इसलिए मनाया जाता है राष्ट्रीय बालिका दिवस, पर क्या इतना ही काफी है ?

By रमेश सर्राफ धमोरा | Jan 24, 2019

देश में 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की शुरुआत 2009 से की गई। सरकार ने इसके लिए 24 जनवरी का दिन चुना क्योंकि यही वह दिन था जब 1966 में इंदिरा गांधी ने भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी। इस अवसर पर सरकार की और से कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। समाज में बालिकाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक बनाने के लिए अनेको आयोजन होते हैं।

 

हमारे देश में कन्या भ्रूण हत्या की वजह से लड़कियों के अनुपात में काफी कमी आयी है। पूरे देश में लिंगानुपात 940 : 1000 है। एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर दिन औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बिताना पड़ता है। इसी तरह, सरकारी आंकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को व 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है। एक सरकारी सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लड़कियों ने यह बताया कि वे स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं।

 

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आज की बालिका जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही है चाहे वो क्षेत्र खेल हो या राजनीति, घर हो या उद्योग। एशियन खेलों के गोल्ड मैडल जीतना हो या राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होकर देश सेवा करने का काम हो। लेकिन इसके उपरान्त आज भी वह अनेक कुरीतियों की शिकार हैं। ये कुरीतियां उसके आगे बढ़ने में बाधाएं उत्पन्न करती हैं। पढ़े-लिखे लोग और जागरूक समाज भी इस समस्या से अछूता नहीं है। आज हजारों लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही कोख में मार दिया जाता है या जन्म लेते ही लावारिस छोड़ दिया जाता है। आज भी समाज में कई घर ऐसे हैं, जहां बेटियों को बेटों की तरह अच्छा खाना और अच्छी शिक्षा नहीं दी जा रही है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5 प्रतिशत औरतें ऐसी हैं, जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22 प्रतिशत औरतें ऐसी हैं, जो 18 साल के पहले मां बनी हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73 प्रतिशत बच्चे पैदा हुए हैं। इन बच्चों में 67 प्रतिशत कुपोषण के शिकार हैं।

 

हम अनेकों अवसरों पर कन्या का पूजन करते हैं लेकिन जब खुद के घर बालिका जन्म लेती है तो मातम का माहौल बना लेते हैं। यह हालात भारत के हर हिस्से में हैं। हरियाणा और राजस्थान के हालात तो इतने खराब हैं कि यहां बच्चियों को अभिशाप तक माना जाता है। कन्याओं को अभिशाप मानने वाले यह भूल जाते हैं कि वह उस देश के वासी हैं जहां देवी दुर्गा को कन्या रूप में पूजने की प्रथा है। जो लोग कन्याओं को बोझ मानते हैं उन्हें ही सही मार्ग बताने और कन्या-शक्ति को जनता के सामने लाने के लिए हर साल 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है।

 

कन्या भ्रूण हत्या एक जटिल मसला है। असल में इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी स्त्रियों की जागरूकता ही है, क्योंकि इस संदर्भ में निर्णय तो स्त्री को ही लेना होता है। दूसरी परेशानी कानून-व्यवस्था के स्तर पर है। भारत में इस समस्या से निबटना बहुत मुश्किल है, पर अगर स्त्रियां तय कर लें तो नामुमकिन तो नहीं है। लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और अत्याधिक चिंता का विषय है कि देश में वर्ष 1961 से ही बाल लिंगानुपात तेजी से गिरता रहा है। हम वर्ष 2019 में हैं और 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक को पूरा करने जा रहे हैं, लेकिन हम विचारधारा को बदलने में सफल नहीं हुए हैं। भारतीय समाज में सभी वर्गों के लोग बेटा होने की इच्छा रखते हैं और नहीं चाहते कि उन्हें बेटी हो।

 

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लड़कियों द्वारा अनेक क्षेत्रों में ऊंची उपलब्धियां हासिल करने के बावजूद भारत में जन्म लेने वाली अधिकतर लड़कियों के लिए यह कठोर वास्तविकता है कि लड़कियां शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों और बाल विवाह से सुरक्षा के अधिकार से वंचित हैं। परिणाम स्वरूप वे आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हैं। प्रताड़ना व हिंसा की शिकार हैं। जनगणना आंकड़ों के अनुसार बाल लिंगानुपात 1991 के 945 से गिरकर 2001 में 927 हो गया और इसमें फिर 2011 में गिरावट आई और बाल लिंगानुपात 918 रह गया। यह महिलाओं के कमजोर होने का प्रमुख सूचक है, क्योंकि यह दिखाता है कि लिंग आधारित चयन के माध्यम से जन्म से पहले भी लड़कियों के साथ भेदभाव किया जाता है और जन्म के बाद भी भेदभाव का सिलसिला जारी रहता है। भारत में अगर लिंग अनुपात देखा जाए तो बेहद निराशाजनक है। 2011 में हुई जनगणना के हिसाब से भारत में 1000 पुरुषों पर 940 है। यह आंकड़े राष्ट्रीय स्तर पर औसतन हैं। अगर हम राजस्थान और हरियाणा जैसे स्थानों पर नजर मारें तो यहां हालात बेहद भयावह हैं।

 

हमारे देश की यह एक अजीब विडंबना है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। समाज में लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। सरकार ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम की पहल की है। इस कार्यक्रम को एक राष्ट्रव्यापी जन अभियान बनाना होगा। भारत में लगातार घटते जा रहे इस बाल लिंगानुपात के कारण को गंभीरता से देखने और समझने की जरुरत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजस्थान के झुंझुंनू में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान का शुभारम्भ करते वक्त कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित कार्य को समाज पर कलंक बताया था। उन्होंने कहा था कि सरकार हर सम्भव तरीके से कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगायेगी।

 

जाहिर है लिंगानुपात कम होने का कारण प्राकृतिक नहीं है। यह एक मानव निर्मित समस्या है, जो कमोबेश देश के सभी हिस्सों, जातियों, वर्गों और समुदायों में व्याप्त है। भारतीय समाज में व्याप्त लड़कियों के प्रति नजरिया, पितृसत्तात्मक सोच, सामाजिक-आर्थिक दबाव, असुरक्षा, आधुनिक तकनीक का गलत इस्तेमाल इस समस्या के प्रमुख कारण हैं। समाज में आज भी बेटियों को बोझ समझा जाता है। आज भी बेटी पैदा होते ही उसके लालन-पालन से ज्यादा उसकी शादी की चिन्ता होने लगती है। महंगी होती शादियों के कारण बेटी का हर बाप हर समय इस बात को लेकर फिक्रमन्द नजर आता है कि उसकी बेटी की शादी की व्यवस्था कैसे होगी। समाज में व्याप्त इसी सोच के चलते कन्या भ्रूण हत्या पर रोक नहीं लग पायी है। कोख में कन्याओं को मार देने के कारण समाज में आज लड़कियों की काफी कमी हो गयी है।

 

भारत में पुरुषों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। भारत में हर साल तीन से सात लाख कन्या भ्रूण नष्ट कर दिये जाते हैं। इसलिए यहां महिलाओं से पुरुषों की संख्या 5 करोड़ ज्यादा है। सोनोग्राफी के प्रचलन से लड़के की चाह रखने वाले लोगों को वरदान मिल गया और कन्या भ्रूण की पहचान कर हत्या की शुरुआत हुई। इस प्रकार से पहचान कर कन्या भ्रूण की हत्या के कारण भारत में पुरुषों की संख्या में तेजी से उछाल आया। समाज में निरंतर परिवर्तन और कार्य बल में महिलाओं की बढ़ती भूमिका के बावजूद रूढ़िवादी विचारधारा के लोग मानते हैं कि बेटा बुढ़ापे का सहारा होगा और बेटी हुई, तो वह अपने घर चली जायेगी। बेटा अगर मुखाग्नि नहीं देगा, तो कर्मकांड पूरा नहीं होगा।

 

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पिछले 50 सालों में बाल लिंगानुपात में 63 पाइन्ट की गिरावट दर्ज की गयी है। वर्ष 2001 की जनगणना में जहां छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी लेकिन 2011 की जनगणना में यह घटकर कर 914 हो गया है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लिंगानुपात को बढ़ाने के लिए अनेकानेक प्रयास किये गये हैं लेकिन स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती ही गयी है। हमारे देश की बेटियां अंतरिक्ष में जाकर इतिहास रच चुकी हैं वहीं सेना में भी शौर्य दिखा रही हैं। देश में महिला हर क्षेत्र में पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर देश के विकास में अपनी बराबर की भागीदारी निभा रही हैं। ऐसे में उनके साथ समाज में हो रहा भेदभाव किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता है। आज जरूरत है हमें महिलाओं को प्रोत्साहन देने की तभी सही मायने में देश विकास कर पायेगा व राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाना सार्थक हो पायेगा।

 

-रमेश सर्राफ धमोरा

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