सरकारी खर्चे पर देशभर के अखबारों में क्यों विज्ञापन देते हैं केजरीवाल?

By शिव शरण त्रिपाठी | Jul 30, 2020

दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार के मुखिया अरविन्द केजरीवाल की अराजक राजनीति तो पूरा देश अनेक बार देख ही चुका है पर उनकी छपास चाह का भी कोई जोड़ नहीं है। सत्ता में आने के बाद उन्होंने जिस तरह नियमों, कानूनों की सीमाओं से बाहर जाकर दिल्ली के बाहर के अखबारों/टीवी चैनलों में विज्ञापन छपवाने के सारे रिकार्ड तोड़ दिये उस पर अनेक बार उनकी तीखी आलोचनायें हुई। सुप्रीम कोर्ट तक ने फटकार लगाई पर केजरीवाल पर कोई फर्क नहीं पड़ा।


नतीजतन उन्होंने एक बार पुन: नियमों कानूनों को धता बताते हुये दिल्ली के बाहर के अखबारों ने गत 15 जुलाई को दिल्ली के सरकारी स्कूलों के परीक्षा परिणामों को लेकर पूर्ण पृष्ठ के विज्ञापन छपवा डाले। इन विज्ञापनों पर लाखों रुपये खर्च करने को लेकर विवाद उठना ही था। इसको लेकर मामला अदालत तक पहुंच गया है। केजरीवाल सरकार पर सवाल उठाये जा रहे हैं कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों के बेहतर परीक्षा परिणामों के विज्ञापन आखिर दिल्ली के बाहर के अखबारों में छपवाने का मतलब भी क्या है। वो भी पूर्ण पृष्ठ के विज्ञापनों में अपनी तस्वीर के साथ! सीधी-सी बात है मुख्यमंत्री केजरीवाल को छपास की ऐसी चाह लग चुकी है जिससे वो मुक्ति पाने को तैयार नहीं हैं।

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सूत्रों का कहना है कि नियमानुसार दिल्ली सरकार कोई भी सजावटी विज्ञापन दिल्ली के बाहर के अखबारों में प्रकाशित नहीं करा सकती। यदि दिल्ली के बाहर का अखबार दिल्ली सूचना विभाग से विज्ञापन की मांग करता है तो उसे नियमों का हवाला देकर विज्ञापन देने से इंकार कर दिया जाता है। सूत्रों के अनुसार हालांकि दिल्ली के बाहर के अखबारों में विज्ञापन छपवाकर लाखों रुपये स्वाहा किये जाने का यह पहला मामला नहीं है। केजरीवाल ने यह खेल सत्ता में आते ही शुरू कर दिया था। अपनी छवि चमकाने के लिये उन्होंने विज्ञापनों के मद में भारी भरकम राशि खर्च करनी शुरू कर दी थी।


तत्कालीन रपटों के अनुसार आम आदमी पार्टी सरकार ने पिछले तीन वर्षों में विज्ञापन में वार्षिक आधार पर औसत 70.5 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, जो पिछली सरकारों द्वारा प्रिंट, इलेक्ट्रानिक मीडिया और बाहरी विज्ञापन पर किए गए खर्च का चार गुना ज्यादा है। यह जानकारी सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत आए जवाब में मिली है। आईएएनएस के द्वारा दाखिल आरटीआई के जवाब में सूचना एवं प्रचार निदेशालय (डीआईपी) ने बताया कि मौजूदा सरकार ने फरवरी 2015 में कार्यकाल शुरू करने के बाद उस साल विज्ञापन में 59.9 करोड़ रुपये, अगले वर्ष 66.3 करोड़ रुपये और 31 दिसंबर 2017 तक 85.3 करोड़ रुपये खर्च किए।


आप सरकार द्वारा अप्रैल, 2015 से दिसंबर 2017 तक किया गया औसत खर्च 70.5 करोड़ रुपये है। कांग्रेस ने अपने शासन (2008-2013) तक पांच वर्षों में औसत 17.4 करोड़ रुपये खर्च किए। डीआईपी के अनुसार, विज्ञापन के लिए किए गए खर्च में मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रियों के फोटो के साथ अखबारों और होर्डिग्स में विज्ञापन, टीवी और रेडियो में विज्ञापन, अखबार में प्रकाशित टेंडर नोटिस शामिल है। उदाहरण के तौर पर, जब आप सरकार ने वर्ष 2016 और 2017 में क्रमश: अपनी पहली और दूसरी वर्षगांठ पूरी की, राजधानी के अखबारों में सरकार की उपलब्धियों का बखान करने वाले विज्ञापनों को पूरे पृष्ठ में प्रकाशित किया गया।

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सरकार के तीन वर्ष पूरे होने पर, सरकार ने फरवरी के पहले दो हफ्तों में मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रियों के तस्वीर के विज्ञापन प्रकाशित किए। विज्ञापनों में सामुदायिक शौचालयों, छात्रों के बीच उत्कृष्टता पुरस्कारों का वितरण, स्मार्ट गांव पर सरकार की बैठक और छात्रवृत्ति योजनाओं के आवेदन के बारे में बताया गया। कांग्रेस सरकार की तुलना में आप सरकार ने विज्ञापनों पर 300 प्रतिशत ज्यादा खर्च की।


सूत्रों के अनुसार सीएजी ने दिल्ली सरकार द्वारा विज्ञापन हेतु 526 करोड़ रुपए के बजट के दुरुपयोग पर पहली बार चेताते हुये बताया था कि 29 करोड़ के विज्ञापन दिल्ली से बाहर दिये गये। सूचना मंत्रालय द्वारा नियुक्त तीन सदस्यीय समिति यदि सभी राज्यों में सरकारी विज्ञापन के दुरुपयोग पर दिल्ली की तर्ज पर पैसा वसूली का निर्देश जारी करे तो सुप्रीम कोर्ट का आदेश देशभर में प्रभावी हो सकता है।

 

यही नहीं दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल ने तो सरकारी विज्ञापनों का पार्टी हित में दुरुपयोग करने के आरोप में 89 करोड़ आम आदमी पार्टी से वसूलने की प्रक्रिया प्रारंभ करने के निर्देश तक दे दिये थे। तब बहस छिड़ गई थी कि अधिकारियों के सहयोग और आदेश के बगैर सरकारी पैसे का दुरुपयोग संभव नहीं है, ऐसे में सरकारी धन के दुरुपयोग पर अधिकारियों पर आपराधिक कार्रवाई करने के साथ इनसे पैसे वसूलने का यदि नियम लागू हो जाये तो पूरे देश में गवर्नेंस सुधर सकता है।

 

सूत्रों का कहना है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल व उनकी सरकार विज्ञापनों के मामले में इसलिये बार-बार निरकुंशता का प्रदर्शन कर रही है कि उसे मालूम है इस देश में किसी राजनेता का वो कुछ भी करें, कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। फिर राजनीति का माहिर खिलाड़ी बन चुके केजरीवाल को तो अपनी ईमानदारी, साख व छवि पर इतना नाज है कि वो किसी अन्य नेता को कुछ समझते ही नहीं। आज भले ही अनेक मुद्दों पर पूरा देश उनकी आलोचना करता हो, पर जिस तरह उन्होंने दिल्ली में हनक के साथ दुबारा सत्ता हथिया ली उससे उनकी सेहत पर कुछ भी असर तो नहीं ही पड़ता दिखाई देता।


कहा जा सकता है कि शातिर राजनीति के माहिर खिलाड़ी बन चुके दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल अब पूरी तरह मनमानी पर उतर आये हैं। उन्हें न तो किसी कानून कायदे का भय रह गया है और न ही देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट का। यदि ऐसा होता तो वो नियमों के विपरीत अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा दिल्ली के बाहर के अखबारों व चैनलों में भारी भरकम विज्ञापन देकर अपनी सीमाओं को बार-बार लांघने का दुस्साहस तो न ही करते। तुर्रा यह कि अगस्त 2019 में केजरीवाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर आरोप लगाया था कि मोदी सरकार उनके विज्ञापन नहीं छपने दे रही है। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने फटकार लगाते हुये कहा था कि रोजाना अखबारों में दिल्ली सरकार के विज्ञापन दिखाई देते हैं। आखिर विज्ञापन कहां रूक रहे हैं? और तो और कभी विज्ञापन में संविधान के मूल शब्दों 'समाजवाद' व 'धर्मनिरपेक्ष' को ही गायब कर देना तो कभी सिक्किम को अलग देश लिख देना और आलोचना होने पर कुतर्क करना इस सरकार की आदत बन गई है। यह भी कि विज्ञापन खर्च पर सवाल पूछने वाले मुंबई के एक सामाजिक कार्यकर्ता को दिल्ली आकर फाइलों का निरीक्षण करने की सलाह देना यह दर्शाता है कि केजरीवाल के लिये मर्यादाओं का भी कोई महत्व नहीं रह गया है।


-शिव शरण त्रिपाठी

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