अपना प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ाएंगे। सपा अपने कोटे की कुछ और सीटें भी व्यक्ति विशेष या छोटे दलों को दे सकती है।
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सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अब तक यही माना जाता रहा था कि मोदी से मुकाबला करने के लिए सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होंगी, लेकिन सूत्रों का कहना है कि बसपा और सपा ने कांग्रेस की महत्वाकांक्षा के चलते उसे हाशिये पर डाल दिया। फिलहाल सीटों के बंटवारे का जो फार्मूला तैयार लिया है उसके तहत 38 लोकसभा सीटों पर बसपा लड़ेगी और तीन सीटें बागपत, कैराना व मथुरा रालोद को दी जाएंगी। शेष 39 सीटों में सपा 37 पर जबकि दो सीटों- रायबरेली और अमेठी में गठबंधन का कोई प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ेगा। सूत्र बताते हैं कि सपा अपने कोटे में से कुछ सीटें व्यक्ति विशेष या अन्य छोटे दलों को दे सकती है।
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कौन-सी सीट किस सीट को मिलेगी इसका मोटा आधार पिछले चुनाव का नतीजा रहेगा। यानि दूसरे स्थान पर जो पार्टी रही है। उसे अन्य समीकरणों को देखते हुए प्राथमिकता पर वह सीट दी जाएगी ताकि ज्यादा से ज्यादा सीटों पर विजय हासिल की जा सके। बात सपा−बसपा के कांग्रेस से दूरी बनाने की कि जाये तो दोनों ही दलों के शीर्ष नेताओं के लगता है कि पड़ोसी राज्यों में सरकार बनाने के बाद कांग्रेस गठबंधन में ज्यादा सीटों पर दावेदारी करेगी तो पुराने अनुभवों कें आधार पर दोनों को लगता है कि कांग्रेस को साथ लेने से उन्हें फायदा नही होंगा क्योंकि उसके वोट सपा−बसपा को ट्रांसफर नहीं होते हैं, बल्कि भाजपा के खाते में चले जाते हैं।
उधर, डीमएके प्रमुख स्टालिन के राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की राय से अखिलेश यादव सहमत नहीं हैं। अखिलेश का कहना है कि अगर किसी ने उनका (राहुल) नाम उम्मीदवार के तौर पर लिया है तो जरूरी नहीं है कि संभावित गठबंधन के नेता भी ऐसी ही राय रखते हों। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व शरद पवार जैसे नेताओं ने भाजपा विरोधी दलों को एक साथ लाने के लिए काफी कोशिश की है।
-अजय कुमार