देश के संसाधनों और सरकारी खजाने को निजी जागीर समझने वाले राजनीतिक दलों के लिए बहुजन समाजवादी पार्टी की सुप्रीमो मायावती के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख राजनीतिक दलों के लिए नजीर का काम करेगा। उत्तर प्रदेश में सत्ता के दौरान मायावती ने पार्टी के चुनाव चिह्न हाथी और खुद की प्रतिमाएं स्थापित कराने में सरकारी खजाने से 4 हजार 184 करोड़ रूपए फूंक दिए थे। लोकायुक्त की जांच में इस सरकारी धन राशि में से 1410 करोड़ रुपए का घपला पाया गया।
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सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा कि मायावती को जनता के धन लौटाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि हम इस पर विचार कर रहे हैं कि आप (मायावती) जनता के पैसे का भुगतान जेब से करें। इस मुद्दे पर अंतिम सुनवाई के लिए 2 अप्रैल की तारीख तय की गई है। राजनीतिक दलों के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह नजरिया कड़ा सबक साबित होगा। देश में सरकारी धन से मूर्तियों की राजनीति पर भी इससे काफी हद तक अंकुश लग सकेगा। सरकारी धन को अपनी बपौती समझने वाले राजनीतिक दलों ने अपने नेताओं और पार्टी का प्रचार करने के लिए सार्वजनिक स्थलों पर मूर्तियां स्थापित कराने को खेल खूब खेला है। मायावती ने इस मामले में सारे रेकार्ड ही ध्वस्त कर दिए। बसपा चुनाव चिह्न हाथी और खुद की मूर्तियां लगाने में सारी नैतिकता−मर्यादाओं को दलितों के भले के नाम पर ताक पर रख दिया।
आम जनता के करों से मिलने वाले धन को अपनी निजी महत्वकांक्षाओं की भेंट चढ़ा दिया। इस मुद्दे पर उंगली उठाने वाले विरोधियों को दलित विरोधी करार देने में मायावती ने कसर बाकी नहीं रखी। मूर्तियों में उड़ाई गई इस धनराशि को यदि आम लोगों के सार्वजनिक कामों में भी नहीं तो दलितों की योजनाओं के लिए उपयोग में लिया जाता तो भी हजारों परिवारों का भला हो सकता था। दलित राग अलापने वाली मायावती ने सरकारी धन की बर्बादी में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दरअसल देश को चलाने के लिए कानून बनाने वाले राजनीतिक दल खुद को इससे ऊपर समझते हुए मनमानी करने पर उतारू रहते हैं। नेता समझते हैं कि मतदाता तो पांच साल तक कुछ बिगाड़ नहीं सकते, इसलिए जैसी चाहे सरकारी संसाधनों की लूट मचाओ। मायावती को मिली सीख निश्चित तौर पर नेताओं को दायरे में बांधने का काम करेगी।
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नेताओं की मूर्तियां लगाने का यह सिलसिला सभी राजनीतिक दलों की देन है। कांग्रेस हो या भाजपा सभी अपने चहेते नेताओं की प्रतिमाएं स्थापित कराकर वोट बैंक को मजबूत करने में लगे रहते हैं। सार्वजनिक जीवन में नेताओं की छवि चाहे जैसी रही हो, उनकी व्यापक तौर पर स्वीकार्यता हो या नहीं, किन्तु जाति, धर्म, क्षेत्रवाद और समुदाय के आधार पर मूर्तियां लगाने में कोई भी दल पीछे नहीं रहा। इसमें संदेह नहीं कि जिन नेताओं ने देश में निर्विवाद योगदान दिया हो, उनकी चुनिंदा प्रतिमाएं लगानी चाहिए। यह राष्ट्रीय गौरव के साथ देशभक्ति की भावना को मजबूत करता है। लेकिन यह स्थिति तभी हो सकती है, जब देश साधन−सम्पन्न हो, विकास की रफ्तार में तेजी से दौड़ रहा हो। जिस देश की आधी आबादी को एक वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पाती, वहां मूर्तियों के जरिए राष्ट्रभक्ति की भावना का संचार कराना बेमानी ही मानी जाएगी।
मूर्तियां स्थापित करने वाले नेताओं की नीयत में खोट होने के साथ ही उनके दामन भी दागदार रहे हैं। ऐसे में आम लोगों के लिए मूर्तियों से प्रेरणा ग्रहण करना आसान नहीं है। समस्या वहां से शुरू होती है जब ऐसे कामों में राजनीतिक स्वार्थ जुड़ जाते हैं। इससे ही विवाद होते हैं साथ ही जिनकी मूर्ति लगाई जानी हैं, उन पर भी विवाद शुरू हो जाता है। गुजरात के अहमदाबाद में वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा को लेकर खूब आरोप−प्रत्यारोप लगे। भाजपा ने पटेल के जरिए कांग्रेस पर राजनीतिक प्रहार करने का प्रयास किया। पटेल की प्रतिमा में हजारों करोड़ रुपए व्यय किए गए।
इसी तरह का विवाद मुंबई में बाल ठाकरे की प्रतिमा को शिवाजी पार्क में स्थापित करने के प्रयासों को लेकर रहा। मूर्तियों की आड़ में राजनीतिक उल्लू सीधा करने में दक्षिण भारत प्रमुख रहा। दक्षिण भारत के दिग्गज नेता रहे कांग्रेस के कामराज ने जीवित रहते हुए ही अपनी मूर्ति स्थापित करा ली। दक्षिण भारत में कामराज के दबदबे के कारण कांग्रेस की मजबूरी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जीवित रहते हुए ही कामराज की मूर्ति का अनावरण करने जाना पड़ा। दक्षिण भारत में नेताओं की मूर्तियों के जरिए वोट बटोरने के प्रयासों में डीएमके भी पीछे नहीं रही। डीएमके जब सत्ता में आई तो अपने नेताओं की मूर्तियों की लाइन लगा दी।
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राजनीतिक दलों की ऐसी हरकतों को मतदाताओं ने कभी तरजीह नहीं दी। राजनीतिक दलों की यह गलतफहमी रही है कि मूर्तियां स्थापित करने से ही वोट मिलते हैं। मतदाताओं ने नेताओं के इस वहम को कई बार दूर किया है। यह बात दीगर है कि नेताओं ने पराजय के बाद भी कोई सबक नहीं सीखा। सरकारी खजाने पर भारी बोझ डालने के बाद भी मायावती सत्ता में वापसी नहीं कर सकीं। दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों के अलावा अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में कांग्रेस के नेताओं की मूर्तियां ही सर्वाधिक हैं। कारण भी स्पष्ट है आजादी के संघर्ष में कांग्रेस ही अकेली पार्टी रही। इसके अलावा सत्ता में आने के बाद एक भी राष्ट्रीय दल लंबे अर्से तक अस्तित्व में नहीं आया। कहने को राजनीतिक दल देश में विकास बढ़ाने और गरीबी मिटाने की दलीलें देते हों, किन्तु मूर्तियों में व्यय होने वाले सरकारी धन को व्यय करने से परहेज नहीं बरतते। मायावती के मामले में सुप्रीम कोर्ट के रुख से साफ है कि मूर्तियों के जरिए स्वार्थ साधना अब राजनीतिक दलों के लिए आसान नहीं रहेगा।
-योगेन्द्र योगी