माँ पार्वती जी ने अपनी कठोर तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया था। किंतु प्रश्न उठता है, कि अगर भगवान शंकर सच में प्रसन्न हो गए थे, तो वे स्वयं पार्वती जी के समक्ष प्रगट क्यों नहीं हुए। वहाँ केवल आकाशवाणी ही क्यों हुई?
वास्तव में जब से श्रीसती जी ने प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अग्निस्नान किया था, तब से भगवान शंकर के हृदय में वैराग्य छा गया था। वे सदा आठों पहर, श्रीरघुनाथ जी के नाम जप में ही लगे रहते थे। उन्हें जहाँ कहाँ भी भगवान श्रीराम जी की कथायें श्रवण करने को मिलती, वे वहीं कथा सुनने बैठ जाते-
‘जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा।
तब तें सिव मन भयउ बिरागा।।
जपहिं सदा रघुनायक नामा।,
जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा।।’
सज्जनों! यहाँ भोलनाथ अपने वियोगी हृदय से भी संसार को एक बहुत ही सुंदर संदेश देना चाह रहे हैं। आप जानते हैं, कि भगवान शंकर की पत्नी देह त्याग चुकी हैं। श्रीसती जी के जाने के पश्चात, भगवान शंकर के हृदय में वैराग्य ने डेरा जमा लिया है। वे अत्यंत उदास हैं। निःसंदेह यह होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि संसार में भी किसी व्यक्ति की पत्नि का देहाँत हो जाये, तो वह व्यक्ति भी मानों टूट ही जाया करता है। उसे लगता है, कि मानों उसका संपूर्ण जगत ही उजड़ गया है। शायद भगवान शंकर को भी ऐसा ही प्रतीत हो रहा होगा। किंतु क्या सच में भगवान शंकर को अपनी पत्नी के बिछुड़ने का ही दुख था? क्योंकि एक संसारिक व्यक्ति की पत्नी बिछुड़े तो समझ आता है, कि वह दुखी है। क्योंकि वह तो मोह से ग्रसित एक साधारण मानव है। किंतु भगवान शंकर कोई संसारिक मानव की भाँति मोह से पीड़ित थोड़ी न हैं, जो कि वे दुख के मारे दर-दर भटकते फिरें। भला फिर क्या कारण था, कि भगवान शंकर मायावी लोगों की भाँति, पत्नि के जाने के पश्चात वैराग्य धारण कर लेते हैं?
वास्तव में भगवान शंकर श्रीसती जी को, केवल अपनी पत्नी रुप में ही नहीं देख रहे हैं, अपितु उन्हें श्रीसती जी में अपना एक परम भक्त दृष्टिपात हो रहा है-
‘जदपि अकाम तदपि भगवाना।
भगत बिरह दुख दुखित सुजाना।।’
गोस्वाती तुलसीदास जी इस चौपाई में श्रीसती जी का, भगवान शंकर जी के साथ संबंध कोई पति-पत्नी का न कहकर, ईश्वर व भक्त का संबंध बता रहे हैं। वे कहते हैं, कि यद्यपि सुजान भगवान शंकर निष्काम हैं, किंतु तब भी अपने ‘भक्त’ के वियोग के दुख से दुखी हैं। इसका तात्पर्य स्पष्ट है, कि भगवान शंकर को अपनी पत्नी के जाने का नहीं, अपितु अपने एक महान भक्त व सेवक के चले जाने का दुख था।
भगवान के लिए अपने भक्त से बढ़कर कुछ भी तो नहीं होता। अपने सेवक के मान से ही वे बँधे होते हैं। अगर उन्हें अपने भक्त से प्रेम न हो, तो वे अर्जुन का रथ न खींचते। धन्ना जाट के खेतों में जाकर हल न चलाते। संपूर्ण जगत को भोजन देने वाले, शबरी के जूठे बेरों का सेवन न करते। ठीक इसी प्रकार से भगवान शंकर भी अपनी परम सेविका श्रीसती जी के जाने से दुखी हैं।
अगर एक क्षण के लिए कल्पना भी कर ली जाये, कि भगवान शंकर को, हम संसारिक जीवों की भाँति ही मोह है, और वे भी हमारी ही प्रकार दुखी हैं। तो इस दावे से क्या हमें प्रसन्नता प्राप्त हो जायेगी?
क्योंकि मान लीजिए, कि भगवान शंकर को पत्नी वियोग का दुख है, तो ऐसे में आप यह तो देखो, कि वे क्रिया क्या कर रहे हैं। क्या हमारी तरह वे छाती पीट-पीट कर रो रहे हैं? या फिर किसी मदिरालय में जाकर सुध बुध खोकर कहीं बेसुध पड़े हैं। नहीं न? ऐसा तो कुछ भी नहीं है। तो फिर क्या कर रहे हैं, हमारे भोलेनाथ? श्रीमान जी! इस अवस्था में भी भगवान शंकर ‘श्रीराम कथा’ को सुनना नहीं छोड़ रहे हैं। जहाँ तहाँ भी उन्हें श्रीराम जी के गुनगाण श्रवण करने को मिल जायें, वे इस शुभ अवसर का लाभ लेने से चूकते नहीं हैं। मानों हम मायावी जीवों को समझा रहे हैं, कि अगर आपका भी कोई संसारिक रिश्ता पीछे छूट जाये, तो रो-रो कर पागल मत हो जाना। अपितु भगवान के गुण गाथा को श्रवण करना मत भूलना। क्योंकि यही जीवन का सार है, लक्षय है। यही कल्याण का मार्ग है।
- सुखी भारती