By कमलेश पांडे | Oct 04, 2024
'एक देश, एक चुनाव यानी 'वन नेशन, वन इलेक्शन' की बात सुनने में जितनी अच्छी लगती है, व्यवहार में इसका अनुपालन उतना ही कठिन है। क्योंकि भले ही किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का कार्यकाल पांच वर्षों का होता है, लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के जरिए उसे निर्धारित अवधि से पहले ही हटाया जा सकता है। ऐसे में मध्यावधि चुनाव होना लाजिमी है। यह स्थिति केंद्र के अलावा विभिन्न राज्य सरकारों के समक्ष भी पैदा हो सकती है। ऐसे में समझा जा सकता है कि एक देश, एक चुनाव की बात कितनी बेमानी है।
ऐसा करने से पहले हमें केंद्र व राज्य में सर्वदलीय सरकार की अवधारणा को स्वीकृति देना होगा और यह तय करना होगा कि किसी भी परिस्थिति में मध्यावधि चुनाव नहीं होंगे और ऐसी नौबत आने पर केंद्र और राज्य में सर्वदलीय सरकार ही कार्य करेगी, अगला चुनाव होने तक। इसके अलावा, एक देश, एक चुनावी की अवधारणा के खाँचें में संसदीय और विधानमंडलीय चुनाव के अलावा त्रिस्तरीय पंचायती राज चुनावों को भी लेना होगा, अन्यथा प्रशासनिक मिशनरी पर एक और अनावश्यक बोझ पड़ेगा।
इसके अलावा, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव, राज्यसभा चुनाव, विधान परिषद चुनाव आदि को भी उसी कैलेंडर वर्ष में करने की अनिवार्यता होनी चाहिए। अपने देश में विश्विद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव होते हैं, कॉपरेटिव चुनाव होते हैं, हरेक राजनीतिक दलों के आंतरिक चुनाव होते हैं, सबको यदि एक ही चुनावी कैलेंडर वर्ष में करवाने के नियम तय कर दिए जाएं, तो बहुत सारे वैचारिक विरोधाभासों का खात्मा खुद ब खुद हो जाएगा।
एक बात और, 5 साल में एक बार न केवल चुनाव करवाए जाएं, बल्कि जनप्रतिनिधियों के उत्तरदायित्व भी फिक्स किये जाएं। उनके साथ साथ सरकारी अधिकारियों के भी उत्तरदायित्व निर्धारित किये जाएं। क्योंकि आजादी के लगभग 8 दशक के बाद भी न तो देश की सीमाएं सुरक्षित हैं, न ही आंतरिक सुरक्षा की स्थिति मजबूत है। भय, भूख और भ्रष्टाचार के बढ़ते आलम के बीच रोटी, कपड़ा और मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान के हर ओर लाले पड़े हुए हैं। ऐसे 5 साल में चुनाव हों, या न हों, क्या फर्क पड़ जाता है, यह सोचने-विचारने का वक्त आ चुका है। इसलिए अभी ही यह तय कर लिया जाए कि एक देश एक चुनाव से क्या बदल जाएगा अपने देश भारत में?
एक देश, एक चुनाव की बातें तो भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों को खूब मजबूती देगी, लेकिन उन क्षेत्रीय दलों को इससे घाटा होगा, जिनके पास कार्यकर्ताओं और आर्थिक संसाधनों की भारी किल्लत है। इसलिए यह जनतंत्र की मूल भावना पर किसी कुठाराघात जैसा होगा। इससे सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं के सामने भी बेरोजगारी की नौबत आ जाएगी, क्योंकि अभी वर्ष पर्यंत कहीं न कहीं चुनाव चलते रहने से उनकी पूछ बनी रहती है।
ऐसे में भारत में लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव, विधानसभा और विधान परिषद के चुनाव, नगर निगम, नगरपालिका परिषद, नगर पंचायत, जिला परिषद, ब्लॉक प्रमुख और ग्राम पंचायत के चुनाव अलग-अलग समय पर हों, यही राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए उचित है। क्योंकि अब जिस पॉलिसी यानी वन नेशन वन इलेक्शन के बारे में चर्चा हो रही है, उसके हिसाब से यदि एक ही समय में ये दोनों इलेक्शन होंगे, तो प्रचार सामग्री और मैन मैनेजमेंट उद्योग पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।
वहीं, यदि त्रिस्तरीय पंचायती राज चुनावों को भी इसके दायरे में समेट लिया जाए तो स्थिति और विकट हो जाएगी। सच कहूं तो पूरी राजनीतिक अर्थव्यवस्था ही धराशायी हो जाएगी, जो काला-धन प्रवाह का सबसे बड़ा कारक है। इसी बहाने मतदाताओं से लेकर लोकल बाजार तक गुलजार रहा करते हैं। प्रशासनिक आचारसंहिता से जितना विकास प्रभावित होता है, उससे ज्यादा वह प्रभावित हो जाएगा पंचवर्षीय चुनाव की मूल भावना से।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि लोकसभा और राज्यसभा के चुनावों के दौरान देश में हालात अच्छे नहीं होते हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज चुनावों के वक्त ये और भी बिगड़ जाते हैं। इसलिए जब ये तीनों चुनाव एक साथ होने लगेंगे, तो समझा जा सकता है कि सियासी अंतर्द्वंद्व का क्या होगा? फिलवक्त वन नेशन वन इलेक्शन के प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद भले ही ऐसा माना जा रहा है कि 2029 के चुनावों से पहले यही होगा। लेकिन यह कितना व्यवहारिक पहल होगा, अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हां, इतना जरूर है कि अभी भले ही कुछ लोगों को यह सपने जैसा लग रहा हो, लेकिन सही मायने में वन नेशन वन इलेक्शन पहले भारत में होता था। हालांकि महज 4 लोकसभा चुनावों के बाद ही सबकुछ बेपटरी हो गया, जो अबतक जारी है।
ऐसे में वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर अब क्या प्रस्ताव रखे गए हैं और आगे अब क्या होगा इसके बारे में यहां खुलकर बात करते हैं, ताकि जनमानस जागरूक हो सके। जैसा नाम वैसा काम की तर्ज पर इसमें एक ही समय पर लोकसभा और राज्यसभा के मतदान होंगे। कहने का तातपर्य यह कि एक ही साल में केंद्र और राज्य सरकारों को चुना जाएगा। यूँ तो मौजूदा समय में कुछ ही ऐसे राज्य हैं जिनमें एक समय पर मतदान होता है, जहां राज्य सरकारें भी तभी चुनी जाती हैं जब केंद्र सरकार चुनी जाती है। इनमें आंध्र प्रदेश, सिक्किम और ओडीसा के नाम शामिल हैं।
जबकि महाराष्ट्र और झारखंड में इस साल के अंत में ही चुनाव होंगे जहां राज्य सरकारें चुनी जाएंगी।
वहीं, जम्मू और कश्मीर और हरियाणा में भी इस साल ही चुनाव हुए और परिणाम आने के बाद सरकार गठित होगी। हालांकि, देश के शेष राज्यों में नॉन सिंक साइकिल चलती है। जैसे पिछले साल कुछ राज्यों के चुनाव हुए थे, उसके पिछले साल कुछ अन्य राज्यों के। जिस तरह से भारत में चुनाव दर चुनाव होते हैं, उसके मद्देनजर एक देश और एक चुनाव में राज्यों को भी काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।
सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, 1951 और 52 के पहले आम चुनावों से एक देश, एक चुनाव की शुरुआत हुई थी। आजादी के बाद के दौर में अपने आप में यह पहले चुनाव थे और उसके बाद यही नियम 1967 के चौथे लोकसभा चुनावों तक चलता रहा था। तब पूरे देश में एक ही साथ वोटिंग होती थी और सरकार चुन ली जाती थी। पर भारतीय राजनीति में समाजवादियों ने कांग्रेस विरोध के नाम पर ऐसी वैचारिक फितूरों को बढ़ावा दिया कि सबकुछ गड्डमगड्ड हो गया, जिसके बाद अब चुनाव कई चरणों में होता है। देश के कोने-कोने तक चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और जारी रहती है।
देखा जाए तो हर साल देश के किसी ना किसी हिस्से में कोई ना कोई चुनाव चलता रहता है। केंद्रीय और राज्य चुनाव आयोग का काम इन सभी चुनावों को सही तरह से संपन्न करवाना है, लेकिन क्या आपको पता है कि यदि एक साथ चुनाव होने लगे, तो भारत में क्या होगा? इस प्रस्ताव को लेकर अभी कई सवाल लोगों के दिलोदिमाग में उठ रहे हैं और कई बातें कही जा रही हैं। जिसे थोड़ा और अधिक गौर से जानने-समझने की कोशिश करते हैं, ताकि इस स्वस्थ बहस को आगे बढ़ाया जा सके।
दरअसल, एक देश, एक चुनाव के प्रस्ताव को लागू करने से पहले इसे कानून बनाना होगा। जिसकी राह में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसे पहले पास करवाना होगा। जिसके लिए संविधान में लगभग 18 संशोधन किए जाएंगे। इसका आशय यह हुआ कि संविधान को बदला जाएगा। बहरहाल संविधान में कोई भी नया बदलाव लाने के लिए लोकसभा में इसको लेकर मतदान होंगे, जिसमें दो-तिहाई सांसदों का समर्थन जरूरी है। वहां भी मतदान तभी हो सकता है जब सभी 543 सदस्य मौजूद हों। वहीं, इसमें 362 सदस्यों के समर्थन की जरूरत होगी। इसलिए इसे पास करवाना ही राजग गठबंधन की मोदी सरकार के लिए अभी मुश्किल काम है।
उल्लेखनीय है कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का पैनल बनने से पहले पिछले साल से ही इसके बारे में समाचार माध्यमों में खबरें आने लगी थीं। बताया जा रहा है कि अलग-अलग समय पर चुनाव करवाने के कारण बहुत सारा पैसा और ससंसाधन खर्च होते हैं। प्रायः हर चुनाव से पहले पोल ऑफिसर्स निर्धारित होते हैं जिन्हें अलग-अलग सरकारी और गैर सरकारी पदों से नियुक्त किया जाता है। इसके बाद सुरक्षा संसाधन, ईवीएम और बहुत कुछ व्यय होता है। ऐसे में यदि एक ही साल में सारे चुनाव हो जाएंगे, तो कई संसाधनों का बचाव किया जा सकता है।
सवाल है कि जब इसे लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करने की जरूरत होगी। खासकर संविधान के पांच ऐसे आर्टिकल्स में संशोधन करना होगा जिन्हें करना मौजूदा सरकार के लिए आसान नहीं है। तो फिर सरकार इसे लेकर इतनी जल्दबाजी में क्यों है? यदि राज्य या केंद्र सरकार अविश्वास प्रस्ताव (नो कॉन्फिडेंस मोशन) का शिकार होती है या फिर समय से पहले खारिज हो जाती है, तो क्या दोबारा इलेक्शन पूरे देश में करवाए जाएंगे? इस तरह के सवालों को लेकर ही सियासी दलों से लेकर संविधान के जानकारों के बीच भी विवाद हो रहे हैं।
क्योंकि यदि वन नेशन वन इलेक्शन लागू होता है, तो सबसे ज्यादा नुकसान छोटी राजनीतिक पार्टियों को हो सकता है। क्योंकि उनके पास ज्यादा समय नहीं होगा, अपना चुनाव प्रचार करने के लिए और मतदाताओं को अपने बारे में बताने के लिए। साथ ही, एक साथ चुनाव करवाने में कॉस्ट बढ़ जाएगी वो अलग। ऐसे में अब जन-मुद्दा यह है कि क्या वाकई एक देश एक चुनाव (वन नेशन वन इलेक्शन) जैसी स्थिति लागू हो सकती है या नहीं। क्या इसे लागू होने में अभी समय लगेगा और इसके लागू होने के पहले कई तरह के वाद-विवाद भी होंगे। ये बेतुके भी ज्यादा होंगे, जैसा आजतक होते आया है। यही सोचकर दिल घबरा जाता है।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक