Gyan Ganga: सुग्रीव जब मित्रता और सेवा धर्म भूले तो श्रीराम को आ गया था क्रोध

By सुखी भारती | Jan 19, 2021

हम विगत अंकों से श्री हनुमान जी के दिव्य चरित की महिमा व उनके समाज पर पड़ रहे उत्कृष्ट प्रभाव का अवलोकन कर पा रहे हैं। उनकी जीव को प्रभु से जोड़ने की कला व उनके पीछे छुपे परमार्थ की स्वर्ण अक्षरों में भी प्रशंसा की जाए तो कम है। कितनी विचित्र बात है कि वे स्वयं तो दास बन गए और सुग्रीव को बनवा दिया मित्र। मानो वे कहना चाह रहे हों कि हे जीव! अगर तूने किसी को मित्र बनाना ही है तो संसार में सच्चा मित्र मिलना अति दुर्लभ व कठिन है। कहने को तो सब कह देंगे कि हे मित्र! हम सदा साये की तरह आपके साथ चलेंगे। लेकिन हम इतना तो जानते ही हैं कि साया भी तो तभी तक साथ चलता है जब तक आपके समीप प्रकाश के स्रोत विद्यमान हैं। प्रकाश हो तो एक साया तो होता ही है और प्रायः अनेकों साए भी प्रकट होने लगते हैं। लेकिन कब तक? ज़रा प्रकाश का साथ घटने तो दो, अंधकार को रास्तों पर बिछने तो दें, फिर देखना। साए का कहीं नामोनिशान भी प्रतीत नहीं होगा। 

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ठीक इसी प्रकार संसार के मित्र होते हैं। जब तक आपके पास खूब धन−दौलत व सामर्थ्य होगा सभी आपके साथ साये की तरह चिपटे रहेंगे। लेकिन विधि वश अगर विपरीत समय आ गया तो सभी ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग। फिर हमें ऐसे मित्रों का आखिर लाभ ही क्या? जो केवलमात्र स्वार्थ की नींव पर टिके हों। उनके ऐसे बेबुनियाद दावे हमें आखिर कहाँ तक आधार देंगे? जिसमें शब्दों के तो बड़े से बड़े इन्द्र जाल हों लेकिन धरातल पर परिणाम शून्य ही निकले। हम बैठे हैं तो साथ बैठने वालों की संख्या बहुत हो लेकिन प्रश्न तो यह है कि साथ खड़ा कौन होता है? 


मित्रता की ही बात करें तो कर्ण और दुर्योधन में लोक मत के अनुसार गहरी मित्रता है। लेकिन इस मित्रता की आधारशिला क्या थी? यही न कि दुर्योधन ने कुंतीपुत्र कर्ण को अंग प्रदेश का राजा घोषित किया था। उसमें भी उसका कोई स्वार्थ यही था कि इतना बड़ा योद्धा मेरे सदा काम आएगा। कर्ण को भले ही राज्य का लोभ नहीं था। लेकिन मन में यह अहसास तो हावी था ही कि भरी सभा में जब सब मेरा तिरस्कार कर रहे थे तो दुर्योधन ने मुझे अंगराज बना कर सम्मान दिया। मुझे राजा बनाया और इसका ऋण मैं दुर्योधन के काम आकर चुकाऊंगा। यही वह कारण था जिसके चलते कर्ण ने दुर्योधन का अधर्म में भी साथ निभाया। तो क्या मित्र का धर्म यही था कि हमें तो बस आँखें बंद कर अपने मित्र का हर परिस्थिति में साथ देना है भले ही वह धर्म पर हो अथवा अधर्म पर। जी नहीं! वास्तविक मित्र तो वह ही है जो अपने मित्र को अधर्म के मार्ग से हटाकर धर्म की ओर उन्मुख करे। यह कैसी मित्रता है कि एक मित्र कुँए में गिर रहा है और हम उसको गिरने से बचाने के बजाय ऊँचे स्वर में यह कहते आगे बढ़ रहे हैं कि मित्र तुम अकेले कुँए में क्यों गिरोगे, रुको मैं भी तुम्हारे साथ गिरता ही गिरुंगा क्योंकि मैं तेरा सच्चा मित्र हूँ।

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भगवान श्रीराम भी सुग्रीव से मित्रता कर रहे हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ है कि सुग्रीव अपनी सेना सहित श्री सीता जी को ढुंढ़वाने में उनकी सहायता करेंगे। भला उन्हें किसी की सहायता की क्या आवश्यकता हो सकती थी। और वास्तव में तात्त्विक दृष्टि से तो श्रीसीता जी श्रीराम जी से विलग थीं ही नहीं। बस यह सब तो लीला मात्रा घटना थी। किंतु हाँ सहायता की आवश्यकता सुग्रीव को अवश्य थी। और श्रीराम ने सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य एवं पत्नी दिलाकर यह सहायता निश्चित ही की। उसे मान−सम्मान, पद प्रतिष्ठा सब दिया। लेकिन दुर्योधन की तरह उनका मित्र भाव कहीं भी ऐसा नहीं था मैं सुग्रीव का अपने लिए 'योग' नहीं अपितु 'प्रयोग' करूँगा। लेकिन सुग्रीव अगर श्रीराम से हुए इस पावन योग का दुरुपयोग करेगा तो अवश्य ही मैं उसे अधर्म के मार्ग से हटाकर धर्म की ओर मोडूंगा। और श्रीराम ने आगे चलकर ऐसा किया भी। क्योंकि राज्य और पत्नी मिलने के पश्चात तो सुग्रीव अपना सेवा कार्य भूल ही गया था। सिर्फ माया में मस्त होकर रह गया। प्रभु को लगा कि बारिश के चार मास बीतने के बाद भी सुग्रीव ने हमारी कोई सुध नहीं ली तो अब हमें ही उसकी सुध लेनी पड़ेगी। तो श्रीराम लक्ष्मण के समक्ष ही क्रोधित स्वर में यह घोषणा करते हैं कि सुग्रीव अपना सेवा धर्म बिसार चुका है। जिस कारण मैं उसी बाण से उसका वध करूंगा जिस बाण से मैंने बालि को मारा था−


सुग्रीवहिं सुधि मोरि बिसारी बिहारी। पावा राज कोस पुर नारी।। 

जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली॥


लक्ष्मण जी श्रीराम जी का यह स्वभाव देखकर एक बार तो आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि प्रभु का स्वभाव तो सदैव क्षमा करना और सब कुछ देकर भी, सब भूल जाना ही है। लेकिन कह रहे हैं कि मैं सुग्रीव को उसी बाण से मार डालूंगा जिस से मैंने बालि को मारा था। यह देखकर लक्ष्मण मन ही मन समझ जाते हैं कि प्रभु सुग्रीव को मारने वाले बिलकुल नहीं हैं। क्योंकि प्रायः तो आजतक यही देखा गया है कि अगर कोई किसी पर क्रोधित है तो वह उसे उसी क्षण मारने के लिए दौड़ता है। और अकसर यही कहता है कि रूक तुझे मैं अभी मज़ा चखाता हूँ। लेकिन यहाँ प्रभु कह रहे हैं कि मैं आज नहीं अपितु कल मारूंगा तो इसका अर्थ है कि वे मारने−वारने वाले बिलकुल नहीं हैं। वे तो बस सुग्रीव का कोई पाप ही हर रहे हैं। श्री लक्ष्मण जी ने यह मौका पाकर कहा कि प्रभु आप बड़े हो और सुग्रीव के बड़े भाई को आपने मारा। सुग्रीव छोटा है तो उसे मारने का आदेश अपने छोटे भाई अर्थात् मुझे दीजिए न। श्रीराम ने सुग्रीव को देखा तो सोच में पड़ गए कि अरे लक्ष्मण तो सुग्रीव वध हेतु सच में ही तत्पर हो गए हैं। अरे भाई! अपने मित्र को भी भला कोई मारता है? मित्र की तो रक्षा की जाती है। हमें सुग्रीव को नहीं अपितु उसकी मूढ़ता और अज्ञानता को मारना है। इसलिए हे लक्ष्मण! सुग्रीव हमारे पास बालि के भय के कारण आया था। बालि वध के साथ ही सुग्रीव का भय भी चला गया। अब फिर से तुम भी उसको भय दिखाना, मारना मत। और भय भी इतना नहीं कि वह हमसे डर कर कहीं और दूर ही भाग जाए। बस ऐसे डराना कि भागकर भी हमारी ही तरफ आए।


भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव।


सज्जनों कितनी पावन व हितकारी मित्रता है श्रीराम जी की। लेकिन यह सब संभव कब हुआ जब श्री हनुमान जी सद्प्रयास करते हैं। श्री हनुमान जी आगे भी कैसे−कैसे परहित के कार्य करते हैं जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...


-सुखी भारती

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