श्री रामजी का बाण बालि की छाती को भेदकर आरपार हो गया। बालि का हृदय यूं छलनी हुआ कि बालि पलट के औंधे मुँह जा गिरा। छाती से रक्त का व्वारा पूफटा और पूरी धरती को लाल रंग में रंगने पर उतारू था। विशालकाय बालि के धरती पर ‘धड़ाम’ करके गिरने से मानों धरती भी अपनी धुरी से कंपित हो डगमगा गई। सुग्रीव का बालि ने जो अब तक गला पकड़ा हुआ था, वह छूट गया। सुग्रीव की भी मानों जान में जान आ गई। प्राण सुरक्षित बच जाने का आभास सा प्रतीत हुआ। लेकिन आँखों के समक्ष अभी भी अंधेरा छाया हुआ है। कुछ भी हो, सुग्रीव यह तो आश्वस्त था श्रीराम जी का बाण बालि की छाती में जा धंसा है। तभी तो सुग्रीव की छाती कुछ ठंडक महसूस कर रही थी। और इध्र बालि ध्रा पर गिरा अवश्य था, लेकिन मरा नहीं था। उसने जैसे, तैसे हिम्मत जुटाकर शीश उठाकर श्रीराम जी की और निहारा तो बस निहारता ही रह गया। बालि प्रभु का अतिअंत ही सुंदर रूप देखता है-
परा विकल महि सर के लागें।
पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे।।
स्याम गात सिर जटा बनाएँ।
अरुन नयन सर चाप चढायुँ।।
अर्थात बाण लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, परंतु प्रभु श्रीराम जी को देखा तो बड़ी आश्चर्य वाली घटना घटी। वह यह कि बालि पहले की ही तरह पिफर से उठ खड़ा हुआ। प्रभु का श्याम शरीर है, सिर पर जटा बनाए हैं, लाल नेत्रा हैं, बाण लिए हैं और ध्नुष चढाये हैं। श्रीराम जी के समक्ष अब दोनों ही भाई खड़े हैं। यद्यपि बाण लगा बालि तो ध्रा पर मृत पड़ा होना चाहिए था। सज्जनों इस घटना के पीछे भी श्रीराम जी की असीम दया व स्नेह छुपा है। मानो श्रीराम बालि की भावना को ही स्वीकार कर रहे हों। भावना यह कि पत्नी के समझाने पर भी बालि ने उसे कहा कि-हे भीरू प्रिय! श्रीराम जी समदर्शी हैं। हम दोनों को समान रूप में ही देखेंगे। तात्विक दृष्टि से देखेंगे तो किसी समय सुग्रीव भी हतोत्साहित हो गिरा हुआ था। उसके हृदय में भी बालि के भय का बाण लगा था। लेकिन श्रीराम जी से मिलन हुआ तो वह उठ खड़ा हुआ। ठीक वैसे ही बालि भले ही गिरा पड़ा था। लेकिन श्रीराम जी को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ। यही श्रीराम जी के दर्शनों की महिमा है कि मरते हुए जीव भी उनका दर्शन कर उठ खड़े होते हैं। ऐसा नहीं है कि श्रीराम जी केवल सुग्रीव को ही खड़ा करते हैं। समय जब आता है तो प्रभु गिरते हुए बालि को भी खड़ा करते हैं। इस संदर्भ से देखेंगे तो पायेंगे कि श्रीराम जी निःसन्देह समदर्शी हैं। जैसे भी हो प्रभु ने बालि द्वारा प्रभु के निमित प्रयोग किये गये ‘समदर्शी’ शब्द की भी लाज रख ली। बालि के नयन श्रीराम जी के पावन मुख मण्डल पर बार-बार अटक रहे हैं। बालि श्रीराम जी का दिल भर कर दर्शन कर रहा है। रह-रहकर मन में ही आनंदित हो रहा है-
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा।
सुपफल जन्म माना प्रभु चीन्हा।।
बालि समझ गया कि मैं भले ही अतिअंत पापी व कठोर हृदय था। लेकिन प्रभु ने तब भी मुझे दर्शन देकर मेरा जीवन ध्न्य कर दिया। बालि के भीतर छुपा शैतान दम तोड़ रहा था और भक्ति व सेवा के संस्कार अंकुरित हो रहे थे। मन बेशक प्रपुफल्लित था, लेकिन ज्ञान की पराकाष्ठा से तो वह अभी भी अनभिज्ञ था। यह तो उसे ज्ञात हो गया था कि श्रीराम जी तीनों लोकों के पिता हैं। लेकिन भीतर ही भीतर अज्ञानतावश एक-एक प्रश्न पफन उठाए जा रहा था कि श्रीराम जी जब साक्षात ईश्वर हैं, पिफर मुझे यूं व्याध् की भांति छुपकर मारने की क्या आवश्यकता थी। और ऐसा मैंने क्या कर दिया कि प्रभु समदर्शी होते हुए भी मुझसे बैर करने लगे? और सुग्रीव उन्हें जान से भी अध्कि प्यारा हो गया। आखिर मेरा दोष तो प्रभु मुझे बता देते? तब तो यह स्पष्ट रहता कि प्रभु वाकई धर्म ध्वजा वाहक हैं। उन्होंने ध्र्म की रक्षा हेतु अवतार धरण किया है-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं।
मारेहु मोहि ब्याध की नाईं।।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा।
अवगुण कवन नाथ मोहि मारा।।
बालि के मन में भले ही प्रभु के पावन दर्शन कर श्रद्धा व प्रेम उमड़ पड़ा हो। लेकिन धर्म के विषय को लेकर वह अभी भी भ्रम की स्थिति में है। उसे लग रहा है कि प्रभु ने मुझे व्याध की तरह छुपकर मारा है। तो यह कार्य धर्म के प्रतिकूल था। मानो ऐसा अधर्म हो गया कि इसे लेकर श्रीराम जी के प्रभुत्व पर अंगुली भी उठ सकती है। यद्यपि श्रीराम अपनी इस लीला से केवल बालि को नहीं अपितु समस्त मानव जाति को यह संदेश देना चाहते हैं कि हे बालि! तुम क्या सोच रहे हो कि मैंने केवल तुम्हें ही छुपकर मारा है? मैं तो पूरी सृष्टि के ही जन्म व मरण का कारक हूँ। जैसे किसी भी जीव का जन्म मेरी इच्छा व आदेश के बिना संभव नहीं। ठीक वैसे ही किसी की मृत्यु भी मेरी परिधि से बाहर नहीं है। मैं ही सबको जन्म व मृत्यु प्रदान करता हूँ। लेकिन निर्माण व विध्वंस की संपूर्ण क्रिया में मैं सदैव छुपा ही रहता हूँ। कभी भी प्रकट नहीं होता। पेड़ की ओट तो एक इशारा है। मेरे और जीव के मध्य माया के पर्दे का, जो जीव ज्ञान द्वारा इस माया से परे देखने का सामथ्र्य प्राप्त कर लेते हैं। वे मेरा सपष्ट दर्शन कर पा रहे होते हैं। जैसे कि सुग्रीव कर पा रहा था। और तुम्हारी तरह जो जीव अज्ञानता के अधीन होते हैं। वे मुझे देख नहीं पाते। और मुझ पर भांति-भांति के आक्षेप लगाते हैं कि मैं उन्हें छुपकर मार रहा हूँ। कोई असाध्य रोग के कारण मर जाए तो वह रोग तो उसकी मृत्यु का बहाना मात्रा होता है। वास्तविकता में तो कर्मों के आधर पर मैं ही उसे मार रहा होता हूँ। रही बात ध्र्म की, तो ध्र्म का तो तुम्हें क, ख भी नहीं पता। ध्र्म क्या होता है? बालि अगर तुम यह जान लेते, तो सुग्रीव से तुम कभी भी अधर्म न करते। बालि को श्रीराम जी आगे क्या उपदेश करते हैं? जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम!