मेघनाद और श्रीहनुमान जी के मध्य विकराल युद्ध आरम्भ हो गया। दोनों लड़ते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो कोई दो गजराज भिड़ पड़े हों। दोनों के पाँव धरती को अथाह बल से रगड़ रहे थे। और वाटिका में उस स्थान का घास मानो किसी चटनी की भाँति मसला जा चुका था। धूल उड़ कर आसमान को छूने जा पहुँची थी। ऐसा दंगल था, कि त्रिलोकी के समस्त गण इसी दृश्य के आधीन हो मूर्त से बने साक्षी हो चले थे। मेघनाद ने अपने समस्त माया व प्रपँच अपना लिए, लेकिन श्रीहनुमान जी हैं, कि उससे जीते ही नहीं जा पा रहे-
‘उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।’
मेघनाद ने देखा, कि यह कपि तो बड़ा ही बलवान है। मेरे किसी भी शस्त्र को यह पल भर में ही काट डाल रहा है। तब उसने सोचा, कि अवश्य ही मुझे अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना चाहिए। ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के क्या लाभ होंगे, और क्या हानियां होंगी, यह विचारे बिना ही उसने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। श्रीहनुमान जी ने देखा, कि मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का संधान करके अच्छा नहीं किया। कारण कि ऐसा नहीं कि हम ब्रह्मास्त्र का प्रतिकार नहीं सकते। लेकिन ऐसे करने से हमारे बल का तो हो सकता है, कि डंका बज उठे, लेकिन इससे ब्रह्मास्त्र की महिमा को ठेस पहुँचेगी। वैसे भी ब्रह्मा जी तो सृष्टि के रचयिता हैं। वे हम सबके पिता हैं। हम कितने भी बड़े हो जायें। लेकिन क्या अपने पिता से बड़े हो सकते हैं? नहीं, कभी भी नहीं। और उनके अस्त्र का संधान हो, तो उसका प्रतिकार व अपमान तो किसी भी स्तर पर उचित नहीं। निश्चित ही मुझे ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान रखना ही होगा-
‘ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।’
बस फिर क्या था। मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। और श्रीहनुमान जी मूर्छित होकर, पेड़ से धरा पर गिर पड़े। श्रीहनुमान जी नीचे क्या गिरे। राक्षसों की तो श्वाँस में श्वाँस आई। लगा कि उनके चारों ओर मँडराती मृत्यु के ताँडव को मानों विराम लगा हो। लेकिन सबने श्रीहनुमान जी को भला क्या, यूँ ही कोई साधारण वानर समझ रखा था? ऐसा थोड़ी था, कि श्रीहनुमान जी अब गिर रहे हैं, तो उनके गिरते-गिरते बस गिर ही जाना होगा। जान-माल की हानि से भी पूर्णतः बच जाना होगा। जी नहीं! श्रीहनुमान जी तो ऐसे वीर बलवान व सजग हैं, कि वे गिरते-गिरते भी कितने ही राक्षसों को अपने नीचे दबा कर मार डालते हैं। जब मेघनाद ने देखा कि श्रीहनुमान जी मूर्छित होकर, पेड़ से नीचे गिर गए हैं। तो वह उन्हें नागपाश में बाँधकर अपने साथ ले चलता है-
‘ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।’
यह दृश्य देखकर निश्चित ही साधारण बुद्धि का स्वामी यह सोच लेता है, कि हाँ, श्रीहनुमान जी नागपाश में बँध गए होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है। भगवान शंकर जी भी जब माता पार्वती जी को ‘श्रीराम कथा’ का रसपान करवा रहे हैं, तो वे यही बात कह रहे हैं, कि भला ऐसे कैसे संभव हो सकता है, कि श्रीहनुमान जी भी किसी बँधन में बँध जायें। कारण कि जिन प्रभु के पावन नाम के स्मरण से, संसार के ज्ञानी नर-नारियां, संपूर्ण भव सागर के बँधन काट डालते हों, भला उनका ऐसा प्रिय शिष्य, किसी बँधन में भला कैसे बँध सकता है। निश्चित ही यह सँभव ही नहीं है। निश्चित ही वास्तविकता यह है, कि श्रीहनुमान जी को बाँधा नहीं गया, अपितु लीला रचने हेतु, श्रीहनुमान जी ने ही, स्वयं को नागपाश में बँधना स्वीकार कर लिया-
‘जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।’
श्रीहनुमान जी का बँधना सुन पूरे लंका नगरी में कौतूहल मच गया। सभी राक्षस गण श्रीहनुमान जी को, यूँ बँधा देखने के लिए रावण की सभा में उपस्थित हो रहे हैं। श्रीहनुमान जी ने भी रावण की सभा देखी, तो बस देखते ही रह गए। कारण कि रावण की सभा का वैभव ही ऐसा है, कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता है। वहाँ रावण को छोड़कर सभी सभासद दास की ही भूमिका में हैं। देवता और दिक्पाल हाथ जोड़कर रावण की भौं ताक रहे हैं। हर किसी का बस यही प्रयास है, कि काल बिगड़ता है, तो बिगड़ जाये। लेकिन रावण न बिगड़ने पाये। क्योंकि रावण अगर प्रतिकूल हो गया। तो मानों, कि अमुक जीव का भाग्य ही उससे रूठ गया। समझना कि उसकी श्वाँसों को उसकी छाती से अब कोई सरोकार नहीं रहा। लेकिन इन सब से परे, श्रीहनुमान जी पूर्णतः निशंख व अखण्ड़ भाव से ऐसे खड़े हैं, जैसे सर्पों के झुण्ड में गरुड़ महाराज निर्भय खडे़ होते हैं-
‘कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।’
महाबली श्रीहनुमान जी अब रावण की सभा में पहुँच तो गए हैं। लेकिन रावण के संग उनकी क्या वार्ता होती है। यह जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती