विगत अंक में हम चर्चा कर रहे थे, कि सत्संग की परिभाषा केवल उतनी ही नहीं है, जितनी कि हम समझे बैठे हैं। कारण कि हमारे दृष्टिकोण में सत्संग केवल वही है, जिसमें चार भक्त एकत्र होकर भजन गा लें, प्रवचन श्रवण करलें, अथवा किसी धार्मिक ग्रंथ का पाठ इत्यादि कर लें। लेकिन हमारे धार्मिक ग्रंथ ऐसी कोई घौषणा नहीं करते।
गोस्वामी जी सुंदर काण्ड में बड़ी सुंदर कथा का वर्णन करते हैं। चर्चा आती है, कि जब श्रीहनुमान जी लंका प्रवेश करना चाहते हैं, तो रावण ने लंका द्वार पर एक ऐसा प्रहरी नियुक्त कर रखा है, जिसकी दृष्टि से बच कर कोई भी प्राणी लंका में प्रवेश नहीं कर सकता। उस प्रहरी का नाम है ‘लंकिनी’। श्रीहनुमान जी ने सोचा, कि क्यों न मैं एक मच्छर के आकार का रुप धारण कर लूँ? इससे मैं आसानी से लंका में प्रवेश कर सकुंगा। हुआ भी यही-
‘मसक समान रुप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लेकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।’
जैसे ही श्रीहनुमान जी एक मच्छर के समान रुप धारण कर लंका नगरी में दाखिल होने लगते हैं, ठीक वैसे ही लंकिनी की पैनी दृष्टि श्रीहनुमान जी पर आन टिकती है। लंकिनी को यह बुरा नहीं लगा, कि कोई लंका में प्रवेश क्यों कर रहा है, बलकि बुरा उसको यह लगा, कि आने वाले ने यह कैसे मान लिआ, कि मच्छर सा रुप धारण करके, वह मुझे झांसा देने में सफल हो पायेगा? उसने भला मुझे क्या समझ कर ऐसा अक्षम्य अपराधा किया? अरे भाई! कोई चोर बन कर आ ही रहा है, तो चोरों की भाँति ही आये न। यूँ हमें मूर्ख बना कर क्यों आ रहा है? शायद इसीलिए लंकिनी श्रीहनुमान जी पर क्रोधित थी। और उसने स्पष्ट कहा, कि यह तो मेरा निरादर हुआ। अब इसका एक ही दण्ड है, और वह यह है-
‘जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।’
लंकिनी बोली, कि अरे चोर कहीं के! तू कहाँ मुझसे बच कर जाने की कोशिश कर रहा है? क्या तू नहीं जानता, कि संसार में जितने भी चोर हैं, वे सब मेरा आहार हैं। मैं किसी को भी नहीं छोड़ती। और तू है, कि यह भ्रम पाले बैठा है, कि तू हमें चकमा भी दे देगा, और लंका नगरी में प्रवेश भी कर लेगा? चल मैं तुझे इसका मज़ा चखाती हूं। लंकिनी श्रीहनुमान जी को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से उनकी ओर बढ़ती है। लेकिन श्रीहनुमान जी भला कहाँ किसी से कुछ हानि करवा सकते हैं। श्रीहनुमान जी ने अपने दोनों हाथों को युगल कर, एक बढ़िया सी मुष्टिका बनाई, और ‘डिशूम’ करके लंकिनी के मुख पर दे मारी। मुक्का क्या मारा, लंकिनी की तो बत्तीसी बाहर आ गई। उसके मुख से रक्त की बड़ी भारी धारा बहने लगी। खून की उलटी से लंकिनी के होश उड़ गये, औ वह गश खाकर धड़ाम से पृथ्वी पर आन गिरी। लंकिनी अब बेहोश थी।
आप ही सोचिए, श्रीहनुमान जी ने अब क्या किया होगा? निश्चित ही रास्ते की बाधा हटने के पश्चात श्रीहनुमान जी लंका में प्रवेश कर गये होंगे। लेकिन आप प्रसंग पढ़ेंगे तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। श्रीहनुमान जी लंकिनी के पास, वहीं लंकिनी के होश में आने की प्रतीक्षा करने लगे। सोच कर बताईये, कि श्रीहनुमान जी ऐसा क्यों कर रहे थे? क्या वे लंकिनी को ओर मारने की योजना बना कर बैठे थे? हाँ यह संभावना भी हो सकती है। क्योंकि लंकिनी ने श्रीहनुमान जी को, जो चोर शब्द कहा, शायद इसीसे श्रीहनुमान जी चिढ़ गये होंगे।
दूसरी और लंकिनी भी जब होश में लौटती, तो ऐसा नहीं कि पहले की भाँति सामान्य भाव से ही रहती। निश्चित ही वह, अपनी समग्र शक्ति एकत्र कर, वह श्रीहनुमान जी पर प्रहार करती। क्योंकि पहले तो उसने, श्रीहनुमान जी को बहुत हलके में लिया था। उसने सोचा था, कि यह तो कोई छोटा मोटा चोर है। इसे तो मैं ऐसे ही चुटकी में मसल दूँगी। लेकिन श्रीहनुमान जी का मुक्का खाकर पता चला, कि जिसे मैं राई का दाना समझ रही थी, वह तो निरा सुमेर निकला। श्रीहनुमान जी अभी लंकिनी के पास ही खड़े हैं, तभी लंकिनी को भी होश आ गया। लेकिन हमारी मति अनुसार जो हमने सोचा था, कि लंकिनी श्रीहनुमान जी पर टूट पड़ेगी, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे वह तो ऐसा विलक्षण व्यवहार करती है, कि किसी को भी आश्चर्य होगा। लंकिनी कहती है-
‘तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।’
अर्थात हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर भी इतने भारी नहीं हैं, जितने दूसरे पलड़े में रखे इस क्षण मात्र के सतसंग सुख भारी हैं।
विचार कीजिए, कि लंकिनी ने बिलकुल नहीं कहा, कि हे हनुमान आपने मुझे मुक्का मारा, तो मैं इसका प्रतिशोध लूँगी। बलकि यही कहा, कि आपने मेना बहुत ही सुंदर सतसंग करवा दिया है। सतसंग में तो भजन गाना, प्रवचन श्रवण करना अथवा किसी कथा का वाचन इत्यादि ही हो सकता है। इनमें से एक भी क्रिया श्रीहनुमान जी ने नहीं की। लेकिन तब भी लंकिनी कह रही है, कि आपने मेरा सतसंग करवा दिया। लंकिनी ऐसे कौन से सतसंग की बात कर रही हैं?
सज्जनों! वास्तव में जो सतसंग श्रीहनुमान जी द्वारा हुआ, वह लंकिनी के आंतरिक जगत में घटने वाली घटना है। जिसमें जब भी कोई संत महापुरुष किसी साधारण जीव को छू दूता है, तो उन संतों के स्पर्श से, उनकी शक्ति उस जीव में प्रवेश कर जाती है। जिसका प्रतिफल यह होता है, कि जीव का उसके माथे पर स्थित तीसरा नेत्र खुल जाता है। जिससे वह जीव अपने घट के भीतर ही प्रकाश रुप प्रमात्मा के दर्शन करता है। वह प्रतात्मा ही परम सत्य है। उस सत प्रमात्मा का संग करना ही ‘सतसंग’ है। इसी सतसंग से ही एक जीव कौवे की वृति त्याग कर कोयल की वृति धारण करता है।
आज भी समाज में ऐसे ही सतसंग की आवश्यक्ता है---(क्रमशः)---जय श्रीराम।