वीर अंगद का रोम-रोम प्रभु श्रीराम जी के प्रभुत्व से सूर्य की भाँति धधक रहा था। जिसमें रावण की संपूर्ण आभा भस्म होकर शून्य हो रही थी। रावण ने जो यह बात कही, कि वह वीर अंगद की बातों को इसलिए सहन कर रहा है, क्योंकि वह धर्म और नीति का समर्थक है। उसे सुन कर वीर अंगद को मानो हँसी-सी आ गई और उन्होंने रावण पर ऐसा पलटवार किया, कि उसे अगर तनिक-सी भी लज्जा होती, तो वह अपने प्राण त्याग देता। जी हाँ, वीर अंगद रावण को फटकार लगाते हुए बोले-
‘कह कपि धर्मसीलता तोरी।
हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी।।
देखी नयन दूत रखवारी।
बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी।।’
वीर अंगद ने कहा, कि वाह रावण वाह! तुम्हारे मुख से धर्म की बात सुन कर मुझे आश्चर्य हो रहा है। कारण कि तुम्हारा धर्म मैं अच्छी प्रकार से समझता हूँ। क्या कोई परस्त्री की चोरी कर भी धर्म का अनुयायी कहलवा सकता है? अगर तुम इतने ही साहसी व धर्म परायण होते, तो तुमने श्रीराम जी से युद्ध करके माता सीता को जीतने का प्रयास क्यों नहीं किया? वैसा तो तुम कर ही नहीं सकते थे। कारण कि साधारण सा सर्प, क्या कभी गरूड़ से लोहा लेने का संकल्प ले सकता है? रही बात, कि तुम नीति के पक्षधर हो। तो यह तो मैंने इस सभा में आकर स्वयं से किए गए सतकार से समझ ही लिया है। जो राजा अपने समक्ष उपस्थित दूत को बैठने के लिए आसन तक नहीं दे सकता, वह क्या नीति समझेगा? मुझसे पूर्व भी श्रीहनुमान जी, तुम्हारे पास दूत बनकर ही आये थे। तब तुमने उनका कैसा सत्कार किया था, यह तो संपूर्ण जगत में प्रसिद्ध है। ऐसे नीति व धर्म के पुरोधा कहलाने वाले हे रावण! मैं तो तुम्हें एक बात कहता हूँ, कि तुम डूबकर मर क्यों नहीं जाते।
फिर वीर अंगद ने एक और शब्द बाण छोड़ा। जिसे श्रवण कर रावण बगलें झांकने लगा। वीर अंगद ने कहा, कि हे रावण! तुम्हारे धर्म की एक महान घटना तो मैं भूल ही गया। वह यह, कि तुमने जब अपनी बहन सूर्पनखा के कटे नाक व कान देखे, तो तुमने किस विशेष स्नेह के चलते, अपनी बहन को क्षमा कर दिया। कारण कि सूर्पनखा ने श्रीराम की पत्नी व श्रीलक्ष्मण जी की माता समान, श्रीसीता जी को मारने के प्रयास का अक्षम्य अपराध किया था। जिसका तुम्हें भी सूर्पनखा के लिए कोई उचित दण्ड सोचना ही चाहिए था। लेकिन एक बार भी अपनी बहन को धर्म के मार्ग का अनुसरण करने के लिए नहीं कहा। उसे तनिक भी नहीं लताड़ा, कि हे मेरी दुष्ट बहन, तुम्हें जब दोनों तपस्वियों ने स्वीकारने से मना कर दिया था, तो तुमने बलपूर्वक अपनी बात मनवाने की हठ क्यों की? केवल हठ ही की होती, तो भी बात संभल जाती। लेकिन तुमने तो उन तपस्वियों के साथ उपस्थित उस स्त्री को ही मारने का प्रयास किया। तो ऐसे में तो तुम्हारे केवल नाक-कान ही नहीं, अपितु सीधा गला ही कटना चाहिए था। हे रावण, सच-सच बताना, कि तुमने ऐसा एक भी शब्द अपनी बहन को बोला? नहीं बोला न, कारण कि तुम्हें धर्म से कोई लेना-देना होता, तो तुम अवश्य ही पहले अपनी बहन को नथते। लेकिन तुम्हें तो हर बात में अपना मिथ्या बल दिखाने का चाव है न? जिसका परिणाम यह हुआ, कि तुमने अपनी मृत्यु के साधन को स्वयं ही अंगीकार कर लिया-
‘कान नाक बिनु भगिनि निहारी।
छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी।।
धर्मसीलता तव जग जागी।
पावा दरसु हमहुँ बड़भागी।।’
सच कहुँ तो ऐसे धर्मशील व्यक्ति के दर्शन करके, मैं तो धन्य-धन्य हो उठा।
रावण वीर अंगद के इस कटाक्ष से भीतर तक जल भुन गया। और वह अपने बल का बखान फिर से करने लगा। और अपने बल के समक्ष वह वानर सेना के समस्त योद्धाओं के बल को, कम करके आँकने लगा। उसने सोचा, कि शायद उसके ऐसा करने से बालिसुत अंगद तनिक भय से आलिंगन तो करेगा। लेकिन वीर अंगद ने भला कहाँ किसका भय मानना था? उल्टा उन्हें तो रावण पर व्यंग्य करने का एक और अवसर प्राप्त हो गया था।
वीर अंगद रावण को क्या सीख देते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती