चिट्ठी का मौसम (व्यंग्य)

By विजय कुमार | Jul 29, 2019

पर पिछले कुछ समय से एक नया मौसम भारत में नमूदार हुआ है। वह है चिट्ठी का मौसम। वैसे इंटरनेट के इस युग में चिट्ठी को कोई नहीं पूछता; पर कुछ लोग अभी हैं, जो इस विधा को जीवित रखे हैं। यद्यपि इनकी संख्या लगातार घट रही है। यदि ये ऐसे ही घटते रहे, तो कुछ साल बाद संग्रहालय में इनके फोटो देखकर ही संतोष करना होगा। 

 

पर इनकी चिट्ठी सामान्य नहीं होती। असल में इन्हें कुंभकर्ण जैसी लम्बी नींद से उठकर अचानक अहसास होता है कि लोकतंत्र खतरे में है। अभिव्यक्ति की आजादी छीनी जा रही है। सरकारी संस्थाओं पर एक विशेष विचारधारा वाले लोग बैठाए जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो रहा है। विपक्ष को समाप्त किया जा रहा है..आदि।

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इनकी गहरी नींद का रहस्य तो मुझे नहीं पता। कुछ लोग इसका कारण रात के खाने और पेटभर पीने को बताते हैं। कुछ का मत है कि पिछली सरकारों ने इन्हें इतने नकद पुरस्कार, सम्मान और अलंकरण दिये हैं कि इन्हें अपच हो गयी है। अतः इन्हें नींद की गोली लेनी पड़ती है। 

 

खैर कारण जो भी हो, पर नींद से उठ कर ये लोग किसी बड़े होटल में मिलते हैं। वहां खा-पीकर एक चिट्ठी लिखते हैं और उसे मीडिया में दे देते हैं। पिछले दिनों भी कुछ बुद्धिजीवी किस्म के लोगों ने देश के नाम एक चिट्ठी लिखी। चार साल पहले भी उन्होंने यही किया था। तब इसके साथ सम्मान वापसी का नाटक भी चला था; पर इस बार ये वायरस फैलने से पहले कई और बुद्धिजीवी सामने आ गये। उन्होंने इनके जवाब में दूसरी चिट्ठी लिख दी। 

 

हमारे शर्माजी इससे बड़े दुखी हैं। कल वे मेरे घर चाय पीने आ गये। 

 

- वर्मा, ये चिट्ठी युद्ध क्यों हो रहा है ?

 

- शर्माजी, भारत में ऐसे कई पेशेवर बुद्धिजीवी हैं, जिनका कुछ साल पहले तक देश की अधिकांश शैक्षिक और कला संस्थाओं पर कब्जा था। ये लोग साल में दो-तीन बार एक-दूसरे का सम्मान कर देते थे। साथ में मोटी राशि, हवाई किराया, पंचतारा होटल में आवास और खाना-पीना होता ही था। सालों तक ये इसी तरह आपस में पीठ खुजाते रहे; पर सरकारें बदलने से अब इन्हें कोई घास के मोल तोलने को भी तैयार नहीं है। तभी इनकी नींद हराम है।

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- पर इन्हें चिट्ठी की याद इतने साल बाद ही क्यों आयी ?

 

- शर्माजी, पिछली बार ये चिट्ठी बिहार के चुनाव से पहले आयी थी। तब नीतीश बाबू और नरेन्द्र मोदी में सीधी लड़ाई थी। इसका फायदा नीतीश बाबू को हुआ था।

 

- यानि ये चुनाव की एक रणनीति थी ?

 

- जी हां। तब नीतीश बाबू के साथ चुनाव विशेषज्ञ प्रशांत किशोर भी थे। हो सकता है ये आइडिया उन्हीं का हो। 

 

- पर बिहार के चुनाव तो अभी दूर हैं। फिर अब नीतीश बाबू और नरेन्द्र मोदी एक साथ हैं ?

 

- लेकिन झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में तो चुनाव इसी साल हैं। इसीलिए पुराने तरीके फिर आजमाये जा रहे हैं। 

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- थोड़ा सरल शब्दों में समझाओ वर्मा।

 

- शर्माजी, जैसे वर्षा से पहले बादल आते हैं, ऐसे ही चुनाव से पहले इन चिट्ठियों का मौसम भी आता है। 

 

शर्माजी की समझ में बात आ जाए, तो वे चुप हो जाते हैं। आज भी ऐसा ही हुआ और इसी अवस्था में वे घर को प्रस्थान कर गये।

 

-विजय कुमार

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