उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में किस ओर जाएंगे दलित, क्या नए सियासी ठिकाने की है तलाश?

By अंकित सिंह | Jan 24, 2022

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी पारा चढ़ा हुआ है। सभी दल अपने-अपने समीकरणों को साधने की कोशिश कर रहे हैं। दलित राजनीति के दम पर उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुंचीं मायावती भी इस चुनाव में अपना दमखम लगा रही हैं। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक यह भी दावा कर रहे हैं कि मायावती अपने जीवन का सबसे कठिन चुनाव लड़ रही है। मायावती और उनकी पार्टी पर अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव है। दरअसल, राजनीतिक पंडितों का मानना है कि मायावती के करियर का ग्राफ उसी समय से गिरना शुरू हो गया था जब 2014 के चुनाव में उनकी पार्टी को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली थी। यह मायावती के लिए बहुत बड़ा झटका था। लेकिन मना किया कि मोदी लहर की वजह से मायावती को उत्तर प्रदेश में काफी सियासी नुकसान हुआ। हालांकि, पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कुछ खास प्रदर्शन नहीं किया। 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने के बाद बहुजन समाज पार्टी ने 10 सीटें जीती थी।

 

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अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर इस बार के विधानसभा चुनाव में क्या होगा? क्या मायावती का कोर वोट बैंक दलित उनके साथ रहेगा या जिस तरीके से 2019 और 2017 के चुनाव में मायावती की पार्टी को नुकसान हुआ, वही इस बार भी देखने को मिलेगा। यह सवाल उत्तर प्रदेश की सियासी फिजाओं में खूब घूमने लगा कि क्या राज्य के दलित सियासत में अपना नया ठिकाना ढूंढ रहे हैं? दरअसल, सवाल को दम इसलिए भी मिला क्योंकि 2014 के चुनाव में पार्टी को 0 सीटें हासिल हुई और राजनीतिक विश्लेषकों ने दावा किया कि दलित वोट इस बार के चुनाव में बसपा की जगह भाजपा की तरफ शिफ्ट हो गई।

 

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2017 के विधानसभा चुनाव में भी बहुजन समाज पार्टी को कुछ खास फायदा नहीं हुआ और सिर्फ 19 सीटें ही मिल सकी। इसके बाद यहां तक कहा जाने लगा कि उत्तर प्रदेश में अब दलित वोट मायावती के साथ नहीं रहा। लेकिन मायावती इस बात को कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। मायावती की पार्टी का दावा है कि भले ही 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ा, बावजूद इसके पार्टी ने 19 फ़ीसदी वोट हासिल की है जिसमें बड़ा हिस्सा दलितों का है। 2017 में भी यही तर्क दिया गया। सवाल यह भी है कि क्या इन 19% में मायावती को सिर्फ दलितों का वोट मिल रहा है बाकी किसी जातियों का वोट नहीं मिला। इस सवाल का जवाब शायद बसपा के पास भी नहीं है। यह बात भी सच है कि कांग्रेस के कमजोर होने के साथ ही दलित वोट बसपा की तरफ से हुआ। समाजवादी पार्टी को दलितों का कुछ खास सपोर्ट अब तक नहीं मिल पाया है।

 

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वोट पैटर्न में परिवर्तन

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2014 के मोदी लहर के बाद उत्तर प्रदेश में दलितों के वोट पैटर्न में बदलाव देखा गया है। दलित समाज में सबसे ज्यादा जाटव जाति के लोग मायावती के साथ थे। जाटव वोट बैंक मायावती के साथ हमेशा से रहा है क्योंकि वह खुद उसे जाति से आती हैं। बाकी के दलित वोटों में बिखराव रहा है। माना जा रहा है कि बीजेपी को अब सबसे ज्यादा वोट दलित समाज से मिल रहा है। जाटव वोट में भी अब बिखराव देखने को मिल रहा है और ज्यादातर जाटव वोट अब भाजपा को जा रहा है। यही कारण है कि अब ऐसा लग रहा है कि दलित समाज भी उत्तर प्रदेश में अपना विकल्प तलाश रहा है।


उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी (21 फीसदी)

जाटव- 55 फ़ीसदी

पास- 16 फीसदी

कनौजिया, धोबी- 16 फीसदी  

कोल- 4.5 फीसदी

धनुक- 1.5 फीसदी

वाल्मीकि- 1.3 फीसदी

खटीक- 1.2 फीसदी

अन्य- 4.5 फीसदी

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