जी हाँ! लंका नगरी कोई साधारण स्थान थोड़ी न था। वहाँ तो मंदिरों ही मंदिरों की भरमार थी। कहना गलत न होगा, कि जहाँ तक दृष्टि जाती थी, बस वहाँ केवल मंदिर ही दृष्टिपात होते थे। आप सोच रहे होंगे, कि रावण की इस पाप से सनी नगरी में अगर मंदिर ही मंदिर थे, तो वहाँ धर्म का वास आखिर क्यों नहीं था। लंका नगरी में इतने मंदिरों का होना, मानों ऐसा था, कि यहाँ पर निश्चित ही ऐसा आध्यात्मिक सुख व शाँति होनी चाहिए थी, कि स्वर्ग लोक व अन्य देव लोकों को भी, ऐसे सुख के लिए तनसना पड़ता होगा। लेकिन श्रीहनुमान जी लंका का भ्रमण करते हुए, अभी तक तो, एक बार भी यह वर्णन नहीं करते हैं, कि मुझे किसी एक भी मंदिर में, कहीं कोई एक भी, भक्त प्रतीत हुआ था। कारण कि मंदिर का होना अपने आप में यह प्रमाण था, कि यह किसी न किसी ईष्ट देवता का पावन स्थान था। ऐसी ही आशा लेकर श्रीहनुमान जी रावण के महल में प्रवेश करते हैं। और देखते हैं, कि रावण तो सो रहा है, और वहाँ वर बैदेही जी की उपस्थिति भी नहीं है-
‘सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।’
गोस्वामी जी यहाँ एक बहुत ही गूढ़ रहस्य बताना चाह रहे हैं, कि जिस मंदिर का स्वामी ही सो रहा हो, तो स्पष्ट है कि वहाँ माँ जानकी अर्थात भक्ति हो ही नहीं सकती। कारण कि भक्ति तो जन्मों-जन्मों के सोये जीव को जगाती है। माँ जानकी यहाँ होती, तो निश्चित ही रावण जाग रहा होता, और माता सीता जी की सेवा में उपस्थित होता। रावण जिस प्रकार से सो रहा था, वैसे तो केवल भोगी व्यक्ति ही सोता है। माता जानकी को वहाँ न पाकर श्रीहनुमान जी आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है, कि गोस्वामी जी यहाँ मंदिर की बजाये, ‘भवन’ अथवा ‘घर’ शब्द का भी तो प्रयोग कर सकते थे। लेकिन गोस्वामी जी ने मंदिर शब्द का ही प्रयोग किया। क्या लंका नगरी में सचमुच ही मंदिर थे? एक दृष्टि से देखें तो, लंका नगरी में सचमुच मंदिर ही थे। मंदिर अर्थात वह स्थान जहाँ, भगवान की पूजा हो। और लंका नगरी में भला ऐसा कौन सा राक्षस था, जो स्वयं को स्वयंसिद्ध भगवान न मानता हो। रावण की ही तरह, प्रत्येक राक्षस यह मान कर चल रहा था, कि दशरथ नंदन श्रीराम भी भला कोई भगवान हैं। कारण कि भगवान तो सर्वसमर्थ होते हैं। उन्हें भला कौन भ्रम में डाल सकता है। और श्रीराम में भगवान के तो कोई लक्षण ही नहीं है। कारण कि श्रीराम में अगर बल होता, तो क्या वे श्रीसीता जी को अपहरण होने से बचा नहीं पाते? दूसरी बात कि भगवान तो अंतर्यामी होते हैं, तो भला क्या उन्हें नहीं पता था, कि स्वर्ण मृग की आड़ में तो मारीच घूम रहा है। भगवान होने के नाते, उन्हें यह ज्ञान तो होना ही चाहिए था, कि मेरी बनाई सृष्टि में स्वर्ण का बनाया मृग तो है ही नहीं। तो बताओ भला हम श्रीराम को भगवान क्योंकर कहें? श्रीराम से बढ़कर तो हम ही श्रेष्ठ हैं। हमारे बल के सामने पूरी सृष्टि में भला कौन ठहर सकता है। इसलिए हम ही भगवान हैं। और भगवान जहाँ निवास करते हैं, वह स्थान मंदिर ही तो कहलाता है। इसलिए हम समस्त राक्षसों के निवास कोई भवन अथवा घर नहीं, अपितु मंदिर ही हैं। इन मंदिरों में किसी और भगवान की नहीं, अपितु हमारी ही पूजा होती है। गोस्वामी जी मंदिरों की इन चर्चायों में अब एक नई बात कहते हैं। वे कहते हैं, कि श्रीहनुमान जी, जिनको अभी तक केवल मंदिर ही मंदिर दिखाई दे रहे थे, उन्हें अचानक से एक ‘भवन’ दिखाई दिया-‘भवन एक पुनि दीख सुहावा।’ श्रीहनुमान जी ने इतने मंदिर देखे। लेकिन कहीं, किसी मंदिर को सुंदर नहीं कहा। लेकिन जैसे ही अब यह भवन देखा, तो कहा कि वह भवन बहुत सुंदर है। ऐसा नहीं था, कि उस भवन की रचना में मयदानव ने कोई उत्कृष्ट कलाकारी की हो। ऐसा तो कुछ भी प्रमाण प्रतीत नहीं हो रहा था। लेकिन हाँ! गोस्वामी जी ने इस पंक्ति में जो एक शब्द जोड़ा, शायद वही कारण था, कि गोस्वामी जी ने लिखा, कि वह भवन श्रीहनुमान जी को बहुत सुंदर लगा। वह कारण यह था, कि श्रीहनुमान जी को उस भवन में फिर एक मंदिर दिखाई दिया। और वह मंदिर किसी राक्षस या दानव का नहीं था। बल्कि भगवान विष्णु जी का मंदिर था-
‘रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई।।'
जिस महल को श्रीहनुमान जी ने देखा, वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिन्नों से सुशोभित था। उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्रीहनुमान जी हर्षित हो उठे। वे सोचने लगे कि लंका नगरी में भला यह पावन व सुंदर दृष्य कैसे? मानों कीचड़ में कमल खिल रखा हो। क्या वास्तव में उस महल में कोई भक्तराज था, अथवा यह रावण की कोई माया थी। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती