राजनीतिक दलों का काम क्या सिर्फ चुनाव लड़ना है? बाकी सब भाजपा की तरह सेवा क्यों नहीं कर रहे ?

By प्रभात झा | May 12, 2020

कोरोना महामारी का सामना करते हुए हमें 50 दिन से अधिक हो गए हैं। मानवता की सेवा में व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्था सभी अपने-अपने स्तर से लगे हुए हैं। मनुष्य होने के नाते सोचना हमारी स्वाभाविक प्रकृति है। मैं भी सोचता रहा हूं। संकट की इस घड़ी में, आज जब मैं भारतीय लोकतंत्र के बारे में सोचता हूं तो सहसा मेरे मन में आता है कि देश में विपक्ष की क्या स्थिति हो गई है! ऐसा इसलिए क्योंकि लोकतंत्र की सफलता के लिए विपक्ष की सबलता भी जरूरी है। पिछले वर्षों में विपक्षी दलों की स्थिति का जो सच सामने आया है, वह चिंताजनक है। आज विपक्ष का जो रवैया है, लोकतंत्र के लिए स्वस्थ्य नहीं है। एक तरफ जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार देश की जनता की सुरक्षा और सेवा के लिए मोर्चा संभाली हुई है, वहीं भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के नेतृत्व में पार्टी का संगठन लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं की बदौलत जन-जन तक पहुंच रहा है। सरकार और संगठन के समन्वय से कोरोना के खिलाफ जो युद्ध लड़ा जा रहा है, पूरा विश्व इसकी प्रसंशा कर रहा है। लोकतंत्र में दल की संगठनात्मक मजबूती जरूरी है, जो कार्यकर्ताओं से बनता है रिश्तेदारों से नहीं। यह मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मैं भारतीय जनता पार्टी का सदस्य हूं, बल्कि इसलिए कि मैं भारतीय लोकतंत्र के बारे में सोच रहा हूं। संकट की इस घड़ी में पूरा देश पक्ष और विपक्ष की भूमिका के बारे में सोच रहा है।

   

देश में आज 8 राष्ट्रीय, 53 क्षेत्रीय और 2044 गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं। ये 8 राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं: भारतीय जनता पार्टी (1980); भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885); भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (1925); मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (1964); बहुजन समाज पार्टी (1984); तृणमूल कांग्रेस पार्टी (1998) और नेशनल पीपल्स पार्टी (2013)। प्रमुख क्षेत्रीय दल हैं: द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (1949), शिव सेना (1966), झारखंड मुक्ति मोर्चा (1972), समाजवादी पार्टी (1992), राष्ट्रीय जनता दल (1997)। कोरोना माहामारी के संकट की इस घड़ी में ये राजनीतिक दल कहां हैं ? क्या इन राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की नजरों में लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव लड़ना और सत्ता में आना है?

 

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1885 से लेकर 2020 तक के लगभग 135 वर्षों तक के इतिहास में कांग्रेस की भूमिका को दो भागों में देखा जाना चाहिए। आज के कांग्रेसी कहते नहीं थकते कि कांग्रेस 100 वर्ष से अधिक पुरानी पार्टी है। कांग्रेस ने देश को आजादी दिलाई। उन्हें यह समझना होगा कि अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिलने के बाद महात्मा गांधी ने क्यों कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी। मोती लाल नेहरू से लेकर जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा तक कांग्रेस पार्टी को अगर देखा जाए तो किसी भारतीय के लिए समझना यह कठिन नहीं है कि कांग्रेस एक वंश की पार्टी है, देश की जनता से अधिक इन्हें अपने परिवार और कुनबे की चिंता है। यही कारण है कि छह दशक तक सत्ता में रहे वाली कांग्रेस आज देश की जनता की नजरों में अविश्वसनीय हो गई है। 2019 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन से व्यथित राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते हुए कहा था कि गांधी परिवार का कोई व्यक्ति अब कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनेगा। कुछ दिनों बाद ही सोनिया गांधी पुनः कांग्रेस अध्यक्ष बनीं।


कथनी और करनी में अंतर से विश्वसनीयता घटती है। राजनीतिक दल आत्मीयता से बनता है, संगठन ढांचा से बनता है, व्यवस्था से बनता है। कांग्रेस में इसका अभाव है। 30 सालों से कांग्रेस में संगठन का चुनाव तक नहीं हुआ है। जिस कांग्रेस ने छह दशक तक देश में शासन किया, उसने केवल गांधी परिवार की चिंता की, उनके एजेंडा में न कभी संगठन रहा, न कभी कार्यकर्ता, न कभी भारत रहा न कभी भारत की जनता। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो, व्यक्ति, वंश और परिवार आधारित सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनैतिक दलों की स्थिति यही रही है, चाहे बहुजन समाज पार्टी हो, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हो, तृणमूल कांग्रेस पार्टी हो, समाजवादी पार्टी हो, राष्ट्रीय जनता दल हो, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम हो या कोई अन्यान्य दल। यही कारण है कि ये सभी दल आज हाशिये पर हैं। जहां तक कम्युनिस्टों का सवाल है, उन्हें तो भारतीय राष्ट्र की अवधारणा से ही परहेज है। यही कारण है कि देश में कम्युनिस्टों के सभी गढ़ ढह गए हैं, चाहे पश्चिम बंगाल हो या त्रिपुरा। केवल केरल में बचा हुआ है। 

                 

संक्रमण के इस कठिन परीक्षा की घड़ी में, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व और संगठन ने जो कर दिखाया है, उस पर हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है। पार्टी नेतृत्व ने देश के कोने-कोने में स्थित कार्यकर्ताओं को मानवता की सेवा में स्वयं को समर्पित करने के लिए जागृति पैदा की है। भारतीय जनता पार्टी के प्रति लोगों में अलग भाव पैदा हुआ है। पार्टी जनपरीक्षा में डिस्टिंक्शन अर्थात् विशेष अंक के साथ उत्तीर्ण हुई है, वहीं शेष राजनीतिक दल ग्रेस अंक भी पाने में असफल हुए हैं। इस सफलता के पीछे तपस्वी नेताओं की श्रृंखला का नैतिक समर्थन है जो निश्चय ही मेरुदंड के रूप में कार्य करता है। अगर भारतीय जनता पार्टी भी अन्य राजनीतिक पार्टियों की तरह वंश, परिवार, व्यक्ति आधारित पार्टी होती, तो कोरोना महामारी संकट के इस काल में क्या होता? 

 

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भारतीय जनता पार्टी की स्थापना 6 अप्रैल 1980 को हुई थी, लेकिन 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना के साथ ही इसकी यात्रा आरंभ हो गई थी। जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री थे, जो सरदार पटेल के विचार और नीति से साम्यता रखते थे लेकिन जवाहर लाल नेहरू की नीति को राष्ट्र की मूल प्रकृति के विपरीत मानते थे। नेहरू-लियाकत समझौते के विरोध में उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और राजनीतिक दल बनाने का निश्चय किया। लेकिन जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के अधिनायकवादी रवैये के कारण डॉ. मुखर्जी को कश्मीर की जेल में डाल दिया गया, जहां उनकी रहस्यपूर्ण स्थिति में 23 जून 1953 को मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है। उनकी मृत्यु के पश्चात जनसंघ को सशक्त बनाने का कार्य पंडित दीनदयाल उपाध्याय के कंधों पर आया। भारत-चीन युद्ध में भी भारतीय जनसंघ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा राष्ट्रीय सुरक्षा पर नेहरू की नीतियों का डटकर विरोध किया। जनवरी 1954 के बंबई अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय ने अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, 'लोकतंत्र की सफलता के लिए हमें जनता को योग्य शिक्षा देनी होगी। एक हज़ार साल की गुलामी ने हमारे दृष्टिकोण को बिगाड़ दिया है। अंग्रेजी शिक्षा ने असत्य जीवन मूल्यों की स्थापना कर दी है जिसे दूर करना है। अपने लक्ष्य पर दृष्टि केंद्रित कर, आत्मविश्वास और निष्ठा के साथ हम आगे बढ़ें'। 

         

1967 में पहली बार भारतीय राजनीति पर लम्बे समय से बरकरार कांग्रेस का एकाधिकार टूटा, कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और संयुक्त सरकारों में जनसंघ भी सहभागी बना। जून 1975 में विपक्ष की आवाज को दबाने के लिए इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया। राष्ट्रहित में 1 मई, 1977 को भारतीय जनसंघ ने अपना विलय जनता पार्टी में कर दिया। उस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई। केंद्र में पहली बार गैर-कांग्रेसी व जनता पार्टी की सरकार बनी। लेकिन जनता पार्टी का प्रयोग अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। जनसंघ से जनता पार्टी में आये सदस्यों को अलग-थलग करने के लिए दोहरी-सदस्यता का मामला उठाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध रखने पर आपत्तियां उठायी जानी लगीं। यह कहा गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य रहते जनता पार्टी के सदस्य नहीं हो सकते। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमारी मातृसंस्था है इसे हम नहीं छोड़ सकते। जनता पार्टी से अलग होकर 6 अप्रैल, 1980 को एक नये संगठन की घोषणा की गई। भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई। अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी के प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित हुए।


भले ही जनसंघ ने अपना दीया बुझा दिया पर धीरे-धीरे कमल खिलता गया। भारतीय जनता पार्टी ने साबित किया कि संगठन की ताकत क्या होती है। 2 लोकसभा सीटों वाली पार्टी आज 303 सीटों के साथ केंद्र में दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ सरकार चला रही है। संगठन की ताकत के बल पर ही आडवाणी जी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा की। भले ही बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव ने रथ के पहिया को रोक लिया, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के संगठन का पहिया नहीं रुका। पहली बार केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार 1996 में बनी थी, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। बाद में दो बार और 1998 और 1999 में वे प्रधानमंत्री बने।

    

भारतीय लोकतंत्र में आम तौर पर राजनैतिक दलों में देखा गया है कि लोगों के लिए राजनीतिक मोह से बाहर आना मुश्किल होता है। इस मामले में अटल जी ने जो मिसाल प्रस्तुत की, अन्यत्र दुर्लभ है। जब वे बीमार रहने लगे तो उन्होंने यह कहते हुए कार्य छोड़ दिया कि 'मैं बीमार हूं, पार्टी को बीमार नहीं होने दूंगा'। उन आदर्शों का फल ही है कि 10 सालों तक विपक्ष में रहने के बाद 2014 में भारतीय जनता पार्टी को पहली बार लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिला और नरेंद्र मोदी के रूप में एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला जिन्होंने देश की दिशा और दशा बदल दी। जहां तक संगठन का प्रश्न है अमित शाह के रूप में भारतीय जनता पार्टी को एक ऐसा राष्ट्रीय अध्यक्ष मिला जिन्होंने लगभग 11 करोड़ की सदस्य्ता के साथ पार्टी को विश्व का सबसे बड़ा राजनैतिक दल बनाया। कार्यकर्ता, कार्यक्रम, कार्यकारिणी, कोष और कार्यालय के मूलमंत्र के साथ उनके नेतृत्व में सामूहिकता के साथ पार्टी ने युगांतकारी कदम आगे बढ़ाया। 

         

सरकार और संगठन के समन्वय से अन्त्योदय, सुशासन, विकास एवं समृद्धि के रास्ते पर देश तेजी से आगे बढ़ने लगा। जनविश्वास 2019 में प्रतिफलित हुआ, नरेन्द्र मोदी पहले से अधिक बहुमत के साथ देश के पुनः प्रधानमंत्री बने। जगत प्रकाश नड्डा अभी नए-नए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हैं। लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी के 17 करोड़ कार्यकर्ताओं ने कोरोना महामारी से महायुद्ध के इस दौर में साबित किया है कि इस महायुद्ध में सरकार के साथ-साथ राजनीतिक दल का संगठन भी कदम से कदम मिलाकर लड़ाई लड़ सकता है। कार्यकर्ता की ताकत के बल पर विषम से विषम परिस्थिति से देश को बचाया जा सकता है। यही सात्विक और आध्यात्मिक संगठन शक्ति है।

 

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इतिहास पर नजर डालता हूं तो पाता हूं कि लगभग सभी राजनैतिक दलों में टूट और बिखराव हुआ। प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस भी कई बार टूटी, नई पार्टियां बनीं। कांग्रेस कमजोर होती गई और आज तो कांग्रेस की हैसियत कई क्षेत्रीय दलों से भी कम है। भारतीय जनता पार्टी में वैसा टूट और बिखराव कभी नहीं हुआ। असल में भारतीय जनता पार्टी एक आंदोलन है और इस आंदोलन की सफलता के पीछे इसका संगठन है, विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता है और अटल-आडवाणी जी जैसे लोगों का नैतिक बल। धारा 370 की समाप्ति हो, तीन तलाक से मुस्लिम महिलाओं की मुक्ति हो, राम मंदिर का निर्माण हो, गरीब-किसान-मजदूर की सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा हो, भारतीय जनता पार्टी ने सरकार में आने पर साबित किया है कि देश की जनता के बीच जो घोषणापत्र लेकर जाती है पूरा करती है। देश की जनता के साथ छल नहीं करती। सीमा की रक्षा हो, आतंकवाद-नक्सलवाद का खात्मा हो, या कोरोना महामारी रूपी संकट से निपटना हो, सरकार और संगठन के समन्वय से पार्टी हर युद्ध ईमानदारी से लड़ती है। 

              

लक्ष्य, कार्यदृष्टि और आत्मीयता मूलतः संगठन का आधार होता है। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह मूलाधार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब लॉकडाउन के कारण उत्पन्न समस्या को लेकर देश की जनता से माफी मांगते हैं, उस समय यह मानवता और आत्मीयता झलकती है। यह उस समय भी झलकती है जब वे एक कार्यकर्ता के नाते भारतीय जनता पार्टी के 40वें स्थापना दिवस पर कार्यकर्ता को कोरोना योद्धा के रूप में कार्य करने को कहते हैं। पर सहसा मेरे मन में आता है कि अन्य राजनैतिक दलों को क्या हो गया है? विपक्ष को क्या हो गया है? उनकी मानवता और आत्मीयता को क्या हो गया है? देश के लोकतंत्र को तो राजनैतिक दलों को ही चलाना है। विपक्ष की मजबूती ही लोकतंत्र की मजबूती है। विपक्षी नेता के रूप में डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी एवं अटल बिहारी वाजपेयी जैसे विभूतियों को आज भी स्मरण किया जाता है। विपक्ष की भूमिका कल भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। विपक्ष के गर्भ में सत्ता छुपी होती है। हमने विपक्ष में रहते हुए भी स्वीकार किया और आज भी स्वीकार करते हैं।   


-प्रभात झा

(लेखक भाजपा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व राज्य सभा सांसद हैं।)


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