लखनऊ। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपने स्तर से पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के चयन का रास्ता साफ करके एक साथ कई किन्तु-परंतुओं को जीवित कर दिया है। सवाल तो यहां तक उठ रहा है कि क्या एक पुलिस अधिकारी के लिये यह सब किया गया है। बता दें प्रदेश में करीब तीन वर्षों से स्थायी डीजीपी की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। नई नियमावली बनने के बाद अब सरकार को स्थायी तौर पर डीजीपी की नियुक्ति के लिए यूपीएससी से मंजूरी की जरूरत नहीं होगी।
बता दें सर्वोच्च न्यायालय ने डीजीपी की नियुक्ति को लेकर वर्ष 2006 में एक याचिका की सुनवाई के दौरान पुलिस व्यवस्था को सभी दबाव से मुक्त करने के लिए राज्य सरकारों से कानूनन नई व्यवस्था बनाने की अपेक्षा की थी। उसके बाद पंजाब, तेलंगाना व आंध्र प्रदेश सरकार ने डीजीपी की नियुक्ति के संबंध में नियमावली बना रखी है। डीजीपी की नियुक्ति के लिए नई नियमावली बनाने वाला उत्तर प्रदेश चौथा राज्य बन गया है। नियमावली में यह स्पष्ट किया गया है कि अब डीजीपी की नियुक्ति संबंधित आईपीएस अधिकारी के बेहतर सेवा रिकॉर्ड व अनुभव के आधार पर की जाएगी। उन्हीं अधिकारियों को डीजीपी की नियुक्ति के लिए तवज्जो दी जाएगी, जिनका कम से कम छह माह का कार्यकाल शेष बचा हो।
नये नियमों में यह प्रावधान भी किया गया है कि डीजीपी की नियुक्ति कम से कम दो वर्षों के लिए की जाएगी, लेकिन डीजीपी के कार्यों से असंतुष्ट होने पर राज्य सरकार उन्हें हटा भी सकती है। वहीं, वेतन मैट्रिक्स के स्तर 16 वाले अधिकारियों में से ही डीजीपी का चयन किया जाएगा। मौजूदा डीजीपी प्रशांत कुमार प्रदेश के चौथे कार्यवाहक डीजीपी हैं। वह अगले वर्ष 31 मई को सेवानिवृत्त होंगे। चूंकि प्रशांत कुमार का कार्यकाल अभी छह माह से ज्यादा है, इसलिए नई नियमावली के लागू होने पर समिति द्वारा डीजीपी के चयन में इनके नाम पर भी विचार करना संभव होगा। प्रशांत कुमार से सरकार खुश भी है, उन्होंने अपवाद को छोड़कर प्रदेश की कानून व्यवस्था पर कायदे से नियंत्रण कर रखा है। उनकी छवि भी साहसिक अधिकारी वाली है। डीजीपी की नियुक्ति के लिए पहले की व्यवस्था के अनुसार सरकार पुलिस सेवा में 30 वर्ष पूरे कर चुके उन अधिकारियों के नाम यूपीएससी को भेजती थी, जिनका छह माह का कार्यकाल शेष हो। यूपीएससी राज्य सरकार को तीन अधिकारियों के नामों का पैनल भेजता था, जिसमें से सरकार किसी एक को डीजीपी बनाती थी।