By सुखी भारती | Dec 13, 2022
भगवान श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी को अपने साथ ही बिठाया था। बिल्कुल उसी सिला पर जहाँ श्रीराम जी के साथ, उनके अनुज श्रीलक्ष्मण जी विराजमान थे। श्रीराम जी के साथ, एक ओर श्रीलक्ष्मण जी हैं, और दूसरी ओर श्रीविभीषण जी हैं। इस संपूर्ण दृश्य का रावण के लिए सीधा-सा संदेश था कि देखो रावण, जिस भाई को तुमने लात मारकर अपनी लंका नगरी से निकाल दिया, मैंने तुम्हारे उसी भाई को, अपने भाई लक्ष्मण के साथ ही, अपने साथ आसन पर बिठाया है। अर्थात विभीषण का मेरी शरण में होने का अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं, कि श्रीविभीषण लंकापति रावण का भाई है। अपितु इसका स्पष्ट-सा अर्थ यह है, कि विभीषण अब रावण का नहीं, अपितु हमारा भाई है। और हमारा यह भी प्रण है, कि हमें भले ही राज्य से निकाल दिया गया हो, लेकिन हम अपने भाई को अवश्य ही राज्य प्रदान करते हैं। श्रीभरत जी को हमने अयोध्या का राज्य देकर इसका प्रमाण दे ही दिया है। शत्रुघ्न को हम कोई राज्य इसलिए नहीं दे पाये, क्योंकि वह अपने भाई श्रीभरत जी की सेवा में है। और श्रीलक्ष्मण जी भी अभी तक राज्य से इसलिए दूर हैं, क्योंकि वे हमारी सेवा हैं। लेकिन हम देख रहे हैं, हे विभीषण जी, अब तो आप भी, अपने भाई रावण की सेवा से निवृत हो चुके हैं। तो भाई होने के नाते, आप को भी तो हमारे द्वारा राज सिंहासन देना बनता ही है। हाँ, यह राज्य हम आपको पहले भी प्रदान कर सकते थे। लेकिन क्या करते, तब तक तो आप भी अपने भाई रावण की सेवा में थे। लेकिन देवयोग से आज वो पावन घड़ी आन पहुँची है। और आज हम समस्त वानर सेना व बड़े-बड़े योद्धाओं के समक्ष आपको राजपद देकर आपके मान मे वृद्धि करेंगे।
भगवान श्रीराम जी की लीला देख कर सभी जन यह सोच में पड़ गए, कि प्रभु श्रीराम श्रीविभषण जी को अब कहाँ का राज्य प्रदान करेंगे? अयोध्या का राज्य तो क्योंकि श्रीभरत जी को प्रदान कर दिया है। तो अब कौन-सा राज्य है, जिसे श्रीराम जी श्रीविभीषण जी को प्रदान करने वाले हैं। अब जो वाक्य श्रीराम जी कहते हैं, उसे श्रवण कर, एक बार तो सभी जन भौंचक्के रह जाते हैं। श्रीराम जी ने कहा-
‘अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भय हारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।’
अपने साथ बिठाकर श्रीराम जी, श्रीविभीषण जी को पूछते हैं, कि हे लंकेश! कैसे हो? तुम्हारा परिवार तो ठीक है न? कारण कि तुम्हारा वास बुरी जगह पर है।
सज्जनों प्रभु श्रीराम जी ने, श्रीविभीषण जी को अपने साथ बिठाया, उनके परिवार की कुशल पूछी, यहाँ तक तो सब कुछ व्यावहारिक व सामान्य था। लेकिन इस सबके बीच, श्रीराम जी ने विभीषण जी को एक शब्द, ‘लंकेश’ कह कर जो संबोधित किया, उसने सबके कान खड़े कर दिये। कारण कि लंकेश शब्द का अर्थ ही था, ‘लंका का राजा’। और अभी तक भी लंकेश कहलाने का पूर्ण रुपेण अधिकारी रावण ही था। क्योंकि लंका के सिंहासन पर अभी तक भी रावण ही बैठा था। इस आधार पर श्रीविभीषण जी को लंकेश कैसे कहा जा सकता था। सांसारिक व तर्क की दृष्टि पर तौलने पर तो, श्रीराम जी की यह घोषणा पूर्णतः निराधार-सी प्रतीत हो रही थी। लेकिन श्रीराम जी, जो कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड का एकमात्र आधार हैं, क्या उनके कहे वाक्य भी कभी निराधार हो सकते हैं? उन्होंने अगर श्रीविभीषण जी को लंकेश कह ही दिया है, तो निश्चित ही, श्रीविभीषण जी ही लंकेश होंगे। रावण तो बस लंका के सिंहासन पर मात्र बैठा भर दिखाई दे रहा है, वास्तविक लंकेश तो अब श्रीविभीषण जी ही हैं।
इस पर भी परम् आश्चर्य देखिए। भगवान श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी को लंकेश कहा, इस शब्द पर श्रीविभीषण के हृदय में रत्ती भर भी कोई हलचल अथवा कौतुहल नहीं हुआ। न ही कोई यह उमंग जगी, कि भई वाह! यह तो बढ़िया हुआ। ठीक ही हुआ, कि श्रीराम जी की शरण में आ पहुँचे। और लंका का राज्य प्राप्त हो गया। नहीं तो नाहक ही जिंदगी भर, रावण के दरबार में नाक रगड़ते रहते, और अंत में हाथ कुछ भी नहीं लगना था। श्रीविभीषण जी के मन में, ऐसा कोई एक विचार भी नहीं कौंधा। अपितु वे तो इसी धुन में मस्त हैं, कि श्रीराम जी ने उन्हें इतना प्रेम व सम्मान कैसे प्रदान कर दिया। उन्होंने अपने पास भी बिठाया, कितना प्रेम मुझ पर लुटा रहे हैं।
श्रीविभीषण जी का हृदय गदगद है, कि श्रीराम जी ने मेरे और मेरे परिवार की कुशल पूछी। तभी तो श्रीविभीषण जी ने कहा-
‘अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।’
श्रीविभीषण जी बोले, कि हे प्रभु! आपके दर्शन करके मैं अब पूर्ण रूप से कुशल से हूँ। क्योंकि जिस पर आप अनुकूल होते हैं, वह तीनों प्रकार के भवशूल से परे हो जाते हैं।
श्रीविभीषण जी की प्रेमभक्ति देख कर, श्रीराम जी अतिअंत भाव में डूबते जा रहे हैं, और वे श्रीविभीषण जी के भक्ति भावों में बहते जा रहे हैं। बातों ही बातों में, श्रीराम जी ने, श्रीविभीषण जी को लंका पद् की उपाधि से सुशोभित कर ही दिया था। लेकिन इससे भी बड़ा एक और पद था, जो श्रीराम जी उन्हें प्रदान करता चाहते थे।
क्या था वह पद? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती