नरेंद्र मोदी से इतनी नफरत क्यों करता है पश्चिमी मीडिया?

By प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी | Jul 23, 2024

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने दोनों कार्यकालों में पश्चिमी नेताओं के साथ अब तक के सबसे अच्छे संबंध रहे हैं। लेकिन पश्चिमी मीडिया के साथ ऐसा नहीं है, जिसने उन्हें 'ताकतवर' से लेकर 'तानाशाह' तक, कई तरह के शब्दों से संबोधित किया है। अब जबकि 2024 के लोकसभा चुनावों के अंतिम परिणाम आ चुके हैं और नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, तब पश्चिमी मीडिया द्वारा फैलाए गए भारत-विरोधी और मोदी-विरोधी एजेंडे का त्वरित मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है।


भारत ने लोकसभा चुनावों के दौरान विदेशी पर्यवेक्षकों को भारतीय चुनावी प्रक्रिया देखने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने मोदी सरकार पर अल्पसंख्यकों के प्रति “घृणा” से भरे “हिंदुत्व” के एजेंडे को आगे बढ़ाने का अपना सामान्य बयान जारी रखा। दिलचस्प बात यह है कि अधिकांश पश्चिमी मीडिया रिपोर्ट्स में मोदी सरकार की विभिन्न मामलों में कड़ी आलोचना की गई है और विपक्ष को पीड़ित के रूप में पेश किया गया है।


पत्रकारिता का नियम है कि संतुलित रिपोर्टिंग में सभी पक्षों के तथ्य और सभी पक्षों के बयानों को समान रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए। लेकिन चाहे वह दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी का मुद्दा हो या प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव प्रचार भाषण का मुद्दा, जिसमें उन्होंने विपक्षी कांग्रेस पर भारत के नागरिकों के अधिकारों को छीनने का आरोप लगाया था, पश्चिमी मीडिया कवरेज ने पूरे परिदृश्य को विकृत किया और बिना किसी पर्याप्त संदर्भ और दूसरे पक्ष के किसी भी दृष्टिकोण को शामिल किए पक्षपातपूर्ण और एकतरफा बयान जारी किये।

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पूर्वाग्रह से ग्रसित पत्रकारिता


इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ब्रिटिश दैनिक समाचार पत्र 'द गार्जियन' की 2024 के लोकसभा चुनाव कवरेज की कुछ सुर्खियां, जिसमें उन्होंने भारतीय चुनावों को कवर करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से रिपोर्ट प्रकाशित की। आइये 'द गार्जियन' में प्रकाशित लेखों के कुछ शीर्षकों पर नजर डालते हैं- “भारत में चुनाव पूरे जोरों पर हैं, नरेंद्र मोदी हताश-और खतरनाक होते जा रहे हैं”, “पीएम नरेंद्र मोदी का दावा है कि उन्हें भगवान ने चुना है”, भारतीय चुनाव पर द गार्जियन का दृष्टिकोण: नरेंद्र मोदी बने नफरत के सौदागर”, “चुनावी कानूनों की धज्जियां उड़ाई गईं, विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया – मोदी की भाजपा के खिलाफ खड़े होने का परिणाम”, “‘मोदी राजमार्ग बनाते हैं लेकिन नौकरियां कहां हैं?’: भारत के चुनाव पर बढ़ती असमानता”।


इनमें से कुछ हेडलाइनें ‘द गार्जियन’ जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन से नहीं, बल्कि एक सस्ते टैब्लॉयड से सीधे निकली हुई लगती हैं। अत्यधिक पूर्वाग्रह से ग्रसित ये हेडलाइनें शायद किसी सनसनीखेज थ्रिलर के कवर पर या किसी मेलोड्रामैटिक सोप ओपेरा के पंचलाइन के रूप में अधिक उपयुक्त लगेंगी। आप पहला लेख देखें, “भारत में चुनाव पूरे जोरों पर हैं, नरेंद्र मोदी हताश-और खतरनाक होते जा रहे हैं”। यह लेख सलिल त्रिपाठी द्वारा लिखा गया है, जिनका गलत सूचना फैलाने और भारत विरोधी प्रचार करने का इतिहास रहा है। वे PEN इंटरनेशनल राइटर्स इन प्रिज़न कमेटी के अध्यक्ष भी हैं। उनका यह लेख 2002 के गोधरा दंगों के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को दोषी ठहराने की सामान्य कथा से शुरू होता है और उन्हें अपराधी के रूप में चित्रित करता है। त्रिपाठी अपनी सुविधा के अनुसार इस प्रमुख कथा से चिपके रहते हैं और सफेद झूठ का प्रचार करते हैं। वह यह उल्लेख करने की भी परवाह नहीं करते कि भारतीय प्रधानमंत्री को 2002 के गोधरा नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सभी आरोपों से बहुत पहले ही बरी कर दिया गया है। जाहिर है, लेखक यह सब नहीं बताएगा क्योंकि यह उसकी शातिर कथा के अनुकूल नहीं है। लेख का बाकी हिस्सा हमेशा की तरह मोदी की “हिंदुत्व” वाली राजनीति के बारे में  ही चर्चा करता है। लेखक के अनुसार, मोदी की राजनीति खतरनाक और स्पष्ट रूप से विभाजनकारी है। मोदी के भाषण की तीव्रता से पता चलता है कि सत्ता में 10 साल रहने के बाद, उनकी सरकार के पास कोई तरकीब नहीं बची है और वह यह सुनिश्चित करना चाहती है कि भाजपा के मुख्य मतदाता उनका साथ न छोड़ें।


चुनाव आयोग पर प्रहार


'द गार्जियन' के अलावा जर्मन ब्रॉडकास्टर 'डॉयचे वेले' भी अपने इसी एजेंडे में लगा हुआ है। 'डॉयचे वेले' ने हाल ही में एक लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था, “क्या भारत का चुनाव आयोग मोदी के खिलाफ शक्तिहीन है?” यह लेख भी प्रधानमंत्री मोदी के चुनावी भाषण पर केंद्रित है। लेख में उनके भाषण को सनसनीखेज बनाने की कोशिश की गई है, जिसमें कहा गया है कि उनके शब्द इस्लामोफोबिया में डूबे हुए थे। लेकिन जाने अनजाने में लेखक ने इस लेख में ऐसे तथ्य भी प्रस्तुत कर दिये, जो दिखाते हैं कि मोदी सरकार ने अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए सबसे अधिक योजनाएँ चलाई हैं। लेख में सुविधाजनक रूप से उस संदर्भ को भी छोड़ दिया गया है, जिसमें मोदी ने टिप्पणी की थी कि धर्म के आधार पर आरक्षण प्रदान करना भारतीय संविधान की भावना और प्रावधानों के विरुद्ध है। लेख में इस बात पर बहस की जा सकती थी कि क्या धर्म के आधार पर आरक्षण प्रदान करना वास्तव में भारतीय संविधान की मूल बातों के विरुद्ध है, या इसके लिए कोई जगह है? लेकिन इस तरह के काम के लिए गहन शोध की आवश्यकता होती है और कम से कम यहाँ 'डॉयचे वेले' का इरादा निष्पक्ष समाचार रिपोर्टों के बजाय पक्षपाती और इमोशनल क्लिकबेट कहानियों को जगह देना था। लेख में भारत के चुनाव आयोग को एक “निष्क्रिय दर्शक” भी कहा गया है और किसी तरह यह स्थापित करने के लिए अज्ञात स्रोतों का हवाला दिया गया है कि चुनाव आयोग “एक पार्टी” के प्रति पक्षपाती है। देश के चुनाव आयोग के खिलाफ चुनावों के बीच में बिना किसी सबूत के और अज्ञात स्रोतों द्वारा दिए गए सामान्यीकृत बयानों के आधार पर आकस्मिक आरोप लगाना क्या वाकई में पत्रकारिता है। हालाँकि, ऐसा लगता है कि यह मतदाताओं को प्रभावित करने और भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने का एक बहुत ही सूक्ष्म प्रयास है।


नैरेटिव के अनुकूल खबरें


इसी तरह 'सीएनएन' भी मोदीफोबिया के रथ पर सवार होकर यह लेख लिखता है कि "भारत का चुनाव अभियान नकारात्मक हो गया है क्योंकि मोदी और सत्तारूढ़ पार्टी इस्लामोफोबिया की बयानबाजी को अपना रहे हैं"। लेकिन, इनमें से एक भी मीडिया आउटलेट महिलाओं के खिलाफ भयानक संदेशखली हिंसा, या टीएमसी के लोगों द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं की बेरहमी से हत्या, या भाजपा की नूपुर शर्मा की टिप्पणियों का समर्थन करने के लिए कन्हैया कुमार की बेरहमी से हत्या जैसे मुद्दों पर बात नहीं करता। 'द गार्जियन', 'डॉयचे वेले', 'सीएनएन' आदि जैसे मीडिया आउटलेट इन मुद्दों को कवर नहीं करते, क्योंकि ये उनके नैरेटिव के अनुकूल नहीं हैं, लेकिन कुछ मुद्दों पर पक्षपातपूर्ण कवरेज करके भारत विरोधी प्रचार जरूर करते हैं।


इसी कड़ी में फाइनेंशियल टाइम्स ने लिखा, ‘लोकतंत्र की जननी की हालत अच्छी नहीं है।’ न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो ‘मोदी का झूठ का मंदिर’ बताया, जबकि फ्रांस के प्रमुख अखबार ले मॉन्द ने लिखा, ‘भारत में केवल नाम का लोकतंत्र है।’ अमेरिकी न्यूज चैनल 'फॉक्स' ने 20 मई को लिखा, ‘अयोध्या में अल्पसंख्यकों को लगातार डराया जा रहा है।‘ 'सीएनबीसी' ने चुनाव को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया है, वहीं 'सीबीएस' टेलीविजन नेटवर्क ने मोदी के चुनाव प्रचार को अल्पसंख्यक विरोधी बताया है।


भारत की छवि धूमिल करने का प्रयास


जब लगभग सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन भारत की आलोचना कर रहे थे, तो नई दिल्ली स्थित विदेशी संवाददाता भी उसमें शामिल हो गए। आस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की दक्षिण एशिया ब्यूरो प्रमुख अवनी डायस ने यह दावा करते हुए भारत छोड़ दिया कि उन्हें वीजा नहीं मिला और चुनाव कवरेज का मौका नहीं दिया गया। हालांकि ऐसा नहीं था, उनकी वीजा अवधि 18 अप्रैल, 2024 को समाप्त हो गई थी। वीजा बढ़ाने के लिए उन्होंने न तो फीस भरी थी और न अन्य औपचारिकताएं ही पूरी की थीं। बावजूद इसके अवनी ने भ्रामक बयान दिया। इसके बाद वह वापस लौटी तो 'द आस्ट्रेलिया टुडे' ने एक रिपोर्ट में लिखा कि अवनी ने अपनी नई नौकरी और शादी के लिए भारत छोड़ा था।


जाहिर है अवनी झूठ बोल रही थी। उनका मकसद रिर्पोटिंग करना नहीं, बल्कि सरकार की छवि को बिगाड़ना था। इस घटना के तत्काल बाद 30 विदेशी पत्रकारों ने संयुक्त बयान जारी किया। इसमें उन्होंने कहा कि, ‘‘भारत में विदेशी पत्रकार, विदेशी नागरिक का दर्जा रखने वाले वीजा और पत्रकारिता परमिट पर बढ़ते प्रतिबंधों से जूझ रहे हैं।’’ दरअसल पश्चिमी मीडिया की ज्यादातर कोशिश यही रहती है कि वह भारत के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप पर फर्जी खबरें तैयार भारत की छवि को धूमिल कर सकें।


पश्चिमी मीडिया का मोदीफोबिया अंतहीन है। वह लगातार भारत के खिलाफ नकारात्मक एजेंडा चलाता रहता है। दरअसल पश्चिम की यह लॉबी अभी भी भारत की आर्थिक प्रगति को स्वीकार नहीं कर पा रही है। इसलिए हर स्तर पर देश को अस्थिर करने के प्रयास किए जाते हैं। इस बार के चुनावों में भी योजनाबद्ध तरीके से ऐसा ही किया गया, लेकिन देश के लोगों ने भाजपा और राजग पर भरोसा दिखाया और इस साजिश को सफल नहीं होने दिया।


- प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी,

पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली

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