By अभिनय आकाश | Feb 25, 2023
ये तो आप सभी जानते हैं कि भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। जिसके पास इतना सोना, इतनी चांदी और समृद्धि थी कि हमेशा ये आकर्षण का केंद्र बना रहा। ऐसा कि व्यापारी और आक्रांता दोनों ही यहां आकर धन-दौलत का फायदा उठाना चाहते थे। इतिहास हमेशा जरूरी नहीं कि हमें गौरवान्वित ही करे या फिर उसे पढ़कर या सुनकर हमें अच्छा ही लगे। कभी-कभी उसे पढ़कर गुस्सा भी आता है, घृणा भी होती है और दुख भी होता है। इतिहास तो बस इतिहास है वो न ही आपका है और न ही मेरा है। ऐसा ही इतिहास मध्यकालीन भारत का है। जिसमें बाहरी आक्रांताओं ने भारत पर आक्रमण किया और यहां संपत्ति लूट कर ले गए। बचपन से ही ये आक्रांता भारत के सोने की चिड़िया की कहानी को सुना करते थे और उसे कब्जाने के सपनों को बुना करते थे। ऐसा ही एक आक्रांता था गजनी से आया महमूद गजनवी। वही गजनी जो वर्तमान में अफगानिस्तान में एक छोटी सी जगह है। जिसे न तो आज कोई पूछता है और न हीं वहां जाना पसंद करता है। जिस क्रूरता ने दुनिया में लाखों लोगों की जान ली, महमूद गजनवी भी उनमें से एक था! इस क्रूर आक्रमण ने भारत के कई क्षेत्रों में अमानवीयता का प्रदर्शन किया।
संग्राम राज को इतिहास के पन्नों में कहीं छिपा दिया गया
कश्मीर का इतिहास उसे गौरव की याद दिलाता है। जहां ललितादित्य जैसे अनेक पराक्रमी शासक हुए। एक ऐसे ही शासक संग्राम राज थे। मोहम्मद गजनवी जिसे इतिहास में विजेता कहा जाता है। उसे एक नहीं बल्कि दो-दो बार धूल चटाने वाले संग्राम राज को इतिहास के पन्नों में कहीं छिपा दिया गया है। रानी दीदा जैसी वीरांगना ने जिसे पाला हो उसका पराक्रम कभी समान हो ही नहीं सकता। दूसरे के राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण न करना भारतीय शासकों का सदा-सर्वदा स्वाभाव रहा। लेकिन इसके ठीक विपरीत भारतीय सीमाओं पर हमेशा से विदेशी ताकतों का आक्रमण होता ही रहा। मूर्ति भंजक, लुटेरा और अत्याचारी जैसे उपनामों से पहचाने जाने वाले महमूद गजनवी जिसने उत्तर भारत के करीब-करीब सभी राजाओं को परास्त किया था। जिसने सोमनाथ मंदिर से अपार धन लूटे थे। उसका भाग्य उसे उस शासक तक खींच लाया जहां उसे न केवल शिकस्त मिली बल्कि अपनी जान बचाकर भागना भी पड़ा। हिंदू राजाओं के नेतृत्व में कश्मीर की भूमि ने एक बार नहीं बल्कि दो बार अपने क्रूर आक्रमण को परास्त किया! पराजय इतनी भयानक थी कि तीसरी बार कश्मीर जाने का ख्वाब भी देखना भूल गया। ये एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महमूद गजनवी कश्मीरी सैनिकों की तलवार बर्दाश्त नहीं कर सका और जीवन भर कश्मीर जीतने की इच्छा पूरी नहीं कर सका! कश्मीर की यह वीरता इतिहास के पन्नों पर महाराजा संग्रामराज के शासनकाल में लिखी गई!
भारत में महमूद गजनवी को कैसे मिली पहली बड़ी पराजय
1015 ईंवी में कांगड़ा को जीतने के बाद गजनवी का मनोबल सातवें आसमना पर था। उसने लगे हाथों कश्मीर को भी लूटना चाहा और कश्मीर की सीमा पर लौह कोट किला की तौसी नदी के किनारे अपना सैन्य पड़ाव डाला। महमूद के आक्रमण की सूचना गुप्तचर की सक्रियता के कारण राजा तक पहुंची। कश्मीर की सेना ने तुंग नामक सेनापति के नेतृत्व में गजनवी पर आक्रमण शुरू कर दिया। कश्मीर के पड़ोस के राज्य का शासक त्रिलोचनपाल भी स्वयं अपनी सेना लिए तोसी नदी के पास मैदान में आ डटा। गजनवी की सेना को चारो ओर से घेर लिया गया। महमूद की सेना को मैदानी युद्धों का कोई अभ्यास न था। पहाड़ी राज्यों से पूरी तरह से अनिभिज्ञ महमूद की सेना बुरी तरह पिट गई। कश्मीर और काबुल का समीकरण ऐसा बैठा कि दुश्मन को दिन में तारे दिखा दिए गए। कश्मीर का तौसी युद्ध क्षेत्र स्वतंत्रता संग्राम और स्वाभिमान की रक्षा का साक्षी बना और हमारे सैनिकों ने युद्ध क्षेत्र में हज़ारों दुश्मनों को मार कर लाशों के ढेर लगा दिए। पूरा का पूरा युद्ध स्थल महमूद की सेना के शवों से अटा-पड़ा था। शुरुआत में लौह कोट के किले पर महमूद गजनवी का नियंत्रण था। लेकिन किले की युद्ध रचना को तोड़ने की कला में निपुण संग्राम राज की सेना ने इसे भेद कर किले में प्रवेश किया। नतीजतन महमूद किले के एक कोने में दुबक कर बैठ गया। बाद में अपने जिंदा बचे कुछ सैनिकों के साथ वो दुम दबाकर भागने में सफल हो गया। भारत में महमूद गजनवी की ये पहली बड़ी पराजय थी। कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया में इस युद्ध को बड़ा रोचक बताया गया है
मरते दम तक कश्मीर पर आक्रमण करने के बारे में सोचा भी नहीं
कश्मीर में इस पराजय से महमूद को ज्ञात हुआ कि भारत अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कितना समर्पित है और भारत की स्वतंत्रता को किसी क्षेत्र पर अधिकार करके नष्ट नहीं किया जा सकता। भारत पर शासन करने के लिए अनेक शक्तियों से मुकाबला करना पड़ता है। महमूद ने पहली बार भारत के बारे में गंभीरता से सोचा! वह अपमान और प्रतिशोध से परेशान था, इसलिए उसने एक बार फिर कोशिश करने का फैसला किया! छह साल बाद महमूद गजनवी का अंतिम आक्रमण भारत में 1021 ईस्वी में हुआ था ! महमूद गजनवी की हत्या, छल, गोलीबारी, स्थानों को नष्ट करना, बलात्कार आदि की गंभीरता को समझते हुए, उसने कश्मीर की सीमाओं पर पूरी निगरानी रखने का आदेश दिया गया था। हर साल हमलावर हमलावर ने छह साल में कश्मीर पर हमला करने का हौसला लौटाया! यह स्पष्ट है कि युद्ध क्षेत्र लंबे समय तक याद किया गया! 1021 ईस्वी में भी महमूद को नाकों चने चबाने पर मजबूर होना पड़ा। महमूद गजनी ने दूसरी बार भी अपना पड़ाव लौह कोट के किले पर डाला। काबुल के राजा त्रिलोचनपाल ने उसे फिर से खदेड़ना शुरू किया। लेकिन इस बार महमूद अधिक ताकत के साथ आया था। त्रिलोचन पाल की सहायता के लिए महाराजा संग्राम राज ने अपनी सेना भेज दी। महमूद को अपनी पिछली हार याद आ गई। उसकी सेना एक बार फिर से युद्ध के मैदान में पिटने लगी। महमूद गजनवी को अपनी जान बचाने के लिए कश्मीर से दूर गजनी की ओर मुड़ना पड़ा। उसके बाद उसने मरते दम तक कश्मीर पर आक्रमण करने के बारे में सोचा भी नहीं। धन्य है त्रिलोचनपाल, धन्य है संग्राम का राजा और धन्य है उसकी वीर सेना, जिसने एक नहीं दो बार गजनी को हराया! भारत के इतिहास में इन सभी सैनिकों का नाम हमेशा अमर रहेगा!