फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह को आखिर गुस्सा क्यों आता है ?

By राकेश सैन | Jan 09, 2019

कहावत है कि, नुक्ते के हेरफेर से खुदा भी जुदा हो गया। जैसे नुक्ते बात का अर्थ बदल देते हैं उसी प्रकार इंसान का व्यवहार उसकी छवि बनाता-बिगाड़ता है जिससे शाह भी स्याह दिखने लगते हैं। निर्विवाद रूप से कलात्मक चलचित्रों से लेकर मसाला मूवी और रंगमंच तक पर प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले नसीरुद्दीन शाह इस युग के महानतम कलाकारों में से एक हैं। उनको कई तरह के फिल्म फेयर पुरस्कारों के साथ-साथ 1987 में पद्मश्री और 2003 में पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका है, लेकिन नुक्तों के हेरफेर से वे शाह से स्याह भूमिका निभाते दिखने लगे हैं। भारत में अपने बच्चों की सुरक्षा के बारे में दिए बयान के बाद नसीरुद्दीन ने एक बार फिर आरोप लगाया है कि देश में नफरत और घृणा फैली है।

 

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शाह का ये बयान एमनेस्टी इंडिया ने अपने ट्वीटर हैंडल पर 2.14 मिनट के वीडियो में दिखाया है। वीडियो में शाह कहते हैं कि- देश में अब कलाकारों को दबाया जा रहा है और पत्रकारों की आवाज को शांत किया जा रहा है। अन्याय के खिलाफ जो भी खड़ा होता है, उनके ऑफिस में छापे मारे जाते हैं, लाइसेंस कैंसिल कर दिए जाते हैं। बैंक खाते फ्रीज कर दिए जाते हैं। एमनेस्टी इंडिया ने अपने वीडियो के साथ ट्वीट में लिखा है- 2018 में भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के साथ खड़े रहने वालों का तेजी से दमन किया गया। इस नए साल पर चलिए हम सब संवैधानिक मूल्यों के लिए खड़े हों और भारत सरकार को कहें कि दमन बंद हो। इसके पहले नसीरूद्दीन शाह ने कहा था कि वो अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए चिंतित हैं। यहां गाय की हत्या को पुलिस इंस्पेक्टर के कत्ल से बड़ा बताया जा रहा है। उनके इस बयान के बाद देश में राजनीतिक मंच के साथ-साथ मीडिया व सोशल मीडिया में खूब कोहराम मचा और अवार्ड वापसी गैंग फिर से नथुने फैलाते नजर आने लगे।

 

जो लोग नसीरुद्दीन के इस दर्द को गैर राजनीतिक व स्वस्थ बहस बता रहे हैं वे अपने मत पर पुनर्विचार करें। शाह न तो अराजनीतिक व्यक्ति हैं और न ही उनकी बहस स्वस्थ है। नसीरुद्दीन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मंच पर उनके लिखे संवाद पढ़ते नजर आए। सभी जानते हैं कि प्रवर्तन निदेशालय ने गत वर्ष 25 अक्तूबर को विदेशी वित्तपोषण की जांच के लिए बैंगलुरु स्थित एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यालय में छापामारी की और खातों को सील किया। निदेशालय विदेशी सहयोग (नियंत्रण) अधिनियम के तहत एमनेस्टी इंटरनेशनल को मिले 36 करोड़ रुपये के विदेशी चंदे की जांच कर रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल एक अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था होने का दावा करती है जो अपना उद्देश्य मानवीय मूल्यों, एवं मानवीय स्वतंत्रता को बचाने एवं भेदभाव मिटाने के लिए शोध एवं प्रतिरोध करने एवं हर तरह के मानवाधिकारों के लिए लडना बताती है। इसकी स्थापना ब्रिटेन में 1961 में हुई थी। इस संस्था पर विकासशील देशों पर विकसित देशों के अंकुश व उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के आरोप भी लगते रहे हैं। आतंकवाद के मोर्चे पर लड़ते हुए भारत को कई बार इस एजेंसी के कथित पक्षपाती रवैये के चलते अंतरराष्ट्रीय समुदाय में आलोचना का सामना भी करना पड़ा।

 

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दूसरी ओर नासीर जिन गैर सामाजिक संगठनों के लाइसेंस रद्द होने की दुहाई दे रहे हैं उनकी वास्तविकता भी देश के सामने आ चुकी है। 27 दिसंबर, 2016 को केंद्रीय गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने बताया कि केंद्र सरकार विदेशी सहयोग (नियंत्रण) अधिनियम के उल्लंघन में देश में चल रहे 33000 गैर सरकारी संगठनों में से 20000 के लाइसेंस रद्द कर चुकी है। शेष 13000 गैर सरकारी संगठनों में से 3000 ने अपने लाइसेंस रिन्यू करवाने के आवेदन दिए और 2000 ने पंजीकरण के लिए आवेदन किया। यानि ये संगठन अभी तक बिना लाइसेंस व मंजूरी के चले आ रहे थे। इन संगठनों पर विदेशी ताकतें कितनी मेहरबान रहीं इसका अनुमान इस आंकड़े से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय गृहराज्य मंत्री श्री किरन रिजीजू ने 20 दिसंबर, 2017 को राज्यसभा में बताया कि इन संगठनों को साल 2015-16 में 17773 करोड़ और अगले वित्त वर्ष में 6499 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। यह वो राशि है जो एक प्रामाणिक प्रक्रिया से इन संगठनों को मिली और अवैध तरीके से मिले धन के बारे अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। सभी गैर सरकारी संगठनों को गलत नहीं ठहराया जा सकता परंतु यह भी सही है कि अधिकतर की गतिविधियां संदिग्ध ही रही हैं। इसका जीवंत उदाहरण है कि 24 फरवरी, 2012 को तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तमिलनाडू के कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ चल रहे गैर सरकारी संगठनों के आंदोलन के पीछे विदेशी हाथ का खुलासा कर चुके हैं। राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत भारतीय नागरिक होने के बावजूद अगर नसीरुद्दीन इस तरह की संदिग्ध एजेंसी व गैर सरकारी संगठनों की वकालत करते हैं तो इसे अवश्य ही उनके चरित्र का स्याह पक्ष कहा जाना चाहिए।


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दूसरी ओर नसीरुद्दीन किसी राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेते वह दूसरी बात है परंतु वे पूरी तरह गैर राजनीतिक व्यक्ति हैं यह कहना अर्धसत्य होगा। शाह वामपंथी विचारधारा से प्रभावित भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़े हैं। बीबीसी लंदन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, उनकी पत्नी रत्ना पाठक शाह, इप्टा के संस्थापकों में एक श्रीमती दीना पाठक की बेटी हैं। श्रीमती दीना पाठक स्वयं हिंदी फिल्मों की उम्दा कलाकार रही हैं। फिल्मों में संघर्ष के शुरुआती दिनों में नसीर इप्टा से जुड़ गए थे। इप्टा के 1975 में आए नाटक 'संभोग से संन्यास' तक में नसीर और रत्ना पाठक ने एक साथ अभिनय किया। इप्टा शुरु से ही वामपंथी विचारधारा से प्रभावित और उसके मंच के रूप में काम करती रही है। औपनिवेशीकरण, साम्राज्यवाद व फासीवाद के विरोध में इप्टा की स्थापना 25 मई, 1943 को की गई। 'इप्टा' का यह नामकरण सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने किया। ऐसे कलाकार जो सामाजिक सरोकारों जुड़े हुए थे और कला के विविध रूपों यथा संगीत, नृत्य, फिल्म व रंगकर्म आदि को वृहद मानव कल्याण के परिप्रेक्ष्य में देखते थे, एक-एक कर इप्टा से जुड़ते गये। इनमें बलराज साहनी, एके हंगल, शबाना आजमी, संजीव कुमार, ओमपुरी, गीतकार कैफी आजमी, पृथ्वीराज कपूर सहित अनेक भारी भरकम नाम जुड़े हैं। इसी वामपंथी विचारधारा से जुड़े 60 लोगों जिनमें इमित्याज अली, विशाल भारद्वाज, नंदिता दास, गोविंद निहलानी, सैयद मिर्जा, जोया अख्तर, कबीर खान, महेश भट्ट इत्यादि ने साल 2014 में लोकसभा चुनाव से पहले एक अपील जारी कर लोगों को श्री नरेंद्र मोदी का विरोध करने को कहा था।

 

कईयों ने चेतावनी भी दी कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बने तो वे भारत छोड़ देंगे। साल 2015 में जब बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहे थे तो इन्हीं वामपंथी बुद्धिजीवियों ने देश में असहनशीलता फैलने का बवंडर पैदा कर पुरस्कार वापसी का ऐसा अभियान चलाया जिसके चलते मोदी सरकार को विश्वव्यापी आलोचना का शिकार होना पड़ा और इन चुनावों में भाजपा को भी पराजय का सामना करना पड़ा। देश वर्तमान में भी चुनावी मुहाने पर खड़ा है और पुरी दुनिया की नजरें इन पर टिकी हैं। अगर नसीरुद्दीन शाह ने चुनावों के मद्देनजर कुछ बोला है तो यह कहने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उन्होंने खुद अपना स्तर काफी नीचे गिरा लिया है। आज देश में ऐसे हालात नहीं हैं कि जिससे किसी को भयभीत होना पड़े या कहीं नहीं लगता कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है। अगर किसी ने झूठ-फरेब की राजनीति करनी है तो यह बात इतर है लेकिन देश नासीर भाई को 'शाह' के रूप में पसंद करता है 'स्याह' के नहीं।

 

-राकेश सैन

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