कर्नाटक में 'अल्पसंख्यकों' को सरकारी ठेकों में 4 प्रतिशत कोटा क्यों? बताए कांग्रेस

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By कमलेश पांडे | Mar 17, 2025

कर्नाटक में 'अल्पसंख्यकों' को सरकारी ठेकों में 4 प्रतिशत कोटा क्यों? बताए कांग्रेस

कांग्रेस शासित कर्नाटक की सरकार ने अल्पसंख्यक ठेकेदारों को सरकारी खरीद के ठेकों में 4 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया है, उससे मुस्लिम सबसे ज्यादा लाभान्वित होंगे। हालांकि, राज्य सरकार का यह निर्णय  वैधानिक दृष्टि से न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता है। ऐसा इसलिए कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश तो है, लेकिन यह हिंदुओं के हिस्से वाला हिंदुस्तान भी है। जबकि हमारे राजनेता और उनके 'चमचे बुद्धिजीवी' वोट बैंक की लालच में इस कड़वी सच्चाई को नजरअंदाज करते हैं, जिससे देश में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की सियासत को मजबूती मिलती है। चूंकि इसका सर्वाधिक लाभ मुस्लिम ठेकेदारों को मिलेगा, इसलिए कांग्रेस के इस फैसले की प्रवृति और प्रकृति पर कतिपय सवाल उठना लाजिमी है। 


पहला, अल्पसंख्यक वर्ग में यह आरक्षण मुस्लिमों, ईसाइयों, सिखों, जैनों, बौद्धों आदि को 4 फीसदी में से कितना-कितना प्रतिशत मिलेगा या फिर पिछले दरवाजे से सिर्फ मुस्लिमों को ही वरीयता दी जाएगी? दूसरा, जब दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को सरकारी ठेकों में आरक्षण मिलेगा तो फिर ईडब्ल्यूएस से जुड़े गरीब सवर्णों को क्यों नहीं मिलेगा? तीसरा, महिलाओं और युवाओं को क्यों नहीं?किसानों-मजदूरों-कारीगरों को क्यों नहीं? सिर्फ सरकारी ठेकों में ही क्यों, प्राइवेट ठेकों और ग्लोबल ठेकों में क्यों नहीं? चतुर्थ, सिर्फ कर्नाटक में ही क्यों, हिमाचल प्रदेश आदि कांग्रेस या इंडिया गठबंधन शासित राज्यों में क्यों नहीं? 

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खैर, सवालों की फेहरिस्त बड़ी लंबी हो सकती है और जवाब सिर्फ यही कि कांग्रेस की कमान बैकडोर से वैसे लोगों के हाथों में जा चुकी है जो इस पार्टी को जनमानस में अलोकप्रिय बनाने पर आमादा हैं। पहले समाजवादियों और फिर राष्ट्रवादियों की राजनीतिक सफलता का राज भी यही है। इतिहास गवाह है कि अपनी घोर तुष्टिकरण की सियासत के चलते भारत और अधिकांश राज्यों की सत्ता से बाहर है। 2014 और 2019 के आम चुनावों में उसकी हैसियत विपक्ष का नेता बनने लायक भी नहीं रही थी। 2024 में उसे जो अप्रत्याशित उछाल मिला, उसके उत्साह में वो फिर अतिरेक भरे फैसले कर रही है, जिससे साफ है कि कांग्रेस अब सत्ता प्राप्ति और राष्ट्र निर्माण नहीं बल्कि 'पार्टी ध्वंस' और 'देश-समाज विध्वंस' को गति देने की राजनीति पर आमादा है। उसकी गलत नीतियों का ही तकाजा है कि पहले भारत टूटा, फिर पाकिस्तान टूटा और कांग्रेस भी कई बार टूटी। 


यदि सही कहा जाए तो 'कांग्रेस' की असली नेता ममता बनर्जी (तृणमूल कांग्रेस नेत्री और पश्चिम बंगाल की चार बार से मुख्यमंत्री) हैं, न कि नेहरू-गांधी परिवार के सियासी जमींदार, जो सौभाग्य से नेता प्रतिपक्ष तो हैं, लेकिन वैचारिक और रणनीतिक तौर पर उसके 'नाकाबिल' हैं! तभी तो खुद इंडिया गठबंधन के उनके साथी भी उन्हें अपना नेता मानने को लेकर किंतु परन्तु करते रहते हैं! मेरी बात उन्हें बुरी लग सकती है, लेकिन इसके मर्म को आत्मसात कर लिए तो उनकी पार्टी की सियासी किस्मत भी बदल सकती है, क्योंकि जिस पार्टी ने देश को आजादी दिलाई, सर्वाधिक समय तक देश-प्रदेश पर राज किया, उसकी मौजूदा दुर्दशा पर हर कोई तरस खाएगा।


चर्चा के मुताबिक, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की कैबिनेट ने कर्नाटक ट्रांसपैरंसी इन पब्लिक प्रक्योरमेंट (केटीपीपी) ऐक्ट में बदलाव के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। खबर है कि इस ऐक्ट में बदलाव का यह बिल विधानसभा के इसी बजट सत्र में आएगा, जिसके पारित होने के बाद कर्नाटक के सरकारी टेंडर में मुस्लिमों सहित सभी अल्पसंख्यक वर्ग के सरकारी ठेकेदारों को 4 प्रतिशत आरक्षण का रास्ता साफ हो जाएगा। वहीं, डिप्टी सीएम ने कहा कि, टेंडर में कोटा सभी अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्ग के लिए तय किया गया है, जिसकी प्रतिशतता सम्बन्धी विस्तृत जानकारी उन्होंने नहीं दी है।


वहीं, बीजेपी ने कर्नाटक सरकार के इस फैसले को असंवैधानिक बताया और कहा कि कांग्रेस मुस्लिम सहित अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में नए पैमाने गढ़ रही है। यह देश के लिए खतरा है। बीजेपी सांसद रविशंकर प्रसाद ने कहा कि हमारी पार्टी इसके खिलाफ है और विरोध करती रहेगी। बाद में कर्नाटक के डिप्टी सीएम डी.के. शिवकुमार ने कहा कि 4 प्रतिशत कोटा सिर्फ मुस्लिमों के लिए नहीं, बल्कि सभी अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए है।


वहीं, कर्नाटक में सरकारी ठेकों में मुस्लिम आरक्षण पर एक सेवानिवृत्त नौकरशाह ने कहा है कि राज्य सरकार को अख्तियार है कि वह रिजर्वेशन दे सकती है। इसी नजरिए से कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों में मुस्लिम आदि अल्पसंख्यकों को ओबीसी कैटिगरी में रखकर सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया है। जबकि यहां मसला सरकारी टेंडर प्रक्रिया में रिजर्वेशन का है। हालांकि, इस पर जिसे ऐतराज है, वह संवैधानिक अदालत में इसे चुनौती दे सकता है। क्योंकि यहां नया सिर्फ यह है कि टेंडर प्रक्रिया में रिजर्वेशन दिया गया है। कैबिनेट फैसला ले सकती है जिसमें कोई शक नहीं है। यह अलग बात है कि इस फैसले को संवैधानिक कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। आम तौर पर संसद या विधानसभा से पास किसी भी कानून को संवैधानिक अदालत में चुनौती दी जा सकती है। तब अदालत स्क्रूटनी करती है और यह देखती है कि कानून या सरकार का फैसला संविधान के दायरे में है या नहीं।


वहीं, सुप्रीम कोर्ट के एक एडवोकेट की प्रतिक्रिया आई है कि संविधान में अनुच्छेद 15 और 16 में पढ़ाई-नौकरी में रिजर्वेशन का प्रावधान है, लेकिन सरकारी ठेकों में आरक्षण का जिक्र सविधान में नहीं है। चूंकि शीर्ष अदालत में कर्नाटक में सरकारी नौकरी में मुस्लिम रिजर्वेशन का मसला आ चुका है। पर मौजूदा मामला टेंडर से संबंधित है। इसलिए संवैधानिक तौर पर यह रिजर्वेशन शायद ही कोर्ट में टिक पाए। क्योंकि संविधान में आर्टिकल 15 व 16 में रिजर्वेशन दिए जाने का प्रावधान है। एजुकेशनल इंस्टिट्यूट  में दाखिले के लिए आर्टिकल 15 के तहत प्रावधान है और सरकारी नौकरी में रिजर्वेशन का प्रावधान आर्टिकल 16 में है। जबकि कर्नाटक सरकार ने टेंडर में रिजर्वेशन दिया है और वह भी रिलिजन के आधार पर दिया है। वहीं यह संविधान के तहत वर्णित परिभाषा पब्लिक एंप्लायमेंट के तहत नहीं आता है। लिहाजा रिजर्वेशन सिर्फ सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थान में दाखिले के लिए हो सकता है।


कानूनी जानकार बताते हैं कि कैबिनेट रिजर्वेशन दे सकती है। अगर यह संवैधानिक दायरे में है या नहीं, इस पर अहम सवाल खड़ा हुआ तो इस फैसले को चुनौती दी जा सकती है। कहने का तातपर्य यह कि यदि ऐसे फैसले से किसी को आपत्ति है तो वह कोर्ट में इसे चुनौती दे सकता है। हालांकि, वहां इसका टिकना मुश्किल लग रहा है। क्योंकि रिजर्वेशन संवैधानिक दायरे में है या नहीं, इसको लेकर अब अहम सवाल खड़ा हुआ है। वैसे कर्नाटक में मुस्लिमों के रिजर्वेशन का मामला पहले भी राजनीति का केंद्र रहा है और एक मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पेंडिंग है। इसलिए राज्य सरकार को सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए था।


इस बारे में विधि के जानकारों का यह भी कहना है कि आर्टिकल 19 (1) (जी) में ट्रेड और कॉमर्स आदि का मौलिक अधिकार है और कर्नाटक का एक मसला पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। क्योंकि पिछली कर्नाटक सरकार (बीजेपी सरकार) ने अप्रैल 2024 में मुस्लिम ओबीसी के रिजर्वेशन को खत्म कर दिया था। जिसके बाद सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। इस मामले में कर्नाटक के मुस्लिम कम्युनिटी की ओर से कहा गया था कि कर्नाटक सरकार ने मुस्लिम ओबीसी का चार फीसदी रिजर्वेशन जो खत्म किया है, उसके लिए कोई उनके पास कोई स्टडी नहीं है। वहीं 26 अप्रैल 2024 को सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक सरकार ने कहा था कि मुस्लिम समुदाय को धर्म के आधार पर नौकरी में रिजर्वेशन न देने का जो फैसला किया गया है, वह सोच विचार कर किया गया क्योंकि यह रिजर्वेशन असंवैधानिक है और संविधान के अनुच्छेद-14 व 16 के खिलाफ है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम रिजर्वेशन का मामला अभी भी पेंडिंग है। सरकार का फैसला उस अधिकार में दखल देता है। ऐसे में राज्य सरकार के फैसले को जब संवैधानिक कोर्ट में चुनौती दी जाएगी तो सुप्रीम कोर्ट देखेगा कि यह संवैधानिक दायरे में है या नहीं। लेकिन पहली नजर में लगता है कि यह फैसला टिकना मुश्किल हो सकता है।


आपकी जानकारी के लिए बता दें कि समकालीन आरक्षण जरूरतमंदों को कम और नेताओं, उद्यमियों, नौकरशाहों, जजेज, सीए आदि सफल पेशेवरों के आश्रितों को ज्यादा मिल रहा है। जिनको एक बार आरक्षण का लाभ मिल गया, उनके पुत्रों-पुत्रियों को भी यह बार बार मिल रहा है। समाज का यह वर्ग उन लोगों का हक मार रहा है, जिनके लिए यह परिकल्पना की गई थी। वहीं, इसका चुनावी हथियार बनना भी दुर्भाग्यपूर्ण है। चाहे संसद हो या सुप्रीम कोर्ट, अपनी नैतिक जवाबदेही से बचते आए हैं और किसी भी नीतिगत नाकामी के लिए इन्हें दंडित करने का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए हमारी संवैधानिक व्यवस्था को और अधिक कारगर बनाने के लिए राजनीतिक जवाबदेही, प्रशासनिक जवाबदेही, न्यायिक जवाबदेही और वैचारिक जवाबदेही, तय करनी होगी और इसमें बरती गई लापरवाहियों के लिये इन्हें दंडित किये जाने की भी जरूरत है। अन्यथा इनके बेमतलब तर्क वितर्क जारी रहेंगे, ये मौज करते रहेंगे और जनता बर्बाद होती रहेगी। अब वक्त है जनता को आबाद करने का, उसके लिए पारदर्शी कानून बनाने का।


कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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