By कमलेश पांडे | Dec 14, 2024
क्या आपको पता है कि प्रथम मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम ने 712 ई में भारत के सिंध प्रांत पर आक्रमण किया और काफी उत्पात मचाया। उसके बाद उसके अनुयायी यानी मुस्लिम आक्रमणकारी अपनी सुविधा के अनुसार भारत पर आक्रमण करते हुए आए, यहां के समृद्ध मंदिरों व बाजारों सहित प्रमुख जगहों पर लूटपाट मचाई और अपने भरोसेमंद लोगों के हाथों में यहाँ की सत्ता सौंप कर फिर वापस चले गए। जबकि बाद के इस्लामिक आक्रमणकारियों ने तो यही अपना डेरा जमा लिया और हमारी संस्कृति को तहस-नहस करने पर आमादा दिखे।
फलस्वरूप लगभग 500 वर्षों के बाद 12वीं सदी तक भारत पूर्ण रूप से मुस्लिम राजाओं का गुलाम बन गया। उसके बाद तो यहाँ धार्मिक उत्पीड़न और धर्मांतरण का खुला खेल फरूखाबादी चलने लगा। काल प्रवाह वश विभिन्न हिन्दू मंदिर को तोड़कर मस्जिदों में बदल दिया गया। ऐसे में मुस्लिम और ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुए भारत और अपने हिस्से का भूखंड लेकर पाकिस्तान चले गए मुसलमानों से इतर सन 1947 में भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाता और अतिक्रमित मंदिरों के जीर्णोद्धार का अभियान चलाया जाता। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उल्टा! कारण नेहरू और इंदिरा सरकार की गलत और अप्रासंगिक नीतियां, जो बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने भी जारी रखी।
वह यह कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति वश कांग्रेस ने देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित कर दिया और अल्पसंख्यक हितों को संरक्षित करने वाली कानून बनाने लगी। इससे ज्यादातर हिन्दू ठगे रह गए। उसके साथ ही सांप्रदायिक दंगे आसेतु हिमालय की नियति बन गई। सन 1947, इससे पहले और बाद के सांप्रदायिक दगों का चरित्र एक रहा और प्रशासनिक नीतियों का असमंजस भी। इसी ऊहापोह के बीच हिंदुओं में उपजी मंदिरों के वापसी की आकांक्षाओं ने उन्हें एकजूट कर दिया, जिसको कुचलने के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट, 1991 या उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 को लागू किया गया।
बता दें कि यह भारत की संसद का एक अधिनियम है, जिसको 18 सितंबर, 1991 को पारित किया गया। यह अधिनियम 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में आए हुए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को एक आस्था से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने पर और किसी भी स्मारक के धार्मिक आधार पर रखरखाव पर रोक लगाता है। इससे लगभग 1800 उन हिन्दू मंदिरों के जीर्णोद्धार का सवाल दम तोड़ गया, जिसकी कब्र पर आज मस्जिदें लहलहा रही हैं। वहीं, मान्यता प्राप्त प्राचीन स्मारकों पर उक्त कानून की धाराएं लागू नहीं होंगी। लिहाजा, अब इसी कट ऑफ डेट पर सवाल उठ रहा है।
हिंदुओं का सवाल यह कि कट ऑफ डेट 15 अगस्त 1947 ही क्यों? प्रथम मुस्लिम आक्रांता से जुड़ा वर्ष 712 ईस्वी क्यों नहीं? या फिर लगभग 1200 ई क्यों नहीं, जब दिल्ली सल्तनत अपनी पूरी हिन्दू विरोधी फितरत में दिखाई पड़ती थी? क्या सनातन भूमि को 'इस्लामिक भूमि' में तब्दील करने में हमारी संसद भी सिर्फ इसलिए दिलचस्पी लेने लगी, ताकि नेहरू-गांधी परिवार विशेष को खुश रखा जा सके।वहीं, सत्ता की गरज से आरएसएस भी वही भाषा बोल रहा है और कह रहा है कि सभी मस्जिदों में शिवलिंग खोजना गलत है। इससे बीजेपी को सियासी सहूलियत मिल रही है।लेकिन मूल मुद्दे से लोगों का ध्यान भटकाया जा रहा है। यदि आप कुछ पुस्तक और वेबसाइट पर नजर डालेंगे तो हिन्दू मंदिरों की अकाल मौत पर तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, वर्ष 1990 में इतिहासकार सीता राम गोयल ने अन्य लेखकों अरुण शौरी, हर्ष नारायण, जय दुबाशी और राम स्वरूप के साथ मिलकर ‘हिंदू टेम्पल: व्हाट हैपन्ड टू देम’ (Hindu Temples: What Happened To Them) नामक दो खंडों की किताब प्रकाशित की थी। उसमें गोयल ने 1800 से अधिक मुस्लिमों द्वारा बनाई गई इमारतों, मस्जिदों और विवादित ढाँचों का पता लगाया था, जो मौजूदा मंदिरों/या नष्ट किए गए मंदिरों की सामग्री का इस्तेमाल करके बनाए गए थे। कुतुब मीनार से लेकर विवादास्पद बाबरी मस्जिद, ज्ञानवापी विवादित ढाँचे, पिंजौर गार्डन और अन्य कई का उल्लेख इस किताब में मिलता है। इससे बाबरी मस्जिद मामले में ही हिंदुओं को न्यायालय के द्वारा न्याय मिली है, जबकि अन्य सारे सवाल अनुत्तरित हैं! इससे संसदीय भूमिका भी जनमानस के कठघरे में खड़ी है।
हैरत की बात यह है कि इस अधिनियम से उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या में स्थित राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद और उक्त स्थान या पूजा स्थल से संबंधित किसी भी वाद, अपील या अन्य कार्यवाही को तो मुक्त कर दिया गया था, जिसके लिए यह अधिनियम लागू नहीं होता है। हालांकि, वहां आया न्यायसम्मत आदेश हिंदुओं के पक्ष में आया और अब वहां भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जा चुका है। लेकिन अब काशी, मथुरा, संभल, अजमेर शरीफ समेत उन लगभग 1800 अतिक्रमित मंदिरों पर अतिक्रमित मस्जिद को वैधता प्रदान कर दी गई, जो हिन्दू आस्था से खिलवाड़ नहीं तो क्या है? इसलिए इस पर सवाल उठना लाजिमी है।
इस अधिनियम ने स्पष्ट रूप से अयोध्या विवाद से संबंधित घटनाओं को वापस करने की अक्षमता को स्वीकार किया था। ध्यान रहे कि कथित बाबरी संरचना को ध्वस्त करने से पहले 1991 में तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी॰ वी॰ नरसिम्हा राव द्वारा उपर्युक्त कानून लाया गया था। जो जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत में फैला हुआ है। हालांकि, किसी राज्य के लिए लागू होने वाले किसी भी कानून को वहां की विधानसभा द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। लेकिन सवाल फिर वही कि तब मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर को इससे छूट क्यों दी गई थी?
बता दें कि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 ने कहा कि सभी प्रावधान 11 जुलाई, 1991 को लागू होंगे। वहीं, धारा 3, 6 और 8 तुरंत लागू होंगे। धारा 3 में पूजा स्थलों का रूपांतरण भी होता है। 1991 के इस अधिनियम के तहत अपराध एक जेल की अवधि के साथ दंडनीय हैं जो तीन साल तक की सजा के साथ-साथ जुर्माना भी हो सकता है। वहीं, अपराध को जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 8 (खंड "ज" के रूप में) में शामिल किया जाएगा, जिसके तहत चुनाव में उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराने के उद्देश्य से उन्हें अधिनियम के तहत दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाई जानी चाहिए।
समझा जाता है कि पूजा स्थलों के परिवर्तन के संबंध में समय-समय पर उत्पन्न होने वाले विवादों को देखते हुए, यह महसूस किया गया है कि ऐसे परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। वहीं,15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में रहे किसी पूजा स्थल के संबंध में किसी विवाद को समाप्त करने के लिए, ऐसे पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को बनाए रखने के लिए प्रावधान करना आवश्यक समझा जाता है, जैसा कि वह 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में था।
इसके परिणामस्वरूप, ऐसे किसी भी पूजा स्थल के संबंध में 11 जुलाई, 1991 तक लंबित सभी मुकदमे या अन्य कार्यवाहियां समाप्त हो जाएंगी तथा आगे के मुकदमों या अन्य कार्यवाहियों पर रोक लगाई जा सकेगी। तथापि, चूंकि सामान्यतः राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले स्थान से संबंधित मामला अपने आप में एक वर्ग है, इसलिए इसे इस अधिनियम के प्रभाव से पूर्णतः छूट देना आवश्यक हो गया है।
इसके अतिरिक्त, सांप्रदायिक सद्भाव और शांति बनाए रखने के लिए, 15 अगस्त, 1947 और 11 जुलाई, 1991 के बीच न्यायालयों, न्यायाधिकरणों या अन्य प्राधिकारियों द्वारा विनिश्चित किए गए मामले, या पक्षों द्वारा आपस में या सहमति से निपटाए गए मामले भी इस अधिनियम के प्रभाव से मुक्त हैं। वहीं, 11 जुलाई, 1991 को अधिनियम की प्रारंभ तिथि के रूप में प्रस्तावित किया गया है, क्योंकि उसी दिन राष्ट्रपति ने संसद को संबोधित करते हुए ऐसी घोषणा की थी। इस विधेयक का उद्देश्य उपर्युक्त उद्देश्यों को प्राप्त करना है।
इसमें पूजा स्थल का तात्पर्य मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, मठ या किसी भी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी अनुभाग का सार्वजनिक धार्मिक पूजा स्थल है, चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए। वहीं, कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी खंड के पूजा स्थल को उसी धार्मिक संप्रदाय के किसी भिन्न खंड या किसी भिन्न धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी खंड के पूजा स्थल में परिवर्तित नहीं करेगा।
वहीं, कुछ पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र तथा न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के निषेध आदि के संबंध में इसके द्वारा यह घोषित किया जा चुका है कि 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान पूजा स्थल का धार्मिक स्वरूप वैसा ही बना रहेगा जैसा वह उस दिन था। वहीं, यदि इस अधिनियम के प्रारंभ पर 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान किसी पूजा स्थल के धार्मिक स्वरूप के परिवर्तन के संबंध में कोई वाद, अपील या अन्य कार्यवाही किसी न्यायालय, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण के समक्ष लंबित है, तो उसका उपशमन हो जाएगा और ऐसे प्रारंभ पर या उसके पश्चात् किसी ऐसे मामले के संबंध में कोई वाद, अपील या अन्य कार्यवाही किसी न्यायालय, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में नहीं होगी।
परन्तु यदि कोई वाद, अपील या अन्य कार्यवाही, जो इस आधार पर संस्थित या दाखिल की गई है कि किसी ऐसे स्थान के धार्मिक स्वरूप में 15 अगस्त, 1947 के पश्चात् धर्म परिवर्तन हुआ है, इस अधिनियम के प्रारंभ पर लम्बित है, तो ऐसा वाद, अपील या अन्य कार्यवाही इस प्रकार उपशमित नहीं होगी और प्रत्येक ऐसे वाद, अपील या अन्य कार्यवाही का निपटारा उपधारा (1) के उपबंधों के अनुसार किया जाएगा।
इस कानून के तहत निर्दिष्ट कोई पूजा स्थल जो प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक स्थल है या प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 ( 1958 का 24 ) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य कानून के अंतर्गत आता है; या उपधारा में निर्दिष्ट किसी विषय के संबंध में कोई वाद, अपील या अन्य कार्यवाही, जो इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व किसी न्यायालय, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण द्वारा अंतिम रूप से विनिश्चित, निपटाई या निपटाई जा चुकी हो; किसी ऐसे मामले के संबंध में कोई विवाद जो ऐसे प्रारंभ से पूर्व पक्षकारों द्वारा आपस में सुलझा लिया गया हो; ऐसे प्रारंभ से पूर्व स्वीकृति द्वारा किया गया किसी स्थान का परिवर्तन; ऐसे प्रारंभ से पूर्व किसी ऐसे स्थान का किया गया कोई परिवर्तन, जो किसी न्यायालय, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में चुनौती दिए जाने योग्य न हो तथा जो किसी समय प्रवृत्त विधि के अधीन परिसीमा द्वारा वर्जित हो।
यही वजह है कि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को अक्सर बाद के वर्षों में सुलझाए जा चुके राम मंदिर मुद्दे के अलावा मथुरा के कृष्ण मंदिर और काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद आदि मुद्दे के संबंध में देखा जाता है। यही वजह है कि एक बार सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र से पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब मांगा, जो पूजा स्थलों की स्थिति को 15 अगस्त, 1947 जैसी बनाए रखता है।
लेकिन यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यदि पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र में परिवर्तन 15 अगस्त, 1947 की कट-ऑफ तिथि के बाद किया गया हो तो कानूनी कार्यवाही शुरू की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, उपासना स्थल अधिनियम राज्य पर सभी पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को उसी प्रकार बनाए रखने का सकारात्मक दायित्व डालता है, जैसा वह स्वतंत्रता के समय था।
वहीं, कोई भी पूजा स्थल जो प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक स्थल है जो प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत आता है। वहीं, कोई भी विवाद जो पक्षकारों द्वारा सुलझा लिया गया हो या किसी स्थान का परिवर्तन जो अधिनियम के लागू होने से पहले सहमति से हुआ हो। वहीं, ऐसा मुकदमा जिसका अंतिम रूप से निपटारा या निपटारा हो चुका हो। बता दें कि जब यह कानून लोकसभा में पेश किया गया था, तो तत्कालीन गृह मंत्री ने टिप्पणी की थी कि यह कानून “प्रेम, शांति और सद्भाव की हमारी गौरवशाली परंपराओं को प्रदान करने और विकसित करने के उपाय के रूप में” पेश किया गया था।
2019 के अयोध्या राम जन्मभूमि फैसले में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कानून को बरकरार रखा और कहा कि यह भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को प्रतिबिंबित करता है और यह प्रतिगामीता को रोकता है।
वहीं, उपासना स्थल अधिनियम 1991 से जुड़ी याचिका में कहा गया है, "केंद्र ने पूजा स्थलों और तीर्थस्थलों पर अवैध अतिक्रमण के खिलाफ उपायों पर रोक लगा दी है और अब हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख अनुच्छेद 226 के तहत मुकदमा दायर नहीं कर सकते हैं या उच्च न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटा सकते हैं। इसलिए, वे अनुच्छेद 25-26 की भावना के अनुसार मंदिर बंदोबस्ती सहित अपने पूजा स्थलों और तीर्थस्थलों को बहाल नहीं कर पाएंगे और आक्रमणकारियों का अवैध बर्बर कृत्य अनंत काल तक जारी रहेगा।"
याचिका में यह भी कहा गया कि यह कानून संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। वहीं, कुछ लोगों का तर्क है कि “तीर्थस्थल” या “कब्रिस्तान” राज्य सूची के अंतर्गत आते हैं और केंद्र के पास इस पर कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है। हालांकि, केंद्र ने तर्क दिया था कि वह संघ सूची की प्रविष्टि 97 में अवशिष्ट शक्ति के तहत ऐसा कर सकता है।
इसलिए बेहतर यही होगा कि बर्बर इतिहास को बदलने से जुड़े इस भावनात्मक मुद्दे पर संसद और सुप्रीम कोर्ट दोनों पुनर्विचार करे और इतिहास में बलपूर्वक किए हुए अन्याय को समझदारी पूर्वक न्याय में बदले, जैसा कि उसने अयोध्या के राम मंदिर मामले में किया है। बेहतर तो यही होगा कि इन 1800 मामलों की न्यायिक जांच हो और यदि हिंदुओं के आरोप सही हों, तो यहाँ पर फिर से मंदिर को पुनर्स्थापित किया जाए। यही प्राकृतिक न्याय का भी तकाजा है। इससे भविष्य में मंदिर तोड़े जाने की प्रवृत्ति पर भी लगाम लगेगी। इसके बिना 1947 में मिली आजादी के मायने भी हिंदुओं के लिए स्पष्ट नहीं होंगे। कोई भी धर्मनिरपेक्षता हिंदुत्व की कीमत पर बहाल नहीं हो सकती है, क्योंकि भारत उनकी मूल भूमि है।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक