श्री हनुमान जी सहित सभी वानर इस समय सागर तट पर हैं। सभी हताश, परेशान व स्वयं को जीवन में हारे हुए सिद्ध कर रहे हैं। कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा। सबसे बड़ी बात इस मुख्य दल का मुखिया, जिसका बल महाबली बालि के समान है, जिसे जगत वीर अंगद के नाम से जानती है, वह भी अथाह शोक व निराशा में है। सोचिए जिस सेना का सेनापति ही हथियार डाल दे। तो ऐसे में अन्य साधारण वानरों के हौंसलों का भला क्या ठिकाना। इस चौपाई से आप युवराज की मनःस्थिति का अनुमान लगा सकते हैं-
‘पिता बधे पर मारत मोही
राखा राम निहोर न ओही।।
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं।
मरन भयउ कछु संसय नाहीं।।’
युवराज अंगद के मन में अपने चाचा सुग्रीव को लेकर, रत्ती भर भी सुरक्षा का भाव नहीं है। वे कह रहे हैं, कि चाचा सुग्रीव तो मुझे उसी समय मार डालते, जिस समय उन्होंने मेरे पिता का वध किया था। यह तो श्रीराम जी ही थे, जिन्होंने मेरी रक्षा की। इसमें चाचा सुग्रीव का रत्ती भर भी एहसान नहीं है। साथ में अंगद बार-बार कह रहे हैं कि अब तो मरण निश्चित ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। युवराज अंगद की यह मनःस्थिति का प्रभाव प्रत्येक वानर के अंतस पटल पर पड़ रहा था। मानो सब मरने से पहले ही मरे जा रहे थे। लेकिन साधारण वानरों को युवराज अंगद के प्रति दया भाव व स्नेह भी उठ रहा है। कारण कि सब जानते हैं कि युवराज अंगद हार मानने वालों में से नहीं हैं। लेकिन निकट इतिहास के कड़वे अनुभवों के घाव शायद अभी हरे हैं। तभी वे यूं निराशावादी बातें कर रहे हैं। वानरों ने सोचा कि अगर हम भी युवराज अंगद के समक्ष यूं हारी-हारी बातें करेंगे, तो युवराज तो बिल्कुल ही टूट जायेंगे। उन्हें लग रहा है कि केवल वे ही मृत्यु को प्राप्त होंगे, तो ऐसा नहीं है। हम सब भी उनके साथ हैं। वापस जायेंगे तो माता सीता जी को खोजे बिना वापिस नहीं जायेंगे-
‘हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना।
नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना।।
अस कहि लवन सिंधु तट जाई।
बैठे कपि सब दर्भ डसाई।।’
अपना ऐसा संकल्प कहकर सभी वानर कुशा का आसन लगा कर बैठ गए। लेकिन युवराज अंगद हैं कि उदासी से बाहर ही नहीं आ रहे। यह देख जाम्बवान चिंतित हो उठे। संसार के स्नेहियों से प्रेम दुलार मिलने पर भी जब आपका दुख कम न हो तो ऐसे में क्या करना चाहिए। जाम्बवान जी अपने आगे के चरित से यही संदेश देना चाहते हैं। जाम्बवान जी युवराज अंगद को प्रभु के भिन्न-भिन्न प्रकार के कथा प्रसंग सुनाने लगते हैं। कारण कि हमारे धर्म शास्त्रें ग्रंथों में ऐसे अनेकों संस्करण हैं, जिन्हें अगर थोड़ा भी ध्यान से पड़ लिया जाये, तो निश्चित ही हमारी अनेकों संसारिक समस्यायों का समाधान हो सकता है। जाम्बवान जी भगवान श्रीराम जी के अवतार के संबंध में, उनकी लीलायों के रहस्य व उनके दिव्य आध्यात्मिक अर्थों के संबंध में, ऐसे अनेकों ही प्रसंग सुनाते जा रहे हैं-
‘जामवंत अंगद दुख देखी।
कहीं कथा उपदेस बिसेषी।।
तात राम कहुँ नर जनि मानहु।
निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु।।’
जाम्बवान जी युवराज अंगद को संबल देने के प्रयास में भाँति-भाँति के प्रसंग सुना तो रहे हैं, लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी एक भी ऐसा शब्द नहीं लिख रहे, कि जो यह दर्शाता हो, कि युवराज अंगद जाम्बवान जी द्वारा सुनाए गए सतसंग को सुन कर सारे गम भूल गए हों। और एक नये उत्साह से उठ खड़े हों। सज्जनों यहाँ कुछ लोगों के अंदर यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है, कि क्या ऐसा भी होता है, कि सतसंग का प्रभाव भी कहीं प्रभावहीन हो। इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि जाम्बवान जी का युवराज को सतसंग सुनाना व्यर्थ हो गया। यद्यपि हमने तो सुना है कि सतसंग का प्रभाव तो बुरे से बुरे जीव को भी बदल देता है-
‘मज्जन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकउ मराला।।
सुन आचरज करै जनि कोई।
सतसंगति महिमा नहिं गोई।।’
अर्थात सतसंग का प्रभाव तो ऐसा है, कि अगर कोई कौवे जैसा कर्कश वाणी वाला भी है, तो वह सतसंग के प्रभाव से कोयल की मानिंद मीठा बोलने लग जाता है। बगुले की भाँति अभक्ष भोजन वाला प्राणी, शुद्ध शाकाहारी भोजन करने लग जाता है। और यह प्रभाव भी कोई वर्षों में नहीं, अपितु क्षण भर में आ जाता है। और यह सुन कर कोई संदेह न करे। सज्जनों निश्चित ही गोस्वामी जी सत्य भाषण कर रहे हैं। लेकिन सतसंग का प्रभाव युवराज अंगद पर क्यों दिखाई नहीं दे रहा। हाँ हो सकता है कि युवराज अंगद पर प्रभाव तो हो रहा हो, लेकिन अभी वे उसे प्रकट न कर रहे हों। यह रहस्य तो आगे चलकर ही प्रकट होगा। युवराज ने जाम्बवान जी के द्वारा कही कथा सुनी थी अथवा नहीं, यह तो हम करेंगे ही। लेकिन यह कथा कोई और भी सुन रहा है। यह तो हमने ध्यान ही नहीं दिया। जी हाँ! जाम्बवान जी द्वारा गाई प्रभु की कथा को गुफा में बैठा एक गिद्ध भी बड़े ध्यान से सुन रहा है। जिसका नाम सम्पाती है-
‘एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती।
गिरि कंदराँ सुनी संपाती।।
बाहेर होइ देखि बहु कीसा।
मोहि अहार दीन्ह जगदीसा।।’
और ऐसा नहीं कि उसके मन से उसकी गिद्ध वृति का तत्काल ही नाश देखने को मिल गया हो। क्योंकि उसके शब्दों से तो यही लग रहा है, कि वह गुफा से प्रभु गान सुन कर बाहर आया हो। लेकिन हाँ! उसके मुख पर प्रभु का धन्यवाद अवश्य प्रकट हुआ, कि हे भगवान! तू कितना दयालु है। मैं कितने दिनों से भूखा था। और तूने एक साथ ही मेरे लिए इतने भोजन की व्यवस्था कर दी। अंगद सहित अन्य वानरों ने जब सम्पाती की यह वाणी सुनी। तो सभी वानर भयभीत हो गए। सभी को लगा कि अब तो मृत्यु निश्चित ही सम्मुख है। जाम्बवान जी को भी चिंता हो उठी। तभी युवराज अंगद जो अभी तक सतसंग सुन रहे थे। अचानक स्वयं भी सतसंग सुनाने लगे। वे ऊँचे-ऊँचे स्वर में जटाऊ जी की कथा सुनाने लगे। कि कैसे जटाऊ जी ने प्रभु सेवा में अपने प्रणों की आहुति दे दी-
‘कह अंगद बिचारि मन माहीं।
धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।।
नाम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयउ परम बड़भागी।।’
अंगद जी द्वारा सम्पाती ने कथा क्या सुनी। उसका मोह ही जाता रहा-
‘सुनि खग हरष सोक जुत बानी।।
आवा निकट कपिन्ह भय मानी।।
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई।
कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई।।’
सम्पाती तब युवराज अंगद के पास जाकर पूरा जटायू प्रसंग सुनता है। और सभी को अभय दान देता हुआ, स्वयं भी कुछ कथा कहता है। सतसंग का प्रभाव युवराज अंगद पर तो था ही, साथ में उस कथा को गुफा में अगर गिद्ध भी सुन रहा था, तो उसमें भी परिवर्तन आ गया। प्रभु की कथा का प्रभाव तो होगा ही। कई बार लगता है कि प्रभु की कथा का प्रभाव फलां व्यक्ति पर तो हो ही नहीं रहा। लेकिन क्या पता उस कथा को कोई गुफा में बैठ कर सुन रहा हो। और अपनी पापमय वृति त्याग प्रभु का ही भक्त बन जाये।
सम्पाती भी प्रभु की सेवा भक्ति में लग पाता है, अथवा नहीं। जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम!
-सुखी भारती