आजादी के अमृतकाल के पहले लोकसभा एवं पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की आहट अब साफ-साफ सुनाई दे रही है, राज्यों में चुनावी सरगर्मियां उग्र हो चुकी है। भारत के सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह चुनावी मुद्रा में आ गये हैं और प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल इसी के अनुरूप बिछ रही चुनावी बिसात में अपनी गोटियां सजाने में लगे दिखाई पड़ने लगे हैं। जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें राजस्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण बनता जा रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बहुत पहले ही विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस ली है, वे हर दिन किसी-न-किसी लुभावनी एवं जनकल्याणकारी योजना की घोषणा करते हुए दिखाई दे रहे हैं। चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा सहित विभिन्न योजनाओं की तरह अब उन्होंने प्रदेश के 240 राजकीय विद्यालयों को महात्मा गांधी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में रूपांतरित करने का ऐलान किया किया है। निश्चित ही एक आदर्श राज्य के रूप में गहलोत की योजनाओं की देशभर में चर्चा हो रही है, लेकिन क्या इन योजनाओं के बल पर वे पुनः सत्ता प्राप्त करने में सफल हो पायेंगे? असल में गहलोत का मुकाबला इस बार सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। मोदी पहले सीकर एवं अब जोधपुर में जनता का मानस बदलने एवं राजस्थान के गहलोत सरकार के घोटालों को उजागर किया है।
लोकलुभावन घोषणा एवं मुक्त की रेवड़ियां राजस्थान की तरह ही मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान भी बांट रहे हैं, अभी तो इनके बल पर चुनाव जीते जा सकते हैं, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए दोनों ही प्रांतों की चुनी सरकारों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा, क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति उन्हें पूरा करने की अनुमति दे पाएंगी, इसमें संदेह है। जैसी गारंटियां, लोकलुभावन वादे एवं मुक्त की रेवड़ियां देने की परम्परा दक्षिण से शुरु हुई थी, वैसी ही अब देश के अन्य प्रांतों में वहां की सरकारें कर रही हैं। अभी हाल में दिल्ली नगर निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने दस गारंटियां दी थीं। ये गारंटियां और कुछ नहीं लोकलुभावन वादे ही थे, जिन्हें जनकल्याण का नाम दिया गया है। मध्य प्रदेश में मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान एवं राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनाव से छह महीने पहले ही लोक कल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा रखी है जिससे राज्य का चुनावी माहौल और गर्मा रहा है।
निश्चित ही राजस्थान में लोकलुभावनी योजनाओं का जनता को लाभ मिला है, राजस्थान का कायाकल्प भी हुआ। गहलोत अपने राजनीतिक जीवन की सबसे चुनौतीपूर्ण पारी खेलते हुए एक कद्दावर नेता के रूप में सामने आ रहे हैं। लेकिन मतदाता के मन में ये योजनाएं हैं या और कुछ? यह वक्त ही बतायेगा। लेकिन एक बात बहुत स्पष्ट है कि मतदाता अब ज्यादा जागरूक हुआ है तो गहलोत भी ज्यादा सर्तक, समझदार एवं चालाक हुए हैं। उन्होंने जिस प्रकार चुनावी शतरंज पर काले-सफेद मोहरें बिछाने शुरु कर दिये हैं, उससे मतदाता भी उलझा हुआ प्रतीत करेगा। अपने हित की पात्रता नहीं मिल रही है। कौन ले जाएगा प्रदेश की लगभग आठ करोड़ जनता को आजादी के अमृतकाल में। सभी नंगे खड़े हैं, मतदाता किसको कपड़े पहनाएगा, यह एक दिन के राजा पर निर्भर करता है। सभी इस एक दिन के राजा को लुभाने में जुटे हैं। कोई मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लेकर चुनाव जीतने की कोशिश करने में जुटा है तो कोई गठबंधन को आधार बनाकर चुनाव जीतने के सपने देख रहा है।
विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां उग्रता पर है, इस बार का चुनाव काफी दिलचस्प एवं चुनौतीपूर्ण होने वाला है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह भाजपा की स्थिति को मजबूती देते हुए गहलोत सरकार को पछताड़े में लगे हैं। लेकिन भाजपा की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपनी हार के कारणों को बड़ी गहराई से लेते हुए उन कारणों को समझने एवं हार को जीत में बदलने के गणित को बिठाने में माहिर है। गहलोत प्रखर नेता के रूप में न केवल भीतर संघर्ष कर रहे हैं बल्कि भाजपा को चुनौती देने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने दूरगामी सोच एवं राजनीतिक कौशल से अनेक प्रभावी योजनाओं को लागू किया है। आज राजस्थान एक ‘आदर्श राज्य’ के रूप में उभरा है या नहीं? यह देश के सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाले राज्यों में से एक है भी या नहीं है? यह विश्लेषण के विषय हैं। आज देश में राजस्थान की चर्चा सबसे अच्छी सड़कों, सबसे अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं, सबसे अधिक विश्वविद्यालयों व सबसे आगे बढ़ने वाले राज्य से अधिक गहलोत की योजनाओं के रूप में हो रही है और यह सब योजनाएं चुनावी रथ पर सवाल होकर जीत को सुनिश्चित करने की चेष्ठा है।
किसी भी राष्ट्र के जीवन में चुनाव सबसे महत्त्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है। लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है। राष्ट्र के प्रत्येक वयस्क के संविधान प्रदत्त पवित्र मताधिकार प्रयोग का एक दिन। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं बैठता अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाकर नायक चुनती है। लेकिन पांच राज्यों में जनता तिलक किसको लगाये, इसके लिये सब तरह के साम-दाम-दंड अपनाये जा रहे हैं। हर राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन वायदों एवं घोषणाओं को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बता रहे हैं, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है। लेकिन ऐसा होता तो आजादी के अमृतकाल तक पहुंच जाने के बाद भी देश एवं प्रदेश गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य समस्याओं से नहीं जुझता दिखाई देता। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ''अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।''
राजस्थान के चुनाव का नतीजा अभी लोगों के दिमागों में है। मतपेटियां क्या राज खोलेंगी, यह समय के गर्भ में है। पर एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य आदि समस्याओं पर नकेल डाली जा सकती है। लेकिन देश एवं प्रदेश बनाने एवं विकास की ओर अग्रसर करने की बजाय सभी दल मुक्त रेवडियां बांट कर एक अकर्मण्य पीढ़ी को गढ़ने की कुचेष्टा करते हैं या येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीत का सेहरा अपने सीर पर बांधना चाहते हैं। कई बार तो ऐसी घोषणाएं भी कर दी जाती हैं, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं होता। उन्हें या तो आधे-अधूरे ढंग से पूरा किया जाता है या देर से अथवा उनके लिए धन का प्रबंध जनता के पैसों से ही किया जाता है। उदाहरणस्वरूप दिल्ली एवं कर्नाटक सरकार ने बिजली मुफ्त देने के वादे को पूरा करने के लिए बिजली महंगी कर दी या नई गलियां निकाल ली। इसी तरह पंजाब सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर वैट बढ़ा दिया। चुनाव जीतने के लिए वित्तीय स्थिति की अनदेखी कर लोकलुभावन वादे करना अर्थव्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ है। इस पर रोक नहीं लगी तो इसके दुष्परिणाम जनता को ही भुगतने पड़ेंगे। जो चुनाव सशक्त एवं आदर्श शासक नायक के चयन का माध्यम होता है, उससे अगर नकारा, ठग एवं अलोकतांत्रिक नेताओं का चयन होता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं देश की विडम्बना है।
लेकिन गहलोत की ताजा शिक्षा योजना यदि चुनाव से न जुड़ी होती तो इस एक योजना से वे अनुकरणीय एवं आदर्श राजनेता बनकर उभरते? प्रश्न है कि ऐसी योजनाएं चुनाव के समय ही क्यों लागू की जाती है? आजादी के अमृतकाल में भी देश का गरीब तबका समुचित शिक्षा से वंचित है। विद्यालयों की फीस देने में वह खुद को असमर्थ पाता है जिसकी वजह से उसमें हताशा का संचार भी देखने भी आया है। ऐसे वातावरण में सरकारों का ही यह दायित्व बनता है कि वे समाज के निचले तबकों को ऊपर उठाने के लिए शिक्षा के स्तर से ही ऐसी शुरूआत करें जिससे गरीब से गरीब का मेधावी बालक भी अपने सपनों को पूरा करके ऊंचे से ऊंचे पद तक अपनी योग्यता के अनुसार पहुंच सके। लोकतन्त्र में यह दायित्व सरकारों का ही होता है कि वे आम आदमी के जीवन की आवश्यक जरूरतों की पूर्ति करने की व्यवस्था हेतु अनिवार्य आधारभूत ढांचा खड़ा करें। निश्चित ही एक सराहनीय शुरूआत गहलोत ने की है वह देश की सभी राज्य सरकारों के लिए नजीर बन सकती है। राजस्थान सरकार ने गांवों के स्तर पर अंग्रेजी माध्यम के आधुनिक स्कूल खोल कर यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि किसी किसान-मजदूर का बेटा-बेटी भी केवल अंग्रेजी ज्ञान न होने की वजह से ही जीवन में न पिछड़े और उच्च शिक्षा के मोर्चे पर भी आगे रहे।
- ललित गर्ग