आखिर क्यों दिलचस्प और जटिल है जर्मनी का चुनाव, नागरिक डालते हैं दो वोट, नतीजे का भारत समेत चीन, रूस अमेरिका को भी रहेगा इंतजार

By अभिनय आकाश | Sep 06, 2021

इंग्लिश राइटर एंड स्पीकर ‘ऐलन वॉट्स’ का एक कथन है। सिद्धांतों के लिए लड़े गए युद्ध सबसे विनाशकारी होते हैं। क्योंकि सिद्धांत के साथ कभी समझौता नहीं हो सकता। इनके मुकाबले लालच के लिए किया गया युद्ध कम हानिकारक होता है क्योंकि व्यक्ति तब ये ध्यान रखेगा कि जिस चीज को पाने की लालच में वो युद्ध कर रहा है वो कहीं नष्ट न हो जाए। तर्कसंगत इंसान सदेव समझौते का द्वार खुला रखता है लेकिन किसी तर्कसंगत व्यक्ति हमेशा समझौता कर सकते हैं लेकिन किसी अयथार्थवादी सोच वाला एक कट्टरपंथी सब कुछ नष्ट करने के लिए तैयार रहता है। वस्तुतः ये माना जाता है कि सिद्धांतों पर अडिग रहना इंसान का गुण है और लालच एक अवगुण। लेकिन क्या हो अगर यही सिद्धांत एक सनकी, क्रूर तानाशाह के सनक और पागलपन से पनपा हो? जवाब है- नाजीवाद, फासीवाद और इसके परिणान स्वरूप 1930 के दशक के अंत में एक भयानक युद्ध का सृजन होता है। लेकिन उसी देश ने अपने इतिहास से सीख लेते हुए ऐसा सिस्टम बनाया ताकि फिर कभी कोई ऐसा क्रूर और सनकी तानाशाह हिटलर न पैदा हो और न ही उसे सत्ता मिले। अब तो आप सभी समझ ही गए होंगे कि हम बात दुनिया के सबसे मजबूत देशों में से एक जर्मनी की कर रहे हैं। जहां आगामी 26 सितंबर को चुनाव होने हैं। जर्मनी की बात बेहद अलग है और अर्थव्यवस्था भी मजबूत है। नागरिकों के अधिकारों को लेकर बेहद उदार जर्मनी में लोकतंत्र की जड़े बहुत ही गहरे तक जमी हुई हैं। लेकिन जर्मनी में एक युग का अंत हो रहा है। 16 सालों तक चांसलर के पद पर रहने वाली एंजेला मैर्केल अब इस रिटायर हो रही हैं। कौन उनकी जगह लेगा इसके लिए जर्मनी में 26 सितंबर को चुनाव होने हैं। जर्मनी में चुनाव का तरीका बहुत ही जटिल है। इसकी पूरी प्रक्रिया बताते हैं।

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कैसे होते हैं चुनाव?

जर्मनी में चुनाव का तरीका भारत जितना सरल नहीं कि आप घर से निकले पोलिंग बूथ पर गए और अपने पसंदीदा पार्टी हाथ या कमल के निशान या फिर जो भी आपकी पसंद की पार्टी हो या नेता को वोट कर आए। यहां मामला दूसरा ही है और हरेक वोटर के पास दो वोट होते हैं। जर्मनी में सीटों की कुल संख्या 598 होते हैं जो कि आधे-आधे बंटे होते हैं। 26 सितंबर को जब जर्मनी के लोग मतदान करने जाएंगे तो उन्हें दो बैलेट काले और नीले रंग का मिलेगा जिस पर दो विकल्प होंगे- जिले का प्रतिनिधि और पार्टी का प्रतिनिधि। पहला वोट जिसे एर्सटश्टिमे कहा जाता है जिले के प्रतिनिधि से संबंधित होता है। जिसके जरिये वोटर अपने जिले का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति को चुनते हैं। जर्मनी के संसद में ऐसी 299 सीटें हैं और हर सीट लगभग ढाई लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इन प्रतिनिधियों की संसद में सीट पक्की होती है।  बैलट के दूसरे हिस्से को स्वाइटेश्टिमे कहते हैं। ये दूसरा वोट भी 299 प्रतिनिधियों को चुनने के लिए होता है लेकिन इसमें वो प्रतिनिधि को वोट न देकर अपनी पसंदीदा पार्टी को देते हैं। इस माध्यम से चुने गए प्रतिनिधियों को पार्टी डेलीगेट्स कहा जाता है।  इसी के जरिये तय होता है कि संसद में किस पार्टी को कितने प्रतिशत सीटें मिलेंगी। ऐसे में जिन राज्यों की आबादी अधिक है वहां के ज्यादा प्रतिनिधि संसद में पहुंचते हैं। सबसे दिलचस्प बात ये है कि वोटर अपने वोटों को पार्टियों और उम्मीदवारों के बीच बांट भी सकते हैं। मतलब, अगर किसी मतदाता ने अपना पहला वोट स्थानीय सीडीयू उम्मीदवार को दिया और दूसरा वोट दूसरी पार्टी एफडीपी को दिया जिससे सीडीयू की सहयोगी पार्टी भी संसद पहुंच जाए। कई बार पहले वोट से उस एरिया में जिसे अपने पार्टी वोट से ज्यादा सीटें मिल जाती हैं और उसकी संसद की सीट पक्की हो गई। इसलिए पार्टी को वे अतिरिक्त सीटें मिल जाती हैं। इस वजह से कई बार दोनों के बीच बैलेंस नहीं होता कई बार। इसलिए दोनों के बीच बैलेंस बिठाने के लिए जिन्हें ओवरहैंग सीट कहते हैं। कई बार बंटवारा ज्यादा कर दिया जाता है और पार्टियों के पास सीटें ज्यादा आ जाती हैं। 598 न्यूतम संख्या है। जबकि पिछले 2017 के चुनाव में पूरा हिसाब किताब और बंटवारा करने के बाद ये 709 तक चला गया।

संसद में एंट्री के लिए पार्टी को जीतने होंगे 5% सेंकेंड वोट

किसी भी राजनीतिक पार्टी को संसद के अंदर प्रवेश करने के लिए एक जरूरी शर्त है। पार्टी को कम से कम पांच फीसदी सेंकेंड वोट होने चाहिए। इस व्यवस्था से बहुत छोटी पार्टियों को संसद में प्रवेश मिलने से रोका जा सकता है। 1920 के दशक में इन्हीं छोटी पार्टियों ने वाइमार रिपब्लिक में तोड़फोड़ मचाई थी। इस पांच फीसदी की बाधा ने ही एनपीडी और अन्य अति दक्षिणपंथी पार्टियों को संसद में जाने से रोक रखा। 

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क्यों हुई इतनी जटिल प्रक्रिया

जर्मनी की पूरी इतिहास से इतर 12 साल का नाजी शासन और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के लोगों का ये निर्णय था कि फिर से इतिहास की गलती न दोहराई जाए और इसके लिए इतने फिल्टर चुनावी प्रक्रिया में लगाए गए। अब आपको थोड़ा सा इतिहास में लिए चलते हैं जब 1933 के दौर में राष्ट्रपति हिंदनबर्ग की ओर से एडोल्फ हिटलर को जर्मनी का चांसलर बनाया गया। हिटलर की नाजी पार्टी गठबंधन सरकार का हिस्सा थी। कुछ ही महीनों में हिटलर ने संवैधानिक सरकार को साफ कर दिया। नागरिकों के अधिकारों को ख्तम कर लोकतंत्र का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नाजी सत्ता का दौर शुरू हुआ। दूसरे विश्व युद्ध की आग में दुनिया को झोंक दिया जिसे न कभी जर्मनी भूलेगा और न ही इतिहास। ऐसे में इस तरह की शर्मिंदगी और ताबाही से फिर कभी न दो-चार होना पड़े इस वजह से इस तरह के फिल्टर जगह-जगह पर लगाए गए ताकि सत्ता बेलगाम न हो पाए। 

कैसे चुना जाता है चांसलर

जर्मनी के चांसलर यानी सरकार के मुखिया का चुनाव सीधे-सीधे वोटरों के डाले गए वोट के आधार पर नहीं होता है। वोट डाले जाने के एक महीने के अंदर नई संसद को बैठक करनी होती है। जिस पार्टी को सबसे ज्यादा जनाधार प्राप्त होता है उसके शीर्ष नेता चांसलर पद का दावेदार होता है। औपचारिक राष्ट्राध्यक्ष यानी राष्ट्रपति चांसलर पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करते हैं। उसके बाद गोपनीय वोट के जरिये संसद सदस्य इस चुनाव पर सहमति की मुहर लगाते हैं। जर्मनी में चांसलर बनने की कोई सीमा नहीं है और आप कितनी बार भी इस पद पर चुने जा सकते हैं। अभी तक सभी जर्मन चांसलरों का चयन पहले ही दौर में हो गया है। हालांकि कितनी मर्तबा बहुमत का अंतर बेहद कम रहा है। कोनराड आडेनावर 1949 में पश्चिम जर्मनी के पहले चांसलर चुने गए थे। वे अब तक के सबसे कम बहुमत से जीतने वाले चांसलर रहे हैं। 1974 में चांसलर चुने जाने वाले हेल्मुट श्मिट और 1982 में चांसलर बनने वाले हेल्मुट कोल को बहुमत के लिए जरूरी मतों से केवल एक वोट ज्यादा हासिल हुए थे। एंजेला मैर्केल के लिए सबसे कम अंतर से चुनाव जीतने का अनुभव 2009 में रहा जब उन्हें संसद के सिर्फ 323 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हुआ। ये संख्या चांसलर बनने के लिए जरूरी मतों से सिर्फ 16 ज्यादा थी। 

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कौन लेगा मैर्केल की जगह

एंजेला मैर्केल की जगह अब जर्मनी का नया चांसलर कौन होगा इस बात की चर्चा इन दिनों खूब हो रही है। पिछले 16 वर्षों से इस पद पर रहने वाली मैर्कैल रिटायर हो रही हैं। जनमत सर्वैक्षणों में फिलहाल सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) को मामूली बढ़त मिली हुई है। लेकिन ये इतनी भी नहीं है कि इसे जीत की गारंटी माना जाए। वहीं उम्मीदवार नेताओं का आलम ये है कि हालिया जनमत सर्वे में लोकप्रियता के मामले में वे मैर्कैल से भी पीछे आए, जबकि वो इस चुनाव में उम्मीदवार भी नहीं हैं। 

भारत पर क्या होगा असर

भारत  ना सिर्फ़ जर्मनी, बल्कि भारत के पूरे यूरोपीय संबंध, जर्मनी के अगले चांसलर की स्थिति पर निर्भर करते हैं। सीधे शब्दों में कहे तो कौन सी पार्टी का प्रतिनिधित्व वे करते हैं या किस गठबंधन से आते हैं ये बेहद ही मायने रखता है। कुल मिलाकर जर्मनी की तीन बड़ी पार्टियां द क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (CDU/CSU), द सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (SPD) और द ग्रीन्स (बुंडनिस 90/डाई ग्रुएनेन) तीनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों की भारत पर स्थिति लगभग निरंतर रही है। हर पार्टी अपने अपने दावे करती है कि वे भारक के साथ भविष्य में सहयोग को प्रगाढ़ करेंगी। तीनों ही पार्टियों की तरफ से भारत के तौर पर एक प्राकृतिक साझेदार को देखती है। भले ही ग्रीन्स मानवाधिकारों के मु्द्दे पर कड़े पैमानों का समर्थन करते हैं और भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन सामान्य तौर पर वे व्यापार बढ़ाने के विरोधी नहीं हैं, यहां तक कि जरूरी मानवाधिकार और पर्यावरणीय पैमानों के आभाव में भी वे ऐसा करने के लिए तैयार हैं। तो संभावना है कि भारत और जर्मनी के संबंधों की मौजूदा स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आने की संभावना है, लेकिन मानवाधिकारों को संबंधों के केंद्र में रखने की जरूरत पर दोबारा सोचने की जरूरत है। वहीं 26 सितंबर को होने वाले चुनाव के नतीजे का भारत ही नहीं बल्कि जो बाइडन, शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन को भी बेसब्री से इंतजार रहेगा।- अभिनय आकाश


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