भारत ने दो बार क्यों ठुकराई UNSC की स्थायी सदस्यता

By अभिनय आकाश | Jan 11, 2020

एक पुरानी कहावत है कि अपने पाँव आप कुल्हाड़ी मारना, इस मुहावरे का आम जीवन में हम कई बार प्रयोग करते आए हैं। जिसका अर्थ होता है कि खुद ही संकट को निमंत्रण देना या खद की गलती से खुद को नुकसान पहुंचाना। इतिहास में अक्सर कई ऐसी गलती हो जाती हैं जिसका खामियाजा आगे चलकर हमें भुगतना पड़ता है। आज से करीब 69 साल पहले ऐसे ही गलती भारत से हुई थी और जिस चीन को भारत ने अपना दोस्त समझा था और उसे वीटो पावर दिलवाई थी, वर्तमान में वही चीन कई मौकों पर भारत को न ही सिर्फ आंखे दिखाता रहा है बल्कि उस पर वार करने की भी ताक में रहता है। मोदी सरकार देश की पहली ऐसी सरकार मानी जाती है जिसमें नेहरू के समाजवाद की कोई छाप नहीं है। वहीं देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस आधुनिक भारत का निर्माता कहती है। इतिहास के हवाले से जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधने के आरोप भी कई बार वर्तमान सरकार पर लगते रहे हैं। चाहे वो कश्मीर को लेकर नेहरू की नीतियों की बात हो या नेहरू की विदेशी नीति का मुद्दा हो। कई बार ये भी दावा किया गया है कि जवाहर लाल नेहरू की गलती की वजह से भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा दी और अपनी जगह ये स्थान चीन को दे दिया। इसलिए आज हमने इस की सच्चाई जानने के लिए कुछ किताबों और नोट्स का सहारा लिया और कुछ तथ्यों को स्कैन कर आपके सामने एक पूरा विश्लेषण तैयार किया है। जो कि आपको जानना बेहद ही जरूरी है। आज हम तथ्यों के माध्य से इतिहास को समझने की एक ईमानदार पहल करते हैं।

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बात जनवरी 1942 की है जब संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र (चार्टर) बना था। उस वक्त इसमें 26 देश शामिल हुए थे। उसमें भारत के भी साइन हुए थे। भारत उस वक्त काफी मजबूत स्थिति में था। उस वक्त जावहर लाल नेहरू विदेश मंत्री भी थे और उन्हें काफी कुछ तय करना था। चीन में उस वक्त गृह युद्ध चल रहा था। एक तरफ च्यांग काई शेक की कुओमितांग पार्टी और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी थी। इस गृह युद्ध के बाद अमेरिका और बाकी देशों ने राष्ट्रवादी सरकार च्यांग काई शेक को मान्यता दे दी। बाद में माओ त्से तुंग भागकर ताइवान चले गए और वहां सरकार बना ली। तो ये बहस चलती रही कि क्या चीन को ताइवान की सीट दे दी जाए। अमेरिका ये सोचता रहा कि रूस के रूप में पहले से ही एक कम्युनिस्ट देश बैठा हुआ है। ऐसे में क्या चीन को लाया जाए। रूस ने सिक्योरिटी काउंसिल का बहिष्कार कर रखा था। ऐसे में सिक्योरिटी काउंसिल में हमारे प्रतिनिधि बीएन राव थे और यूएनएससी के प्रेसिडेंट भी थे। ऐसे में उत्तर कोरिया के खिलाफ साउथ कोरिया को मदद करते हुए अमेरिका प्रस्ताव लेकर आया था 1950 में तब भारत ने उसे सपोर्ट किया। उसके बाद अमेरिका को लगा कि चीन की जगह क्यों न भारत को लिया जाए। 

 

सर्वपल्ली गोपाल ने जावहर लाल नेहरू की जीवनी लिखी थी। जिसमें 2 अगस्त 1955 के एक पत्र का उल्लेख है कि अमेरिका ने कहा कि चीन को यूनाइटेड नेशन्स में ले लो लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं। भारत को उसकी जगह शामिल किया जाए। तब नेहरू जी ने कहा कि चीन एक महान देश है और ये उसके लिए अच्छा नहीं होगा की वो शामिल न हो। एस. गोपाल-सेलेक्टड वर्क्स आफ नेहरू, खंड 11, पृष्ठ 248 में इससे जुड़े संदर्भ मिल जाएंगे। 

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24 अगस्त 1950 को, नेहरूजी को अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित का एक पत्र भी इसी मुद्दे से जुड़ा है। विजयलक्ष्मी पंडित उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत थीं।

 

इस पत्र में विजयलक्ष्मी पंडित ने अपने भाई को लिखा था, ‘अमेरिका के विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात तुम्हें भी मालूम होनी चाहिये। वह है, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से (ताइवान के राष्ट्रवादी) चीन को हटा कर उस पर भारत को बिठाना। इस प्रश्न के बारे में तुम्हारे उत्तर की रिपोर्ट मैंने अभी-अभी रॉयटर्स (समाचार एजेंसी) में देखी है। पिछले सप्ताह मैंने (जॉन फ़ॉस्टर) डलेस और (फ़िलिप) जेसप से बात की थी... दोनों ने यह सवाल उठाया और डलेस कुछ अधिक ही व्यग्र लगे कि इस दिशा में कुछ किया जाना चाहिये। पिछली रात वॉशिंगटन के एक प्रभावशाली कॉलम-लेखक मार्क़िस चाइल्ड्स से मैंने सुना कि डलेस ने विदेश मंत्रालय की ओर से उनसे इस नीति के पक्ष में जनमत बनाने के लिए कहा है। मैंने हम लोगों का उन्हें रुख बताया ओर सलाह दी कि वे इस मामले में धीमी गति से चलें, क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया जायेगा। जिसके जवाब में जवाहर लाल नेहरू ने क्या लिखा इसे भी जान लीजिए।

 

जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं कि ‘तुमने लिखा है कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से चीन को हटा कर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है. जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे, हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी। चीन का साफ़-साफ़ अपमान होगा और चीन तथा हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा। मैं समझता हूं कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, किंतु इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते।

 

1955 में सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने सुझाव दिया कि भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने के लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है। नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता।

 

सोवियत संघ के नेता बुलागानिन भारत आए और नेहरू के सामने चीन की जगह सुरक्षा परिषद में शामिल करने का प्रस्ताव रखा। बुल्गानिन ने एक सम्मेलन में कहा, ‘हम सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्थिति और तनावों में कमी लाने के बार में बातें कर रहे हैं और यह सुझाव देना चाहते हैं कि भारत को छठे सदस्य के रूप में सुरक्षा परिषद में शामिल किया जा सकता है।’ इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया थी, ‘बुल्गानिन शायद जानते हैं कि अमेरिका में कुछ लोग सुझाव दे रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में चीन की सीट भारत को दी जानी चाहिये। यह तो हमारे और चीन के बीच खटपट करवाने वाली बात होगी। हम इसके सरासर ख़िलाफ़ हैं। 

 

पंडित नेहरू की विदेश नीति पर कांग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने अपने विचार व्यक्त किए थे। जिसे आप नेहरु- दि इनवेंशन आफ इंडिया में पढ़ सकते हैं। जिसमें थरूर ने लिखा कि वर्ष 1953 में अमेरिका ने दक्षिण एशिया के लिए Indian Monre Doctrine की परिकल्पना की थी। लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने अमेरिका के इस प्रयास को खारिज कर दिया था। भारत में कई कूटनीतिज्ञो ने वो फाइल देखी थी और जवाहर लाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। अमेरिका उस वक्त भारत को अपने पक्ष में करना चाहता था। लेकिन पंडित नेहरू नहीं माने। वो अपने आदर्शों को विश्व राजनीति में स्थापित करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने यूएनएससी की स्थायी सदस्यता को चीन की तरफ भेज दिया यानी चीन को वीटो पावर दिलवा दी और अपनी वीटो पावर छोड़ दी। 

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आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ पंडित नेहरू पर इतना था कि वो चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। पंडित नेहरू के इस रूख से अमेरिका बहुत नाराज हुआ था। उस वक्त अमेरिका दुनिया की बहुत बड़ी महाशक्ति था। लेकिन पंडित नेहरू खुलकर अमेरिका की नीतियों की आलोचना करते थे। इसके मूल में पंडित नेहरू के दिल में बचा हुआ समाजवाद था। अमेरिका एक पूंजीवादी देश था। इसलिए उसे नेहरू का रूख भा नहीं रहा था। दूसरी तरफ चीन पर कम्युनिस्ट शासकों का राज था। तब पंडित नेहरू को लगा कि चीन के संस्थापक माओ गरीबों के नेता हैं और उनका लक्ष्य अपनी जनता को रोटी-कपड़ा और मकान मुहैया करवाना है। 

 

वर्ष 1950 में ही सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले ही 7 नवंबर 1950 को देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। लेकिन अपने अंतरराष्ट्रीय आभामंडल और कूटनीतिक समझ के सामने पंडित नेहरू ने किसी कि भी सलाह को अहमियत नहीं दी। जिस चीन को स्थायी सदस्यता दिलाने के लिए नेहरू पूरी दुनिया में समर्थन जुटा रहे थे, उसी चीन ने उनकी पीठ में छुरा भोक दिया। भारत की विदेश नीति के लिए वो दिन बड़ा शर्मनाक था जब पंडित जवाहर लाल नेहरू को अमेरिका से हथियारों की मदद मांगनी पड़ी। उस वक्त अमेरिका के रणनीतिकार ये कहकर भारत को मदद देने का विरोध कर रहे थे कि पंडित नेहरू ने अमेरिका की नीतियों का विरोध किया है, इसलिए उन्हें सबक सिखाया जाना चाहिए। लेकिन आलोचना के बावजूद अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज एफ केनेडी ने भारत को मदद दी थी। आखिर पंडित नेहरू को अपनी गलती की अहसास हुआ और उन्होंने ये स्वीकार भी किया। 

 

रामचंद्र गुहा की किताब भारत गांधी के बाद के अनुसार 8 नवंबर 1962 को प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद में एक प्रस्ताव पेश किया। जिसमें ये आरोप लगाया गया कि चीन ने पंचशील के सिद्धांतों और भारत की एकतरफा दोस्ती के प्रयासों पर भारी हमला करके दगाबाजी की है। ये दर्द महसूस करने लायक है कि हम भारतीयों ने उनकी दोस्ती चाही थी और उनके मुद्दों को पूरी दुनिया में जोर-शोर से उठाया था। अब खुद ही उस देश के साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीतियों के शिकार हो गए है। 

 

क्या है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद

संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुरक्षा एवं शांति बनाये रखने की प्राथमिक जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद (Security Council) की है। इसके अंतर्गत, विश्व के प्रमुख, युद्ध में शामिल रही शक्तियों (राष्ट्रों) - चीन, फ़्रांस, रूस, ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका ने खुद को एक विशेष दर्जा/विशेषाधिकार दिया है, और यह विशेषाधिकार वह शक्तियां हैं जो संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य राष्ट्रों को उपलब्ध नहीं है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कुल 15 देश हैं। इनमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन स्थाई सदस्य देश हैं। वहीं 10 देशों को अस्थाई सदस्यता दी गई है। इनमें बेल्जियम, कोट डी-आइवरी डोमिनिकन रिपब्लिक, गिनी, जर्मनी, इंडोनेशिया, कुवैत, पेरू, पोलैंड, दक्षिण अफ्रीका और भारत के नाम शामिल हैं। गैर-स्थाई सदस्यों का कार्यकाल दो साल के लिए होता है। इसकी गैर- सदस्यता को चुनाव के बाद बढ़ाया जाता है। इसके लिए यूएनएससी पांच स्थाई सदस्यों की सीटों को छोड़कर हर साल पांच गैर-स्थाई सदस्यों के लिए चुनाव कराती है।

 

- अभिनय आकाश

 

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