प्रजापति दक्ष को देवताओं का नायक क्या बना दिया, वे तो मद में चूर ही हो गये। वे स्वयं को ब्रह्मा, विष्णु व महेश से भी बड़ा समझने लगे। अब वे अपनी प्रभुताई का प्रदर्शन कैसे करें? इसके लिए उन्होंने अपने दरबार में बड़ा भारी उत्सव व यज्ञ रखा। जिसमें बड़े-बड़े ऋर्षि मुनि व देवता गणों को आमंत्रण दिया गया। किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व एवं सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों सहित, अपने-अपने विमान सजाकर, आकाश मार्ग से प्रजापति दक्ष के यज्ञ कार्यक्रम में जा रहे थे-
‘किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा।
बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा।।
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई।
चले सकल सुर जान बनाई।।’
केवल ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश जी ही ऐसे थे, जिन्हें प्रजापति दक्ष ने संदेश नहीं दिया था। हालाँकि ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी से उनका कोई व्यक्तिगत दुराव नहीं था। लेकिन महेश जी से उनकी एक बार ठन गई थी। जिसके कारण वे ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी से दूरी बना कर रख रहे थे।
प्रजापति दक्ष का, शंकर जी के साथ जो क्लेश हुआ, उसे भी तनिक हम जान ही लेते हैं। एक बार ब्रह्मा जी के दरबार में एक सभा लगी, जिसमें भगवान शंकर जी भी पधारे हुए थे। बड़ा सुंदर वातावरण सजा हुआ था। एक से एक महात्मा व देवता गण पहुँच रहे थे। जिनका यथायोग्य स्वागत किया जा रहा था। तभी उस सभा में जब दक्ष पहुँचे, तो सभी ने उनका स्वागत किया। लेकिन भगवान शंकर अपने आसन से दक्ष को निहारते तक नहीं हैं। नमस्कार अथवा आर्शीवाद देना तो बहुत दूर की बात है। ऐसा नहीं कि भगवान शंकर ने ऐसा व्यवहार जान बूझ कर किया हो। वास्तव में वे उस समय समाधि भाव में थे। जिस कारण उन्हें पता ही नही चला, कि सभा में कौन आ रहा है, और कौन नहीं आ रहा। दक्ष ने इसी बात को दिल पे ले लिया, कि हाँ-हाँ, महेश ने मेरा स्वागत क्यों नहीं किया? दक्ष सोचने लगे, कि अवश्य ही भगवान शंकर ने उसका जान बूझ कर अपमान किया है। तभी से दक्ष, भगवान शंकर को अपना शत्रु समझने लगे। यही कारण था, कि प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती जी को भी, रोकने का हर संभव प्रयास किया, कि वह भगवान शंकर जी के साथ परिणय सूत्र में न बँधे। लेकिन यह तो श्रीसती जी की हठ थी, जिसे उन्होंने अनेक बाधायों के रहते भी पार किया, और भगवान शंकर जी की अर्धांग्नि बनी।
आज जब प्रजापति दक्ष ने अपने महलों में यज्ञ का आयोजन रखा, तो उसी दुराव के चलते उसने तीनों देवों को नहीं बुलाया। लेकिन जब सती जी ने यह देखा, कि अनेकों देवी देवता अपने-अपने विमानों पर चढ़ कर कहीं जा रहे हैं, तो उसने जिज्ञासावश भगवान शंकर जी से पूछा। तब भगवान शंकर जी ने संपूर्ण घटनाक्रम बताया। श्रीसती जी ने जब यह सुना, तो एक बार उनका मन उदास हो गया। अपनी गलती और भोलेनाथ जी द्वारा उनका त्याग करने वाली घटना से वे तो, वे स्वयं से पहले ही खिन्न थी, लेकिन जब देखा, कि सभी पिता के यज्ञ में जा रहे हैं, तो वह और भी खिन्न हो गई। तब श्रीसती जी ने कहा, कि ‘हे प्रभु! जब सभी देवता गण अपनी-अपनी पत्नियों सहित, मेरे पिता के यज्ञ में जा रहे हैं, तो हम क्यों नहीं जा रहे? आप आज्ञा दें तो कुछ दिन मैं पिता के घर भी लगा आती-
‘पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोई।।’
श्रीसती जी ने अपने शब्दों में विशेष तौर पर बल देकर कहा, कि आपकी आज्ञा हो, तो मैं आदर सहित पिता के यहाँ होकर आती हुँ।
यह सुन कर भगवान शंकर जी ने कहा, कि ‘हे सती! तुमने बात तो बड़ी अच्छी कही है। यह मेरे मन को भी अच्छी लगी। लेकिन समस्या यह है, कि प्रजापति दक्ष ने हमें न्योता नहीं भेजा है, जो कि अनुचित है। दक्ष ने बाकी सभी बेटियों को बुलाया है, लेकिन मेरे संग बैर के चलते, उन्होंने तुमको भी भुला दिया है-
‘जौं बिनु बोलें जाहु भवानी।
रहइ न सीलु सनेहु न कानी।।’
इसलिए हे सती! अगर बिना बुलाये आप वहाँ जायेंगी, तो ऐसे में न तो सील-स्नेह ही रहेगा, और न ही मान-मर्यादा। हालाँकि इसमें भी कोई संदेह नहीं, कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए, लेकिन तब भी अगर जहाँ भी कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता है।
क्या श्रीसती जी भगवान शंकर जी के वचनों को मान आराम जे बैठ जाती है, अथवा इस बार भी अपने मन की ही करती है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती